Friday, May 1, 2009

सिकन्दर, जंगली मुर्गी का शिकार और एक नशीली पिकनिक - आखिरी हिस्सा

(पिछली पोस्ट से जारी)

किलबरी से एक किलोमीटर पहले नरदा बुरांश के एक पेड़ की छांह में लधरा हुआ था. पास पहुंचे तो देखा नरदा ने अपना पिठ्ठू तकिये जैसा बनाया हुआ था और बाकायदा ख़र्राटों की बहार छाई पड़ी थी. मैं और लल्तू दाज्यू भी वहीं बैठ गए. ढाई-तीन बज चुका था. हमें जगतदा और राजेशदा का इन्तज़ार करना ही श्रेयस्कर जान पड़ा ताकि आगामी कार्यक्रम को चॉक आउट किया जा सके.

करीब आधे घन्टे बाद खरामा खरामा डोलते, किसी बात पर ठठाकर हंसते दोनों का आगमन हुआ. राजेशदा का पीठ्ठू सबसे बड़ा था और संभवतः सबसे भारी भी क्योंकि ठोस और द्रव दोनों तरह की रसद उसमें लदी हुई थी. उन्होंने बेहोश सोये नरदा को देखा और हंसने के क्रम को जारी रखते हुए नरदा की पिछाड़ी पर लात लगाई. किसी दुस्वप्न से जैसा जागे नरदा ने "अबे इत्ती मत पिया करो सालो!" कहकर हमें हड़काया और चलने की हमारी रफ़्तार का मज़ाक बनाया. नरदा अपना पिठ्ठू थामकर उठने को हुआ तो नीचे बैठता हुआ जगतदा बोला कि किलबरी आ ही गया है ऐसी क्या जल्दी है. राजेशदा से बोतल निकालने को कहा गया और एक-एक शॉर्ट खींचा गया. मुझ नए नए शराबी की आंखें मुंद जैसी रही थीं और दाल-भात खाने की इच्छा हो रही थी. लेकिन मेरे वरिष्ठ साथी उतने ही ऊर्जावान लग रहे थे जैसे वे लगा करते थे.

बुरांश के पेड़ के नीचे दारूवन का निर्माणकार्य पूरा करने के उपरान्त करीब पन्द्रह मिनट में हम किलबरी डाकबंगले के भीतर थे. आलीशान ब्रिटिशकालीन बंगला जिसमें कभी जिम कॉर्बेट तक आकर रहा करते थे आज जगतदा जैसे शिकारी के नेतृत्व में आए कलाग्रस्त शराबियों की सोहबत पाकर अपने को धन्य समझ रहा होगा, ऐसा कुछ कहकर ललतू दाज्यू ने समां बांधने कि कोशिश की. हमने उन्हें बहुत तवक्को नहीं दी और अपने झोले-झिमटे नीचे धरे. चौकीदार ने चाय के बारे में पूछा तो जगतदा ने उसे प्यार से लताड़ा कि गुरू क्या हम यहां चाय पीने आए हैं. पानी, कांच के गिलास वगैरह मंगाए गए और चौकीदार को भुजिया इत्यादि तैयार करने का निर्देश देते हुए इत्तला दी गई कि हम लोग आधे घन्टे के भीतर शिकार पर निकलने वाले हैं. महौल बनाने में उस्तादी रखने वाले लल्तू दाज्यू ने इस बार अपने टू इन वन पर "आए कुछ अब्र कुछ शराब आए" लगाया तो जगतदा बोला कि यार लल्तू बैटरी खत्म हो जाएगी तो रात में दारू कैसे पिएंगे बिना म्यूज़िक के.

सभी ने इस बारे में हामी भरी तो टेप बन्द कर दिया गया. मैं अलबत्ता अब हैरत कर रहा था कि राजेशदा कितनी दारू लाया होगा और अगर शराब रात को पी जाएगी तो अब तक क्या किया गया और क्या किया जाने वाला है.

शिकार पर निकले तो नरदा के और मेरे पैर डगमग करने लगे थे. हमें चुपचाप पीछे आने का निर्देश देकर जगतदा बन्दूक थामे मुर्गियों की टोह ले रहे थे. चार-पांच बजे से करीब साढ़े छह बजे तक उन्होंने तीन जगह मुर्गियां देखकर फ़ायर किये पर कुछेक पंखों को छोड़कर हाथ कुछ नहीं आया. इस बीच राजेशदा और लल्तू दाज्यू ने भी हाथ आजमाए पर कुछ मिला नहीं. हल्का अंधेरा घिरने को हुआ तो जगतदा बोला कि छर्रे बहुत कम बचे हैं और अब डाकबंगले जाने में ही भलाई है. रात को आसानी से मुर्गियां मारी जा सकती हैं ऐसा उन्होंने किसी किताब में पढ़ रखा था.

डाकबंगले पहुंचकर और टुन्न होने की प्रक्रिया में इस बार चौकीदार को भी शरीक किया गया क्योंकि शिकार करने के उपरान्त उसी ने मुर्गियां छीलनी थीं और उन्हें पकाना भी था. चौकीदार अकेला रहता था और मुकेश के गानों का शौकीन था. जगतदा के टू इन वन की बैटरी घुस गई थी और तीन-चार पैग खेंच लेने के बाद चौकीदार ने "एक धनवान की बेटी ने निरधन का दामन छोड़ दिया" की कराहनुमा तान छेड़ी हुई थी.

समय बीतता जा रहा था. रात बाकायदा हो चुकी थी. डाकबंगले में लाइट नहीं थी पर चौकीदार ने दो पैट्रोमैक्स जलाकर अच्छी रोशनी कर दी थी. पहले तो सब ने जगत दा के असफल शिकार अभियान को लेकर उनकी खूब ऐसीतैसी की. जल्द ही महफ़िल अपने उरूज पर आ गई और मेरे वरिष्ठ पथप्रदर्शक ऐसी ऐसी बातों से माहौल को जमाए हुए थे कि भूख अब किसी ब्लैक होल में तब्दील होकर पेट के किसी गुप्त हिस्से में छुप चुकी थी. इन लोगों के अनुभव का संसार इस कदर भरपूर था कि मुझे उनसे ईर्ष्यापूर्ण मोहब्बत हो चुकी थी जो किसी चस्के की तरह आज तरह लगी हुई है.

खा़स 'पीने' के साथ के वास्ते लाया गया सामान अब राजेशदा के थैले से एक एक कर बाहर निकल रहा था. रेडीमेड कवाब, काजू, पिस्ते और पापड़ इत्यादि. इन्हें खाना शुरू किया तो मेरी भूख का दैत्य एक बार फिर बड़ा होना शुरू हो गया. गप्पों के बाद अब गायन का सत्र चालू हुआ. गायन के उपरान्त पुनः गप्पें और फिर वही रिपीट.

चौकीदार अब ऊंघ रहा था और नरदा ने सबको लातें रसीद करना चालू कर दिया था. जगतदा ने मुझसे मेरे अपेक्षाकृत ज़्यादा चुपचुप रहने का सबब पूछा तो मैंने भूख की बात बताई. भूख का नाम लेते ही सबकी भूख जाग गई. घड़ी साढ़े ग्यारह बजा रही थी. शिकार का कार्यक्रम रद्द करने में ही भलाई समझी गई क्योंकि किलबरी के आसपास का जंगल बाघों और भालुओं का घर भी हुआ करता था. चौकीदार को हिलाकर जगाया गया और खाने के बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि उसके पास मुठ्ठी भर दाल के अलावा कुछ नहीं. जगतदा ने उससे कहा कि हमारे लाए चावल को मसालों और नमक के साथ उबाल दे. चौकीदार पता नहीं घाघ था या हमारा हितैषी. बोला:"नीचे झोपड़ी में शेरसिंह ने मुर्गे पाले हुए हैं. वो बेच देगा तो साब लोगों की दावत पूरी हो जाएगी."

"चलो" कहकर राजेशदा और जगतदा ने चौकीदार के साथ नीचे शेरसिंह की झोपड़ी का रुख़ किया. करीब बीस मिनट बाद जगतदा पैर बंधा हुआ एक आलीशान और तन्दुरुस्त मुर्गा थामे अन्दर घुसे. "जै हो!" कहते हुए लल्तू दाज्यू ने जगतदा के गले से लिपटकर मुर्गे का मुआयना किया. "बहुत हैल्दी है साला. दो किलो से कम तो मीट क्या ही निकलेगा."

"दो सौ रुपए ले लिये साले ने बेटा. अब कुछ माल तो निकलना ही चाहिये ना!" पीछे से आते राजेशदा बोले.

भोजन आ चुका था, यह तथ्य हमारी भूख को बैकग्राउन्ड में धकेलने को पर्याप्त था. जगतदा अपनी शिकार न कर पाने की शर्म से अभी तक उबर नहीं पाया था ऐसा लगा. उन्होंने और रम खेंची. हाहाहीही का सिलसिला जो फिर चालू हुआ तो समय को जैसे पंख लग गए. जगतदा अपने रंग में आ गया था और नाटकों के अपने डायलॉग्स बोलने लगा था. किसी ज़माने में जगतदा ने सिकन्दर का पार्ट खेला था. वह अक्सर रमातिरेक में इसी पारसी स्टाइल नाटक के अपने संवाद बोला करता था. इस सांस्कृतिक कार्यक्रम का समय परम्परा से ही सोने से ठीक पहले का नियत था. जगतदा को दारू लग जाने का मतलब यह माना जाता था कि अब कोटा निबट गया और शरीफ़ लोगों की तरह जल्दी से खाना खा कर सो जाने का बखत आ चुका.

सिकन्दर के संवाद बोलते जगतदा अपनी रौ में आ गया था और हम बहुत ज़्यादा लुत्फ़ लूट रहे थे. इस सांस्कृतिक कार्यक्रम का एक अहम हिस्सा यह होता था कि सामने वालों में से किसी एक ने पोरस बन जाना होता था और हां-हूं की टेक लगाते रहना होती थी. किलबरी के डाकबंगले में यह काम लल्तू दाज्यू ने सम्हाला हुआ था. लेकिन सुबह सात बजे से दारू पीते पीते उनका भूसा भर चुका था और हां-हूं करते किसी क्षण उनकी आंख लग गई.

मैं बीच बीच में एक निगाह उल्टा कर धरे गए पैर बंधे जीवित डिनर की तरफ़ डालकर यह जान गया था कि खाना तो अब कल सुबह ही मिलेगा. मुर्गा इस असुविधापूर्ण पोज़ीशन के बावजूद माहौल का मजा ले रहा लगता था. चौकीदार ने एक नींद निकाल ली थी और आंखें खोले वह यकीन करने का प्रयास कर रहा लगता था कि ये जीवित दैत्य भी इसी धरती के बाशिन्दे हैं.

लल्तू दाज्यू के इस तरह सो चुकने को संभवतः जगतदा ने अपना अपमान समझा और एक निर्णायक क्षण में वे लपक कर मेज़ पर खड़े हो गए. उन्होंने एक द्रवित दृष्टि बंधे हुए मुर्गे पर डाली और उनकी आंखों से टपटप आंसुओं की धारा बहने लगी. भावातिरेक में उन्होंने मुर्गे को संबोधित किया: "मेरे भाई तेरा यह अपमान सिकन्दर से और बरदाश्त नहीं होता. सिकन्दर के सामने पोरस को इस तरह बांध दिया जाए, ऐसा यूनान के खून में नहीं होता, मेरे दोस्त!"

वहां से जगतदा ने छलांग सी मारी और मुर्गे के सामने बैठ कर सुबकते हुए उसे देखने लगे. हकबकाया मुर्गा भी उन पर निगाहें डाले था. अचानक जगतदा दहाड़ा: "सेनापति! कहां हो सेनापति!"

काफ़ी देर से चुपचाप बैठा नरदा झटके से उठा और उनके पास जाकर बोला: "आदेश विजेता सिकन्दर! आदेश!"

"बन्दी को मुक्त किया जाए!"

बन्दी को मुक्त किया गया. "सुनो पोरस! सिकन्दर किसी को इस तरह की नाइन्साफ़ी बरदाश्त नहीं!" नरदा से मुख़ातिब होकर सिकन्दर महान ने आदेश दिया: "बन्दी को खुले आकाश ने नीचे ले जाया जाए!"

बन्दी को खुले आकाश के नीचे ले जाया गया. राजेशदा और लल्तू दाज्यू आंखें मूंदे मरे का अभिनय कर रहे थे. मैंने पहली बार इस कोटि के सांस्कृतिक कार्यक्रम को देखने का सौभाग्य पाया था. नरदा सेनापति थे सो उन्हें तो बाहर जाना ही था. मैं और चौकीदार दोनों अधमरे हो चुके थे लेकिन इस नाटक को देखने का लोभ संवरण नहीं कर सके. जगतदा अपनी बन्दूक में छर्रे भर कर बाहर आ गए थे. बाहर अंधेरी रात थी. चौकीदार ने एक पैट्रोमैक्स बरामदे में धर दिया. बरामदे के आगे थोड़ी सी खुली जगह थी. मुर्गे को जगतदा के आदेसानुसार उसी जगह पर धर दिया गया. बेचारा मुर्गा अब भी डरा हुआ था और हम दानवों को हैरानी से देख रहा था.

"लैट्स हैव अ डुएल ओ नाइट ऑव द ब्लू कासल! हेयर कम्स किंग आर्थर ऑव कैमेलॉट!" बरामदे के खम्भे के पीछे पोज़ीशन लेते हुए सिकन्दर अब किंग आर्थर में तब्दील हो गया था. पैट्रोमैक्स की भकभक रोशनी काफ़ी मन्द पड़ चुकी थी. बन्दूक से धांय की आवाज़ आई और हवा में बारूद की गन्ध फैल आई. हमारा डिनर गायब था.

जगतदा वापस जगतदा बन गया था. और काफ़ी पशेमानी झेल चुकने के बाद अब और डायलॉग बोलने की स्थिति में नहीं बचा था.

हम भूखे ही जाकर सोने की जुगत में लग गए. नींद आने को ही थी कि दरवाज़े पर साहब! साहब! की आवाज़ आई. मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा चौकीदार था. "शेरसिंह आया है साहब. मुर्गा वापस लाया है. कह रहा था कि आप लोगों ने उसे खाया क्यों नहीं. वो तो वापस घर आ गया."

जगतदा जगे हुए थे शायद. वहीं से झेंपते-झींकते बोले: "यार इसे कह दो कि काट वाट के पका दे! भूख से आंतें चिपक गईं साली!"

करीब साढ़े तीन बजे चौकीदार ने खाना पक चुकने की सूचना दी. भोर साढ़े चार-पांच बजे तक हमारा भोज चला. दारू कब की निबट चुकी थी. भरपेट मुर्गा-भात ठूंसकर हम बिस्तर की तरफ़ जा रहे थे. बाहर परिन्दे फड़फड़ाने-गाने वगैरह लगे थे.

"बाहर जंगली मुर्गियां फड़फड़ाने लग गई हैं शायद! चलता है बेटा शिकार पे?" कोने के एक बिस्तर पर लेटे नरदा ने डकार लेते हुए जगतदा को छेड़ा.

9 comments:

मुनीश ( munish ) said...

Saab log ki shikaar paalti jindabaad!
This post compels me to dig out an ancestral double barrel tomorrow though therez not even a murga worth a kill here.

मुनीश ( munish ) said...

अशोक भाई पसन्द अपनी-अपनी ,ख़याल अपना - अपना ! मुझे तो ब्लॉग का यही अंदाज़ जमता है ! अपने अनुभव बांटना बस यही ! बाकी कोई कुछ कहता रहे ,असल बात यही है '' बिनु करनी थोथी सब बातें ,जैसे बिनु चन्दा की रातें '' . जिसने कभी सैरे-जंगल के मज़े न लिए हों , ओल्ड मंक का आचमन न किया हो और चीड़, बांज और कोनिफ़र से महमहाती रात में चांदनी को चक्खा न हो उसका मानव जीवन व्यर्थ नहीं तो शोचनीय तो है ही . अलख निरंजन ,सिद्धी गड्डी ते पुट्ठा इंजन !

अजित वडनेरकर said...

मुनीश भाई की बात सच्ची है। पहाडों पर आवारगी। कलेजे को ठंडक पहुंचाने वाली पोस्ट पर जी को ललचानेवाली, तरसानेवाली भी।
कमबख्त नौकरी...छुट्टियां नहीं हैं....

Anil Pusadkar said...

सुरज कहर बरपा रहा है वर्ना ज़रूर निकल पड़ता जंगल की ओर और हमारी पार्टी मे भी एक से एक शिकारी हैं,और वो सब भी मुंह से ही गोलिया चलाते हैं।मज़ा आ गया।बुह्त सी पिकनिक याद आ गई।बहुत सी बारात याद आ गई और बहुतो बार कुछ महारथियों का लगी मे फ़ूट-फ़ट कर रोना याद आ गया।बधाई इस बिंदास पोस्ट के लिये। हम भी मुर्गे की तरह असुविधाजनक पोजिशन के बावजूद आपके लिखे का मज़ा लेते रहे।

Ek ziddi dhun said...

mast

ravindra vyas said...

मजेदार।

आशीष said...

pande ji....you took me on a nostalgic trip. Having spent so many mind blowing/boggling/numbing evenings in delhi together....I think you should write a few episodes on the 'katra sharabi rafikon ka' days of andrews ganj.

very well written. keep the old monk spirit going.

Unknown said...

आजकल क्या उर्जा। फड़कता हर पुर्जा।

Sudarshan Angirash said...

इस पोस्ट को मित्र मंडली और दारू के साथ दो बार पढ़ा जा चूका हैं. यकीन मानिए जब भी पढ़ा हँसते हँसते पेट मैं दर्द हो गया.
आलिशान पोस्ट हैं अशोक दा...