Thursday, April 23, 2009

गुलाब बाई के बहाने नौटंकी के एक विस्मृत अध्याय की चर्चा



मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी से सम्बन्धित पिछली पोस्ट की निरन्तरता में आगे जोड़ना चाहूंगा कि अपने ज़माने को बड़े कलाकारों को याद करते हुए मास्टर साहब अक्सर गुलाब बाई का ज़िक्र किया करते थे. मास्टर साहब को इस बात की टीस थी कि मौजूदा ज़माने की तड़क-भड़क और इलैक्टोनिक संगीत के शोर में नौटंकी के क्षेत्र में गुलाब बाई के अविस्मरणीय योगदान को लोग भूल गए हैं.

मेरे लिए गुलाब बाई के बारे में कुछ भी जानकारी तब हासिल कर पाना भूसे के ढेर में ऑलपिन खोजने जैसा था. तब न इन्टरनेट इस कदर प्रचलन में था और दिल्ली-बम्बई के कला-संस्कृति के गुप्त ठीहों पर हम जैसे स्मॉल-टाउन लौंडे-मौंडों को कोई घास डालता था.

पिछले विश्व पुस्तक मेले में मैंने पेंग्विन के स्टॉल से काफ़ी किताबें खरीदी थीं. उनमें से कुछ को पढ़ने का समय चाह कर भी नहीं निकल सका था. इधर एक सप्ताह पहले तीन-सवा तीन सौ पन्नों की जो किताब समाप्त की उसे पढ़ना जैसे एक अलग ग्रह पर किसी अलग ही कालखण्ड के किसी विस्मृत घटनाक्रम से रू-ब-रू होना था.

'गुलाब बाई: द क्वीन ऑव नौटंकी थियेटर' नाम की यह किताब उन्हीं गुलाब बाई का जीवनवृत्त है जिनके बारे में मास्टर फ़िदा हुसैन बताया करते थे. दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा की लिखी यह किताब परम्पराओं के संरक्षण के क्षेत्र में किया गया एक बेहद महत्वपूर्ण कार्य है.

उत्तर प्रदेश के फ़र्रूखा़बाद ज़िले की रहने वाली गुलाब बाई ने सन १९३१ में अपने नौटंकी करियर का आगाज़ किया फ़कत बारह की आयु में. नौटंकी में उस से पहले महिलाओं के रोल पुरुष निभाया करते थे. इस लिहाज़ से गुलाब बाई को नौटंकी की पहली महिला कलाकार होने का गौरव प्राप्त है. वे अच्छी अभिनेत्री के साथ साथ उम्दा गायिका भी थीं. गायन-संगीत का ज्ञान नौटंकी कलाकारों के लिए ज़रूरी गुण माना जाता था. 'लैला मजनूं' में लैला, 'राजा हरिश्चन्द्र' में तारामती, 'बहादुर लड़की' में फ़रीदा और 'शीरीं फ़रहाद' में शीरीं जैसे रोल निभाने वाली गुलाब बाई सन १९४० तक आते आते अपनी लोकप्रियता के चरम पर पहुंच चुकी थीं. १९४० के दशक के आते आते गुलाब बाई की तनख़्वाह सवा दो हज़ार रुपये प्रति माह के आसपास थी, जो उस ज़माने के हिसाब से अकल्पनीय रूप से बड़ी रकम थी. उन्होंने इस रकम से अपने परिवार को सहारा दिया, गांव में एक आलीशान हवेली बनवाई और फूलमती देवी का मन्दिर स्थापित किया. १९५० के दशक के मध्य में उन्होंने अपनी कम्पनी- 'गुलाब थियेट्रिकल कम्पनी' - का निर्माण किया.

नौटंकी की लोकप्रियता का ये आलम था कि रात १० बजे से शुरू होने वाले शोज़ सुबह ४-५ बजे तक चला करते और जवान-बूढ़े-बच्चे तम्बू के भीतर ठुंसे रहते. जहां नौटंकी होती थी वहां एक अनऑफ़ीशियल मेला जुटा रहता और अमूमन महीने भर तक चलता. कम्पनी हर रात नया खेल दिखाया करती.

... ख़ैर छोड़िये, इन तफ़सीलात के बारे में जानना हो तो किताब खोज कर पढ़ें. मैं कोशिश में हूं कि किसी तरह इस किताब के अनुवाद के अधिकार हासिल कर लूं और जल्द से जल्द हिन्दी के पाठकों के सम्मुख इसे रख सकूं. यह मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी के लिए मेरी व्यक्तिगत श्रद्धांजलि भी होगी और गुलाब बाई के जीवन वृत्त के माध्यम से लोग क्रूरतापूर्वक बिसरा दी गई एक विधा का इतिहास हिन्दी में पढ़ सकेंगे.
आमीन!

१९६६ में अपनी मृत्यु से पहले अपने आख़िरी दिनों में गुलाब बाई इस बात से बेहद आहत थीं कि फ़िल्मों के चलन ने लोगों के भीतर से नौटंकी के प्रति सारा अनुराग ख़त्म कर दिया था.

इन्हीं गुलाब बाई की आवाज़ में सुनिये राग भीमपलासी का एक टुकड़ा.



(किताब की डिटेल्स: 'Gulab Bai - The Queen Of Nautanki Theatre', लेखिका: दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा, Penguin India, 2006)

14 comments:

मुनीश ( munish ) said...

even NSD has done nothing substantial to revive nautanki. Somebody should file RTI and ask buggers to explain !

pankaj srivastava said...

अशोक भाई,

गुलाब बाई की बेटी मधु अग्रवाल कानपुर में अभी भी नौटंकी कंपनी चला रही हैं। पर हालात काफी खराब हैं। कुछ सरकारी आयोजनों का ही सहारा रह गया है। उनके पास गुलाब बाई से जुड़ी तमाम चीजें सुरक्षित हैं। दो साल पहले मैंने उनका इंटर्व्यू लिया था, तो उन्होंने दिखाया था। गुलाब बाई की वजह से ही कानपुर शैली की नौटंकी काफी मशहूर हुई। दूसरी हाथरस शैली है। कानपुर शैली की खासियत उसकी गायन शैली और संगीत की मधुरता है जो बहुत कुछ गुलाब बाई की देन है।
याद कीजिए एक जमाने का मशहूर फिल्मी गीत--नदी नारे न जाओ श्याम पैंया परूं..मूल रूप से गुलाब बाई का ही गाया हुआ है।
नौटंकी बेहद शक्तिशाली विधा है। अगर इसे साधा जाए तो सामाजिक-राजनीतिक जागरण का हथियार हो सकती है। पर हिंदी पट्टी का दुर्भाग्य ये है कि यहां कोई रतन थियम नहीं पैदा होता जो एनएसडी से मुंबई न जाकर मणिपुर जाए और स्थानीय कलाविधाओं को समकालीन तेवर दे सके।
वैसे अतीत में नौटंकी का क्रांतिकारी प्रयोग हो चुका है। 20 साल पहले मेरे हाथ लेनिन पर लिखी एक नौटंकी लगी थी। अवध के इलाके में जब सीपीआई का प्रभाव था तो बाराबंकी के कलाकारों ने इसे तैयार किया था। उसकी चार लाइनें भूलती नहीं...जरा नौटंकी के अंदाज में गुनगुनाकर देखिए, रोएं खड़े हो जाएंगे....

मानव द्वारा न मानव का शोषण हो अब
न अभावों में जीवन किसी का कटे
अपनी मेहनत का फल सबको पूरा मिले
राज शोषक का सारे जहां से हटे

कड़-मड़-कड़-मड़..धीन-धीन-धीन...

जुल्म की रात काली खतम जल्द हो
एक ऐसी सुबह की यहां पौ फटे
जिसमें इंसा बराबर हों दुनिया के सब
राज पैसे का सारे जहां से हटे

कड़-मड़-कड़-मड़..धीन-धीन-धीन...
कड़-मड़-कड़-मड़..धीन-धीन-धीन...

Rajesh Joshi said...

पाँडे जी, नमो नमः.

मास्टर साहब से मेरी एक मुलाक़ात एनएसडी हास्टल में हुई -- काफ़ी विस्तृत बातचीत हुई. उनके पास किस्सों का ख़ज़ाना था. क्या ऐसे लोगों के बारे में तुम एक श्रृंखला शुरू कर सकते हो? अगर हाँ तो मैं मेरी टाइलर के बारे में लिखूँगा, जिनसे मेरी मुलाक़ात तीन साल पहले हुई.


और पंकज मियाँ... ऐसा लगता है कि आप एलाहैबाद वाले पंकज हैं -- पीयसओ? क्या ग़लत कहा? अगर हाँ तो फिर भेजिए अपना फ़ोन नंबर.

pankaj srivastava said...

यानी जोशी नहीं राजेश जो हैं आप। सही पहचाना गुरु..
आजकल दिल्ली में हूं। एक टी.वी.चैनल से जुड़ा हूं। नंबर है 9873014510...अपना भी भेज देना प्यारे। तुम्हारी तस्वीरें देखी हैं। खुब मुटाए लगते हो। अपनी भी दाढ़ी मूंछ कट गई है। पेट ससुरा निकल रहा है। बुढ़ापा मुझमें घुसा चाहता है और मैं भाग रहा हूं।

Ashok Pande said...

जोसी जी
आप ख़ुद ही चालू कर देवें न ये सीरीज़. परेसानी ना है कोई.

anurag vats said...

yah sab jo chal raha hai wah to mulyawan hai hi...rajeshji jis silsile ko shuru karne ki baat kah rahe hain, wah bhi ek zaroori documentation hoga...shuruat ki jaye, yah mera bhi anurodh hai...

Unknown said...

gulaab baai ke baare mein zyaadatar aham jaankaariyaan ashok ji & pankaj shrivaastav ji ne muhaiya kar di hain.
sirf ek baat jo rah gayi & jis par shaayad kisi ka dhyaan na jaaye, yah hai ki hindi ke jaane-maane aalochak DR. VISHWANATH TRIPATHI ne likha hai ki RENU ki mashahoor kahaani TEESARI QASAM ki naayika buniyaadi taur par GULAB BAI hi hain.
doosare, jis nautanki shaili & paarsi theatre ki baat yahaan baar-baar ho rahi hai, uska aaj-kal ki zindagi mein bhi KANPUR zile mein bahut zyaada kheli jaane vaali RAMLEELA par zabardast asar hai. aisi tamaam prastutiyaan qhud maine dekhi hain & unse behad prabhaavit hoon & taaumra rahoonga.
apne yahaan ki RAMLEELA ko isiliye main gharib & graameen janta ka THEATRE maanta hoon. ismein BAREILLY ke rahne-vaale RADHESHYAAM JI ki likhi RADHESHYAAM-RAMAYAN ka bahut bada yogdaan hai, kyonki ismein shaamil anginat rachanaayen unhone nautanki shaili ki saangeetik dhunon ko maddenazar rakhkar likhi theen.
jin logon ko lagta hai ki paarsi theatre nahin raha ya nautanki shaili nahin rahi, unki baat apni jagah par sahi hai, magar in cheezon ki shaan & chhataayen ve dekhna chaahte hon to aaj bhi KANPUR zile ki RAMLEELAON mein unhen dekh sakte hain & is vishad rangmancha par DEEPTI PRIYA MEHROTRA ki maanind ek beshqeemati kitaab bhi likh sakte hain.
baharhaal, ashok ji is kitaab ka anuvaad karke samooche hindi samaaj ko ek amoolya tohfa denge-----MUSHKIL NAHIN HAI KUCHH BHI, AGAR THAAN LEEJIYE !
---PANKAJ CHATURVEDI
kanpur

शिरीष कुमार मौर्य said...

दुर्लभ प्रस्तुति. इसके लिए शुक्रिया काफी नहीं होगा!

मुनीश ( munish ) said...

itz heart warming to see that there is no dearth of nautanki lovers even in this era of digi-plexes ! i am witnessing an animated discussion of this magnitude ,on the subject of drama ,after a pretty long time!

शायदा said...

vakai ye sirf shukriya wali post nahi hai.

वर्षा said...

ऐसे लोगों के बारे में पढ़कर, जानकर बहुत अच्छा लगता है।

Priyankar said...

अक्टूबर २००० में गुलाब बाई की बेटी मधु अग्रवाल गुलाब थिएट्रिकल कम्पनी के साथ कोलकाता आई थीं . आठ-दस दिन के नवजात बेटे के कान में रुई डाल कर हम भी पत्नी के साथ पहुंच गए मधुसूदन मंच ’राजा हरिश्चंद्र’ देखने-दिखाने .

इसलिए भी कि पत्नी को दिखाना था कि ऐसी होती है नौटंकी जिसका मैं ज़िक्र किया करता हूं .अपने बचपन का ज़िक्र इन नौटंकियों का ज़िक्र किए बिना पूरा नहीं होता . राजा हरिश्चंद्र,सुल्ताना डाकू और लैला मजनू उस जमाने की मशहूर प्रस्तुतियां थीं जिन्हें देखने का मौका मुझे इटावा/कानपुर देहात में बिताए गए बचपन में मिला .नगाड़े की पहली चोट के साथ गांव भर की चाल में एक त्वरा आ जाती थी .

पिता के मुंह से मैंने उस जमाने के नौटंकी के कुछ बड़े नामों त्रिमोहन, नत्थाराम गौड़,श्रीकृष्ण पहलवान आदि का ज़िक्र सुना है . गुलाब बाई तो थीं ही .

Priyankar said...

अस्सी-नब्बे में अमरीकी विदुषी कैथरीन हैंसन(Kathryn Hansen) ने भी उत्तर भारत की नौटंकी कला पर महत्वपूर्ण काम किया था . इस पर उनकी एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है .

raj said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति,आपने तो पुरानी यादें ताजा कर दीं.अभी ज़ल्दी ही गुलाबबाई की पुत्री मधु अग्रवाल द्वारा मंचित नौटंकी'दहीवाली' और फिर 'सुल्ताना डाकू' देखीं.इत्तिफाक है कि पिछले दिन ही किताब 'नौटंकी की मलिका गुलाब बाई' पढ़ी है.
भाई पंकज को धन्यवाद लेनिन पर नौटंकी है यह जानकारी और दो बहरे तबील उनके सौजन्य से मिले.
राज नारायण