कोई पन्द्रह साल
पहले नैनीताल में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सौजन्य से एक ज़बरदस्त थियेटर वर्कशॉप
आयोजित की गई थी जिसमें बी. वी. कारन्त के अलावा मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी ने बतौर
प्रशिक्षक शिरकत की थी. मास्टर फ़िदा हुसैन तब सौ साल के हुआ चाहते थे. लम्बे कद के
मास्टर साहब की फ़िटनेस और कड़कती आवाज़ नौजवानों में ईर्ष्या का विषय बना करते थे.
उन के खाने और सोने-जागने के घन्टे तय होते थे. छोटी मोटी ऊंचाई चढ़ते हुए उनकी
सांस ज़रा भी नहीं फूलती थी और रिहर्सल के वक़्त उनकी उपस्थिति में किस की मजाल कि
थोड़ी सी भी अनुशासनहीनता दिखाए.
मास्टर
साहब नैनीताल के रंगकर्मी युवाओं से 'ख़ूबसूरत
बला' नाम का नाटक तैयार करा रहे थे. बी. वी. कारन्त साहब
नाटक का संगीत तैयार कर रहे थे (इस अद्भुत प्रस्तुति के अद्भुत संगीत को नैनीताल
के रंगकर्मी अब भी बड़ी मोहब्बत से याद करते हैं). फ़िलहाल रिहर्सल्स के बाद उनके
साथ मेरी तीन-चार लम्बी मुलाकातें हुईं थीं जिनमें उन्होंने बड़े उत्साह के साथ नौटंकी
से जुड़े अपने अनुभव सुनाए थे.
११
मार्च १८९४ को मुरादाबाद में जन्मे मास्टर फ़िदा हुसैन को पारसी थियेटर का बादशाह
माना जाता था. पारसी थियेटर का जन्म बहुत दिलचस्प तरीके से हुआ था. अंग्रेज़ों के
समय में गोरों के मनोरंजन के लिए विलायती ड्रामा कम्पनियां आया करती थीं. भारत में
ये कम्पनियां अच्छा खासा मुनाफ़ा बटोरा करती थीं सो पारसी समुदाय के कुछ लोगों के
मन में विचार आया कि इन्हीं विलायती कम्पनियों की तरह यहां भी थियेटर कम्पनियां
बना कर अच्छा पैसा कमाया जा सकता है. इस सिलसिले में एलिज़ाबेथन नाटकों की तर्ज़ पर
अतिशय ड्रामाई तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए नाटकों का मंचन शुरू हो गया. यह दीगर
है कि पारसी मालिकान को भारतीय जनमानस या संस्कृति से बहुत लेनादेना न था. पारसी
थियेटर में ठेठ भारतीय थीम्स का प्रवेश धीरे धीरे लेकिन एक निश्चितता के साथ हुआ.
१९११
में एक कठपुतली शो देखने के बाद मास्टर फ़िदा को लग गया था कि उनकी ज़िन्दगी इसी
क्षेत्र में काम करने को बनी है. १९१७ में मुरादाबाद के रामदयाल ड्रेमेटिक क्लब के
नाटक 'शाही फ़कीर' में उन्हें उनके
गोरे रंग और मधुर आवाज़ के दम पर लीड स्त्री किरदार निभाने को कहा गया. यहां एक बात
का ज़िक्र बहुत ज़रूरी है कि उनके परिवार में कला-संगीत वगैरह जैसे पेशों के लिए कोई
विशेष आदर का भाव नहीं था. सारे परिवार के विरोध के बावजूद वे इस मैदान में कूद
पाए तो इस के पीछे उनके पिता का प्रोत्साहन था. १९१८ में उन्होंने रॉयल अल्फ़्रेड
कम्पनी की नौकरी कर ली जहां पण्डित राधेश्याम कथावाचक के साथ अगले बारह सालों तक
उनकी ज़बरदस्त जुगलबन्दी बैठी और कम्पनी ने एक से एक सफल नाटक किए. 'नरसी मेहता' में लीड किरदार निभाने वाले फ़िदा हुसैन
के अभिनय का ऐसा सिक्का चला कि उनके नाम के आगे नरसी उपनाम जुड़ गया.
१९३२
में मास्टर साहब ने फ़िल्मों में भी काम करना शुरू कर दिया - 'रामायण', 'मस्ताना', 'डाकू का
लड़का' जैसी फ़िल्मों में उन्होंने अभिनय किया और गाने भी गाए.
मस्ताना का एक गीत बहुत विख्यात हुआ:
जिधर
उनकी तिरछी नज़र हो गई
क़यामत ही
बर्पा उधर हो गई
वो फिर-फिर के देखें मुझे जाते-जाते
मुहब्बत मेरी पुर-असर हो गई
किया राज़ अफ़शाँ निगाहों ने दिल का
छुपाते-छुपाते ख़बर हो गई
किया क़त्ल चुटकी में 'आज़ाद' को भी
निगाह उनकी कैसी निडर हो गई
शब-ए-वस्ल भी दिल के अरमाँ न निकले
मनाते-मनाते सहर हो गई
वो फिर-फिर के देखें मुझे जाते-जाते
मुहब्बत मेरी पुर-असर हो गई
किया राज़ अफ़शाँ निगाहों ने दिल का
छुपाते-छुपाते ख़बर हो गई
किया क़त्ल चुटकी में 'आज़ाद' को भी
निगाह उनकी कैसी निडर हो गई
शब-ए-वस्ल भी दिल के अरमाँ न निकले
मनाते-मनाते सहर हो गई
उनके प्रशंसकों
की फ़ेहरिस्त ख़ासी लम्बी हुआ करती थी जिसमें कुन्दनलाल सहगल,
सोहराब मोदी, जिगर मुरादाबादी से लेकर महात्मा
गांधी, पं मदन मोहन मालवीय से लेकर राममनोहर लोहिया और
इन्दिरा गांधी जैसी हस्तियां शुमार हैं.
फ़िल्मों
से वापस आकर उन्होंने दोबारा रंगमंच का रुख़ किया और १९४८ में अपनी कम्पनी 'मूनलाइट' स्थापित की. बीस साल यानी १९६८ तक काम करने
के बाद उन्होंने अभिनय से सन्यास ले लिया. छब्बीस साल बाद वे नैनीताल में थे और
बच्चों को रंगमंच के गुर सिखला रहे थे.
१०५
वर्ष की आयु में यानी १९९९ में उनका देहान्त हुआ. मास्टर साहब से हुई बहुत ज़्यादा
बातें जस की तस तो याद नहीं हैं पर उन्होंने उन पांच प्रतिज्ञाओं का ज़िक्र हर
मुलाकात में किया जो उन से उन के पिता ने थियेटर में जाने की अनुमति देते हुए लिए
थे:
१.
चरित्र मजबूत रखना
२.
झूठ न बोलना
३.
जुआ न खेलना
४.
नशा न करना
५.
दूसरे की अमानत पर निगाह न धरना.
मास्टर
साहब ने इन वचनों को ताज़िन्दगी निभाया और एक अद्वितीय जीवन जिया. ऐसे व्यक्तित्व
की आज के ज़माने में कल्पना तक नहीं की जा सकती.
मास्टर
फ़िदा हुसैन की स्मृतियों को नमन!
(फ़ोटो:
दूसरी फ़ोटो में मास्टर फ़िदा हुसैन फ़िल्म 'मस्ताना' के नायक के रूप में. दोनों फ़ोटो 'संदर्श' पुस्तिका २ से साभार)
9 comments:
बहुत बहुत शुक्रिया अशोक जी ऐसी अजीम शख्शियत के बारे में बताने के लिए...पारसी थीयेटर के लिए बा बुलंद आवाज़ होनी जरूरी हुआ करती थी...आज के दौर में उन नाटकों की बात सोची भी नहीं जा सकती...सोहराब मोदी साहेब ने पारसी थीयेटर स्टाईल में कई फिल्में भी बनाईं थीं...आप यकीनन खुश किस्मत हैं जो इतने काबिल इंसान से मिल पाए...
नीरज
बेहतरीन प्रस्तुति।
संयोग है कि कबाड़खाना पर मैं भी मास्टरजी के बारे में कुछ सामग्री डालने की सोच रहा था। करीब तीस साल पहले प्रख्यात रंगकर्मी प्रतिभा अग्रवाल ने फिदा हुसैन साहब से कई बैठकों में लंबे इंटर्व्यू लिए थे। इंटर्व्यू क्या थे, बस...एक कलाकार यादों के समंदर में गोता लगाता रहा था। प्रतिभा जी ने उस अनुभव को पुस्तकाकार प्रकाशित करवाया था। वह अनुभव एक दस्तावेज की शक्ल में हमारे संकलन में है। उसी में से कुछ मोती कबाड़खाने को नज्र करना चाहता हूं।
मास्टर साहब के बारे में आप के संग्रह में जो भी है, उस के कुछ हिस्सों को आप ने यहां जल्द से जल्द लगाना चाहिये, अजित भाई!
Ise kehte hain Haryane mein " Lath gaadna" , aapne kamaal ke anubhav liye hain Ashok bhai. Vah janaab!
काश ! उस ज़माने मेँ भी वीडीयो होता
जो "नरसी " के कीरदार को
जीवित रख पाता
तो कितना अच्छा होता
अशोक भाई शुक्रिया ..
इस अनोखे कलाकार से मुलाकात करवाने का ..
- लावण्या
पारसी थियेटर के बादशाह को नमन.
पारसी थियेटर के बादशाह को नमन.
उनकी बुलंद आवाज़ की चर्चा आज भी होती है हमारे यहाँ
आज अचानक मास्टर फ़िदा हुसैन की याद
आयी तो गूगल किया पढ़कर हो गया शाद
मुरादाबाद में जब था उन्हें अक्सर सुनता था
आपके कबाड़ख़ाना की शोभा है मास्टर जी
��प्रणाम�� क्रान्त जी.नोएडा������
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