Friday, May 1, 2009

सिकन्दर, जंगली मुर्गी का शिकार और एक नशीली पिकनिक - भाग एक



दारू पीना सीखे हुए साल भर हो गया था. नैनीताल शहर की रोमान्टिकपन्थी के चक्कर में मोफ़्फ़त की मार भी पड़ चुकी थी. घर से मिलनेवाली पाकेटमनी हम मित्रों के मिलौचा-प्रोग्रामों की भेंट चढ़ जाया करती थी और पन्द्रह तारीख़ आते ने आते फ़ोकट दारू पिलाने वाले महात्माओं की खोज शुरू हो जाती.

इस संकटपूर्ण समय में शहर में मेरा जलवा एक प्रतिभावान छोकरे के रूप में क्या फैलना चालू हुआ कि कई सारे नौकरीपेशा, बिजनेसरत लोगों से दोस्ती हो गई. ये सब किसी न किसी रूप से कला-साहित्त के मारे थे.

इनकी संगत में होता यूं था कि रोज़ फ़ोकट दारू पीने को मिल जाती थी और झील किनारे देर रात टहलते आवारागर्दी और मौज के अनन्त सेशन्स चलते थे. मेरी अपनी कैपेसिटी अब पव्वे के आसपास पहुंचा चाहती थी.

एक दिन इन्हीं पुरोधाओं द्वारा नैनीताल से दसेक किलोमीटर दूर किलबरी नामक स्थान पर पिकनिक का प्लान बनाया गया. किलबरी में वन विभाग का गेस्ट हाउस है जिसे बाकायदा बुक करा लिया गया था.

पिकनिक पार्टी में जगतदा बतौर लीडर शामिल थे. जगतदा ज़बरदस्त एक्टर थे और सारा शहर उन्हें इस वजह से ज़्यादा जानता था बजाय इस के कि वे बड़े अफ़सर भी थे. पार्टी के अन्य सदस्यों में नरेश जोशी यानी नरदा, राजेशदा, लल्तू दाज्यू और मैं थे.

नरदा का यू.एस.पी. यह था कि वे दारू पीने के बाद मस्ती के पहले दौर में दोस्तों को बहुत दर्दनाक चिकोटियां काटते थे, दूसरे दौर में मां-बहन की गालियां सुनाते हुए शहर भर की सुन्दरियों पर लानत भेजते और तीसरे में लुढ़क जाने से पहले उपस्थित मित्रों को प्रसाद के तौर पर एक एक लात रसीद किया करते. नरदा वकील भी थे.

राजेशदा भांग और चरस को भी दारू के बराबर सम्मान दिये जाने के हिमायती थे, सो नैसर्गिक था वे बहुत कम बोलते थे. अच्छी कदकाठी वाले राजेशदा दारू-सत्रों के उपरान्त पूर्णटुन्नों को घर पहुंचाने का कार्य बचपन से ही करते आए थे, ऐसा कहा जाता था. नैनीताल में उनका अपना पैतृक बिजनेस था.

लल्तू दाज्यू के तो क्या कहने - हारमोनियम थाम लेते तो पानी जैसा बहा देते सुरों को, और पक्के राग गाते हुए ऐसी ऐसी तानें छेड़ा करते कि उफ़! वे नौकरी करते थे कहीं.

ये चारों चालीस-पैंतालिस के फेरे में थे - चारों शादीशुदा थे, उनके बच्चे थे. बस कला-साहित्त के कीड़े ने उन्हें ऐसा काटा था कि मुझ बीसेक साल के लौंडे को बड़ा कलापारखी समझते थे जबकि मुझे सिवाय बात-बात पर मीर और चचा ग़ालिब के शेर सुनाने और छात्र संघ के चुनावों के पोस्टर बनाने के अलावा कुछ नहीं आता था. नहीं, नहीं! ऐसा नहीं है कि मैं कुछ और नहीं करता था. मैं दारू भी पीता था. और एक तरह से दारु और कला-साहित्त की ऐसी संगत बैठती कि अपने से दूनी उमर के इन महानुभावों की निस्बत में बहुत अपनापन महसूस होता था. भाग्यवश ये सब आज भी मेरे अंतरंग मित्र हैं.

सुबह सात बजे तल्लीताल रिक्शा स्टैंड पर इकठ्ठा हुए सारे - पिकनिक वाली पोशाकों में - यानी स्पोर्ट शूज़, जीन्स, टी शर्ट, हैट, काले चश्मे, पिठ्ठु, टू इन वन, कैसेट वगैरह. जगतदा के कन्धे पर भरवां बन्दूक लगी हुई थी. प्लान यह था कि जल्द से जल्द किलबरी पहुंचकर शिकार पर निकला जाएगा - पांचेक जंगली मुर्गियां चित्त की जाएंगी, लकड़ियां वगैरह इकठ्ठा करके खाना बनेगा, दारू पी जाएगी और मौज के समुन्दर में गोता लगाया जायेगा.

रसद के नाम पर चावल और मसाले ले जाए जा रहे थे. किलबरी में सिवाय गेस्ट हाउस और कुछ नीचे एक बेहद छोटे गांव के कुछ नहीं था.

तल्लीताल से किलबरी जाने के लिए पहले स्नोव्यू चढ़ना पड़ता है. सात बजकर सात मिनट पर जगतदा ने ओल्ड मॉंक की बोतल खोल ली ताकि चढ़ने में ताकत मिले. रिक्शा स्टैण्ड जैसे सार्वजनिक जगह पर ही बोतल मुंह में लगाकर एक-दो जलते हुए पैग हलक में ठूंसे गए, बन-आमलेट का भोग लगाया गया और अजगर जैसी मरियल चाल से चढ़ना शुरू किया गया. हर मोड़ पर बोतल पास-ऑन की जाती और करीब नौ बजे तक घिसटते चलते, लतीफ़ों और किस्सों की मौज के बीच पहली बोतल निबट गई. मैंने इस से पहले प्रभाती कभी नहीं की थी सो अभी यह समझ पाने की स्थिति में नहीं था कि अच्छा लग रहा है या नहीं. उतना नशा भी नहीं हो रहा था. मुझे उम्मीद थी जगतदा रात के वास्ते एक बोतल से ज़्यादा माल लाया होगा क्योंकि मैं अपनी कैपेसिटी भी चैक करना चाहता था इस पिकनिक में.

स्नोव्यू पहुंचते पहुंचते दस बज गया. हमें पूर्वनिर्धारित प्लान के मुताबिक अब तक किलबरी का आधा रास्ता तय कर लेना था पर नरदा सब को चिकोटियां काट काट कर बता रहा था कि कोई जल्दी नहीं है और शिकार के लिए चार-एक बजे के बाद का समय सबसे उत्तम होता है. स्नोव्यू आते आते भूख लग आई थी. कुछ नाश्ते का ऑर्डर दिया गया और देखते न देखते दुसरी बोतल मेज़ पर थी. आधी पौनी बोतल सूती जा चुकी थी जब मुझे अपने पेट की तरफ़ से "हो गया!" की पुकार आ गई. मेरा फ़िलहाल का कोटा पूरा निबट चुका था लेकिन मेरे बहादुर वरिष्ठ साथियों द्वारा पी गई रम ऐसा लगता था उनकी ऐड़ियों या हद से हद घुटनों को भिगा सकी. दूसरी बोतल निबटी और हम रस्ता लग लिये. दारू और भोजन की मात्रा ज़्यादा हो गई थी और हमारा टल्लीदल सुस्त चाल से मंज़िल-ए-मकसूद की जानिब रेंग रहा था.

सबने अपने अपने हिसाब से अपनी गति निर्धारित कर ली थी. नरदा बहुत तेज़ तेज़ चलता हुआ हमारी निगाहों से ग़ायब हो चुका था. मैं और लल्तू दाज्यू साथ साथ थे जबकि तीसरी सब - पार्टी में जगतदा और राजेशदा "हम आ रहे हैं एक एक लगा के" कह कर चरसठुंसी सिगरेट बनाने के उद्देश्य से कुछ पीछे रुक गए थे. रास्ता वीरान था, सिवाय एकाध दूधियों के जो नैनीताल में दूध बांटकर अपने टट्टुओं को हांकते अपने घर लौट रहे थे. लल्तू दाज्यू इन दूधियों से कुमाऊंनी में कुछ चुहल करते और देर तक हंसते जाते. अपने टू इन वन पर उन्होंने मेहदी हसन की कोई ग़ज़ल लगा ली थी और सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं टाइप माहौल की सर्जना होने लगी थी. दोपहर का करीब एक बजा था, सूरज सिर पर था पर उसकी टक्कर का सूरज हम उदरस्थ कर चुके थे और मौज आनी शुरू हो गई थी.

(अगली किस्त में तमाम)

6 comments:

पारुल "पुखराज" said...

वीर तुम बढ़े चलो :)

Ek ziddi dhun said...

daru khud badha degi, fikar not.

naveen kumar naithani said...

अब तो आप पक चुके हैं!अगली किस्त तक चढ़ाते रहेंगे तो देहरादूनियों का क्या होगा? एक छोटा मारो और रास्ता लग लो.पाठकों को इन्त्जार है भाई.

Ashok Pande said...

आ रही है नवीन भाई! आ रही है अगली किस्त जल्दी!

मुनीश ( munish ) said...

Double salute Old Monk admirers!

Anil Pusadkar said...

पेट की तरफ़ से "हो गया" की पुकार आ गई।गज़ब कर दिया अपने। आपके इस डायलोग को अपने रात्रिकालीन दोस्तो को बताना ही पड़ेगा।