आवाज दे कहाँ है ?
अभी कुछ ही दिन पहले म. गा. अं हि. वि. की पत्रिका 'पुस्तक वार्ता' का नया अंक आया है. किताबों की दुनिया से रू-ब-रू कराने वाली इस पत्रिका को पढ़ने के बाद से मन बेकल है. पचास करोड़ लोगो द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी भाषा के संसार में किताबों की दखल का अंदाजा क्या इसी बात से किया जाय कि दिनों - दिन पुस्तकों के संस्करण क्षीणतर होते जा रहे हैं और हम मुगालता पाले हुए हैं कि 'दुनिया रोज बनती है'. अगर इस पचास करोड़ीय संख्या का एक प्रतिशत भी किताबें पढ़ने वाल जीवधारी है तो यह कितना होता है ? हिसाब लगा लें और अपने अगल - बगल झाँककर आवाज दें - ( हिन्दी की ) किताबों तुम कहाँ हो ?
पहले पाँच हजार , फिर तीन हजार , फिर ग्यारह सौ, फिर पाँच सौ, फिर तीन सौ और अब सुना है कि सौ पर मामला आ गया है. साल बीतते - बीतते महत्वपूर्ण किताबों की सूची बनने - बिगड़ने लगती है, लोकार्पण - विमोचन समारोहों में भी किताबों की खूब धाँय-धूम होती है, पुस्तक मेलों के दौरान जमावड़ा भी कम नहीं होता है. इधर कुछेक समय से पत्रिकायें भी खूब निकल रही हैं - पुस्तक समीक्षाओं से लबालब भरी हुई फिर भी बावरा मन है कि कहे जा रहा है - ( हिन्दी की ) किताबों तुम कहाँ हो ?
पाढ़ाई - लिखाई के संस्थानों में कुंजियों , रिफ्रेशरों , 'एक अध्ययन' नुमा ग्रंथों और गाइडों की बहार है और साहित्य की दुनिया में हल्ला - गुल्ला , हाहाकार है. लगभग हर लिक्खाड़ या तो सेलेब्रिटी है या बनने की जुगत में जी - जान से जुता हुआ दिक्खे है. बड़े - बड़े सेमिनारों संगोष्ठियों छुटभैये बड़भैयों को किताबें सादर भेंट करने की परम्परा को अक्षुण्ण रखे हुए हैं , दुकानों पर किताबें ग्राहकों की बाट जोहती हुई ध्यानस्थ हैं. पुस्तकालयों की खरीद के तंत्र का हाल बेहाल है. खरीद -फरोख्त की दुनिया में किताब और कुछ नहीं बस माल है. इधर अपना बुरा हाल है.
कुछ किताबें हैं जो अब भी धड़ाधड़ छप रही हैं और बिक रही हैं. आपने कभी सोचा है कि उनके सदाबहार होने / बने रहने का रहस्य आखिर क्या है ! वह कहाँ छिपा है - काम में, नाम में या फिर दाम में ? अब दाम का क्या कहें ! क्या ग़ज़ब है साहब एक गत्ता भर लगा देने से दुगना दाम ! इस करिश्माई करामात को नमस्ते - सलाम !
बहुत कुछ है जो मन में घुमड़ रहा है, बादल बनकर बरसने को तैयार है किन्तु - परंतु -लेकिन डर लग रहा है कि अगर सबकुछ लिख दिया गया तो एक किताब बन जायेगी , और अगर ऐसा हो गया तो उसे छापेगा कौन ? कितनी प्रतियों का संस्करण होगा ? पेपरबैक और हार्डबाउण्ड प्रतियों का दाम क्या होगा ? पुस्तकालयों में ठेलने की प्रविधि क्या -कैसी होगी ? पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीब कैसी होगी ? ठीक है -ठीक है - पाठक भी कोई चीज है उस पर भी कभी बात कर लेंगे . अभी तो ....
हिन्दी अपनी प्यारी हिन्दी और उसका साहित्यिक संसार..... अहा ! हहा ! आह ! वाह !
अजी सुनती हो !
हिन्दी की किताबों तुम कहाँ हो ?
आवाज दे कहाँ है ? दुनिया मेरी जवाँ है !
19 comments:
सौ कापी!
उफ़्फ़!
मगर किताब शप गी! किद गी हिन्दी? भारतमाता दी गड्डीच!
सरम आ रई मालिक!
दुखी हो गया हूं यह पढ़कर। कड़वी सच्चाई जानते हुए भी इस पर कभी चर्चा नहीं करता। इसके बावजूद भाई लोग पीछे पड़े रहते हैं कि शब्दों का सफर की किताब लाओ !! सौ कॉपी के लिए इतनी ज़िद?
शुक्र है...पुस्तक के लिए लेखकों-साहित्यकारों वाला दारिद्र्य और दीनता अभी हमें नहीं व्यापी है। शब्दों का सफर की रोज़ अब एक करीब एक हजार लोगों तक पहुंच हो रही है:)
क्या कहें, राजकमल प्रकाशन की काली जिल्द वाली पेपरबैक्स को ही सहलाते रहते हैं, जो किताबें पढ़ने लायक हैं, ठीक से लिखी गई हैं, सही दाम पर बिक रही हैं, जिनकी नीयत सच में लोगों तक पहुँचने की है, वे पहुँच जाती है, लेकिन हरामी प्रकाशकों, चापलूस-चूतिए लेखकों, स्वार्थी आलोचकों, कुंठित पाठकों की इस दुनिया में दीमकों की ज़रूरत नहीं है. कोई तरीक़ा हो तो सुझाएँ, हम कई पांडुलिपियों पर बैठे हैं लेकिन उन अंडों से कोई चूज़े नहीं निकलने वाले.
प्रकाशन का गणित ऐसा है कि प्रकाशक लेखक से लिये गये धन के मूल्य के बराबर पुस्तकें उसे दे देते हैं.लेखक उन्हे मित्रो को भेंट और समीक्षार्थ प्रति के रूप में पत्रिकाओं को भेज देता है.प्रकाशक पुस्तकों को थोक मे 40 या 50 प्रतिशत कमीशन पर संस्थानों को सौंप देता है जहाँ वे धूल खाती पडी रहती हैं.हार्ड बाउंड पुस्तकों पर लाभ अधिक है इसलिये छापीं जाती हैं आम आदमी इन्हे खरीद नहीं पाता.
इस पोस्ट को पढ़ कर हिन्दी वासी, हिन्दी भाषी, हिन्दी पाठक, हिन्दी लेखक, होने के कारण मैं शर्मसार हूँ। इस तथ्य की रोशनी हिन्दी की बदहाली में मैं अपनी भूमिका की पड़ताल करूँगा। मेरे पुरखे मेरे लिए गिनी-चुनी किताबें और पर्याप्त जायदाद छोड़ गए। मैं आप सब को हाजिर-नाजिर रखकर शपथ लेता हँू कि मैं एक रूपया जायदाद छोड़ुं न छोड़ुं अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए पर्याप्त हिंदी किताबें जरूर छोड़ जाऊँगा।
आप सब को बताना चाहुँगा कि मेरे सेंटर ( सेंटर फाॅर कंपैरेटिव रिलीजन) में इतिहास, समाजशास्त्र इत्यादि विषयों की हिन्दी में उपलब्ध महत्वपूर्ण किताबें उपलब्ध हैं। ग्रंथशिल्पी के करवाए ज्यादातर अनुवाद उपलब्ध हैं। इस सेंटर की कोई फैकल्टी हिन्दी मीडियम से नहीं पढ़ी लिखी है इसके बावजूद हमारे फैकल्टी ने ये किताबें खरीदीं। हिन्दी विभागों की तरह उन्होंने कमीशन नहीं खाया इसलिए कम पैसे में ज्यादा किताबें आ गईं। कनाडा के मांट्रियल विश्वद्यिालय में बर्क प्रोफेसर आॅफ रीलिजन प्रो. अरविन्द शर्मा मुझसे विभिन्न इंग्लिश शब्दों की हिन्दी पूछते रहते हैं। कहते हैं सर्वाधिक उचित जो शब्द होगा वही उन्हें चाहिए। मैंने उन्हें कामिल बुल्क की डिक्शनरी के बारे में बताया तो उसे मँगाने के लिए अत्यधिक आग्रह करने लगे। आईइएस पिता के पुत्र प्रो. शर्मा ने भी छह साल तक आईइएस रहने के बाद इस्तिफा दिया था। जैन धर्म के नामी विद्वान जान ई कार्ट हमारे सेंटर में आकर कहा मुझे हिन्दी आती है आप मुझसे हिन्दी में बात कर सकते हैं। इंग्लिश लिटरेचर में कैंब्रिज से पीएचडी प्रोफेसर मुझसे पूछते रहते हैं कि, और हिन्दी में क्या चल रहा है ? हमारे सेंटर की आक्सफोर्ड से पीएचडी प्रोफेसर उन लड़कों से बहुत खुश हैं जो हिन्दी में थीसिस लिखेंगे। हमारे सेंटर काम काज में अंग्रेजी का बोलबाला है क्योंकि आधुनिक भाषाओं में रीलिजन पर सबसे अधिक काम इसी भाषा में हुआ है। अंग्रेजी में ही विश्व क्लासिक के सर्वाधिक अनुवाद उनलब्ध हैं। हमारे डायरेक्टर जो कि इस्लाम के विद्वान हैं वो नामवर सिंह को सूफी पर दिया जाने वाला लेक्चर सुनने के लिए यह कह कर गए कि सुना है कि हिन्दी के बड़े विद्वान हैं, ऐसे लोग को सुनना चाहिए। हमारे करीबी जानने वाले केंन्द्रिय मौसम विभाग के रिटायर्ड डिप्टी डायरेक्टर रीलिजन/फिलासॅफी पर हिन्दी में ही किताबें लाने का आग्रह करते हैं। हालाँकि सांइस का छात्र होने के कारण और मौसम विज्ञान जैसे विषय में पारंगत होने के कारण उन्होंने अपने जीवन के पीछले करीब चालीस वर्षा से हिन्दी की किताबों से दूर ही रहे। अपने विषय में विशेषज्ञता पाने के क्रम हिन्दी साहित्य से जु़़ड़े नहीं रह सके इस बात को उन्हें अफसोस रहता हैं।
इन घअनाओं का उल्लेख सिर्फ और सिर्फ इस लिए किया जा रहा है कि ऐसी तमाम अन्य घटनाएं हैं जिनसे मुझमें हिन्दी के सम्मान और स्वीकार्यता की संभावनाओं पर विश्वास बढ़ता है। हिन्दी विभाग और हिन्दी प्रकाशक मिलकर हिन्दी को बलत्कृत करते रहें हैं। लेकिन हिन्दी को दूसरे दिशाओं से उम्मिद की किरण आती दिख रही है, मदद का हाथ बढ़ता दिख रहा है।
हिन्दी के भविष्य के लिए शुभकामनाओं सहित
नोट-यहाँ उल्लिखित सभी व्यक्ति वास्तविक और जीवित है।
भूल-सुधार
प्रों. अरविंद शर्मा और उनके पिता आई ए एस थे न कि आई इ एस।
वाकई वर्तमान में हिंदी पुस्तक प्रकाशन की दशा शोचनीय है....लेकिन रंगनाथ सिंह जी की बातों से उम्मीद की किरण नज़र आ रही है....एक चिंगारी है जो राख में कहीं दबी हुई है....बस ज़रुरत है तो इसे बाहर लाने की....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
क्या ग़ज़ब है साहब एक गत्ता भर लगा देने से दुगना दाम ! इस करिश्माई करामात को नमस्ते - सलाम !
Even i have often felt bewildered at the price difference. A valid observation. Whether anyone believes or not , the post-reservation era is largely responsible for diminishing interest in modern Hindi literature.This literature did not choose to be on the side of truth and faces extinction.
छपाई के आपके आंकड़ों में मुझे कुछ गड़बड़ लगती है सिद्धेश्वर भाई। अगर हिन्दी की किताबें छप-बिक नहीं रहीं तो प्रकाशक भारी माल कैसे काट रहे हैं। इधर, प्रकाशकों की संख्या में भी खासा इजाफा हुआ है। अपने अशोक भाई द्वारा अनूदित वान गॉग की जीवनी का हिन्दी अनुवाद मेरी जानकारी के मुताबिक कम से कम तीन बार छप चुका है। यही हाल `इजाडोरा की प्रेमकथा´ का है। अनुपम मिश्र की किताब `आज भी खरे हैं तालाब´ ने छपाई के कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अभी हाल में अमृत लाल वेगड़ के यात्रा वृतांत `सौंदर्य की नदी नर्मदा´ का पेपरबैक पेंग्विन से पुनर्मुद्रित हुआ है। यह सूची काफी लंबी है.....।
मेरे खयाल से हम हिन्दी प्रेमियों को प्रकाशकों के कुचक्रों पर छाती पीटने के बजाय इस बात पर चिंतन मनन करना चाहिए कि पढ़ने-लिखने के संस्कार को उन करोड़ों हिन्दीभाषियों तक कैसे पहुंचाएं, जिनके सूचना संसार में अभी पत्र-पत्रिकाओं, किताबों या पुस्तकालयों ने दस्तक नहीं दी है। हम इस बात को लेकर हैरान-परेशान हैं कि गायपट्टी के खाते-पीते लोग हिन्दी को हिकारत से देखते हैं लेकिन हमें यहां साधारण लोगों की वह असाधारण आबादी नहीं दिखाई पड़ती, जो पढ़ने-लिखने के संस्कार से अछूती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी प्रदेश में समाज को उद्वेलित करने वाला कोई बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन अब तक नहीं चला। और यह भी कि समाज को संस्कारित करने वाले आंदोलन सत्ताधारी तबके नहीं चलाते।
क्या हिन्दी को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हिन्दी से अपनी रोजी-रोटी कमाने वाले हम पत्रकारों, अध्यापकों और इसके हिमायतियों ने नहीं उठानी चाहिए? क्या अपने आसपास हम हिन्दी पढ़ने-लिखने के वातावरण को निर्मित करने का कोई ईमानदार प्रयास करते हैं? बच्चों को उनके जन्मदिन पर हिन्दी की अच्छी पुस्तकें भेंट करते हैं? अपने पास बिठाकर उन्हें बताते हैं कि तुम्हारी मातृभाषा में भी नोबेल लायक साहित्य लिखा जा चुका है? और सबसे ऊपर खुद अपने घर में हम टीवी बंद कर पढ़ने या पुस्तकों की चर्चा का प्रयास करते है?
अंत में एक और बात, सिर्फ कविताएं ही साहित्य नहीं हैं। कविताएं हिन्दी ही क्या दुनिया की हर भाषा में कम पढ़ी जाती हैं। शास्त्रीय संगीत हो या साहित्य उनके मुरीद हमेशा बहुत थोड़े लोग होंगे। हर उस चीज की लोकप्रियता हमेशा कम होती है, जिसे समझने के लिए अतिरिक्त ज्ञान या कौशल की दरकार हो। इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि हमें दूसरी विधाओं की तमाम कृतियां हिन्दी में लानी चाहिए। हिन्दी वाले इस मामले में बेहद दरिद्र हैं। यह बात हिन्दी के ब्लॉगों से भी सही सिद्ध होती है। वरना क्या वजह है कि हिन्दी साहित्य को समर्पित ज्यादातर ब्लॉग कविताओं से तर रहते हैं। बाकी जगह हल्की-फुल्की गपबाजी या गाली-गुफ्तार घेर लेती है। हिन्दी को समृद्ध करने की चिंता कहीं नहीं है। इसलिए प्रभो, रोना-धोना छोड़िए और जितना समय-साधन हो, क्षमताभर योगदान देकर अपनी मातृभाषा को समृद्ध कीजिये। हिन्दी का उद्धार हिन्दी के ही बेटे-बेटियों के हाथों होना है।
मेरे मन की बात कह दी आपने...आज अगर आप अपने शहर में हिंदी की कोई किताब खरीदना चाहें तो उसे पाने के लिए लाख पापड़ बेलने पर भी शायद ही आप उसे पा सकें...बड़े बड़े माल्स में आपको अंग्रेजी की किताबें तो मिल जाएँगी लेकिन हिंदी की...एक भी नहीं मिलेगी...ये हाल तो तथाकथिक बड़े शहरों का है छोटे शहरों गाँव कस्बों में क्या होगा सोचा जा सकता है...कारण ये दिया जाता है की साहेब कोई हिंदी की किताब खरीदता ही नहीं है किसके लिए मंगा के रक्खें...
जयपुर जैसे उत्तर भारत के बड़े शहर में मुझे अपनी पसंद की या लेखक की कोई किताब हिंदी में नहीं मिलती एक दूकान वाला कहता है आप किताब का नाम बता दो दिल्ली से मंगवा देंगे..
क्या हाल हो गया है...बहुत दुःख होता है ये सब देख सुन कर...
नीरज
सचमुच ही हिंदी की किताबों के लिए कठिन समय है....मगर मैं खुशकिस्मत हूँ...यहाँ दिल्ली में एक नियम जो आते ही बन गया था वो था दिल्ली की पुस्तक मेला में जाना और ढेर सारी किताबें खरीदना...नियम इतना पक्का रहा की आज मेरी अपनी लिब्रेरी में कम से कम चार सौ पुस्तकें तो हैं ही..नागार्जुन..धर्मवीर भारती..प्रेमचंद. फणीश्वर नाथ रेनू..हरिवंश राइ..और भी सारे ...कुछ तो मित्रों ने माँगा पढने के लिए..फिर वापस नहीं किया..अब नहीं देता उन्हें...
मैं आपके विचारों से सहमत नहीं हूं। आपको भूलना नहीं चाहिए कि हालांकि हिंदी 50 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाती है, लेकिन उनमें से केवल 50 फीसदी ही साक्षर हैं और भारत में साक्षर होने का मतलब है अपना नाम लिख-पढ़ पाना। ऐसे साक्षर किताब पढ़ने से तो रहे। दूसरी बात, हिंदी प्रदेश भारत के निर्धनतम क्षेत्रों में गिना जाता है, और लोगों के पास तन ढंकने के लिए कपड़े तक नहीं हैं, दो जून की रोटी जुटाना तक कठिन है। ऐसे लोगों से किताबें खरीदकर पढ़ने की आशा करना क्रूरता होगी।
होना यह चाहिए कि हर गांव में हर मुहल्ले में पुस्तकालय लगाए जाएं, जो पुस्तकें मंगाएं, और लोगों को पढ़ने का मौका दें। एक बार लोगों में पढ़ने की आदत लग जाए, वे किताबें खरीदकर भी पढ़ेंगे।
इसलिए पहले पुस्तकालय आंदलन छेड़ने की जरूरत है। हर गली-मुहल्ले-गांव में अच्छा पुस्तकालय होना चाहिए जिसमें 500-1000 अच्छी किताबें रहनी चाहिए। तब देखिए पुस्तक-प्रकाशन उद्योग किस तरह चमक उठता है।
यह आंदोलन कौन शुरू कर सकता है, इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
दूसरी बात, हिंदी पुस्तक प्रकाशन का वर्तमान-भविष्य उतना अंधकारमय भी नहीं है। राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, मंजुल प्रकाशन आदि बहुत अच्छी कमाई कर रहे हैं। मंजुल प्रकाशन ने अनेक अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी रूपांतर प्रकाशित किया है, जिनमें हैरी पोटर सिरीज भी शामिल है। हिंदी पोटर किताबें भारत में अंग्रंजी पोटर पुस्तकों से भी ज्यादा बिकी हैं।
हिंदी पुस्तक प्रकाशन में मुनाफे की संभावना देखकर विदेशी प्रकाशक भी अब हिंदी पुस्तकें छापने लगे हैं। इनमें शामिल हैं आक्सफोर्ड, पेंग्विन, लोंगमैन, आदि-आदि।
हां यह जरूर है कि हिंदी की पुस्तकें अन्य भारतीय भाषाओं की पुस्तकों की तुलना में कुछ महंगी है। मैं तमिल, मलयालम, हिंदी और गुजराती की पुस्तकें नियमित रूप से खरीदकर पढ़ता हूं। इनमें मलयालम की पुस्तकें सबसे सस्ती होती हैं।
मलयालम में लेखकों के संघ बने हुए हैं, जो थोड़ी पूंजी लगाकर स्वयं पुस्तकें प्रकाशित करते हैं और वितरित करते हैं, इसलिए उनकी किताबें बहुत ही सस्ती होती हैं। मलयालम को यह लाभ भी प्राप्त है कि उसके बोलनेवाले एक छोटे से क्षेत्र में मौजूद हैं, जिससे मार्केटिंग आसान हो जाता है। हिंदी तो विश्व भाषा है और भारत में ही आठ-दस राज्यों में फैली है। इसलिए प्रकाशकों को खूब धन खर्च करना पड़ता है।
ब्लोगर की हैसियत से हम अपने ब्लोगों में पुस्तकों की चर्चा अधिकाधिक कर सकते हैं ताकि हमारे पाठकों में पुस्तकें पढ़ने की रुचि बढ़े।
अब कितने ब्लोग ऐसे हैं जिनमें पुस्तक चर्चा नयमित रूप से होती है? अब आप ही बताइए इसमें हमारी भी तो कोताही है।
चलिए आज ही संकल्प लें कि अब से हम हर हफ्ते अपने ब्लोग में कम से कम एक पुस्तक की चर्चा करेंगे।
अभी भी देश में हिन्दी पढ़ने वालों की प्राथमिकता पुस्तकें नहीं हो पाई हैं। यह दुखःद है। लेकिन आस कायम है।
आई थी ये सोच कर कि मन की भड़ास निकालूँगी अच्ची तरह...मगर सब ने पहले से सब कुछ कह दिया है, अतः मुझे बस अपनी पोस्ट से सहमत माने और धन्यवाद लें इस मुद्दे को उठाने का
शुक्रिया दोस्तो !
यह संवाद अच्छ लगा !
Bhut acchi pahal
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