कुछ दिन पहले जावेद अख़्तर के एक भाषण को कबाड़ख़ाने पर लगाया गया था. उस पोस्ट पर काफ़ी अर्थवान बहस हुई थी. प्रीतीश बारहठ सुनिये-समझिये नामक एक ब्लॉग का संचालन करते हैं. उन्होंने इस पोस्ट पर चल रही बहस को एक अलग आयाम दिया था.
कल उन्होंने इस पोस्ट का बहुत गहरा विवेचन करते हुए एक लम्बा मेल भेजा. मेल तनिक लम्बी है और ज़रा ध्यान से पढ़े जाने की दरकार रखती है. मेल को जस का तस आप लोगों के वास्ते यहां लगा रहा हूं.
पर्याप्त समय हो तभी शुरू करें...
नीचे जो आलेख आप पढ़ने जा रहे हैं उसकी एक विचित्र भूमिका है। जावेद साहब का यह व्याख्यान कबाड़खाना ब्लाग पर पढ़ा तो यूं ही कुछ मित्रों के साथ विचारो का आदान-प्रदान हो गया। बात कुछ बढ़ गई। मेरा अनुभव रहा है कि जहाँ तार्किक बहस हो रही हो वहाँ यदि वक्ता का भाषा पर ठीक-ठाक अधिकार है, वह तार्किक बहस की तकनीक से परिचित है तो अंत में बोलनेवाला हमेशा ही महफिल को लूट लेता है। मैंने इस लेख पर जो भी टिप्पणियाँ पढ़ी इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा में पढ़ी। मैंने देखा नास्तिकों के भी अपने ईश्वर हैं जिनके खिलाफ वे एक शब्द भी नहीं सुन सकते। वे अपनी नास्तिकता के प्रति गहरे आस्तिक हैं, कट्टर हैं, नास्तिक गुरुओं के भी पर्याप्त शिष्य हैं जो गुरु को ही तारणहार मानते हैं, और अटूट श्रद्धा रखते हैं। मुझ पर समय-समय पर यह भी खुलता रहा है कि जो लोग दूसरों को अंधविश्वासी, दिल-दिमाग गिरवी रखने वाले, चीजों को खास चश्मे से देखने का आरोप लगाते रहते हैं और अपने आप को बुद्धिपरक कहते हैं, उनकी स्वयं की आँखों पर भी बहुत सारे चश्मे पड़े हुए हैं। तार्किकों की महफिलों में पर्याप्त रूप से अंध-अविश्वासी माहौल है। विचारधारा को लेकर अंत में जो भी निर्णय होता है वह तर्क से नहीं इसी विश्वास या अविश्वास से ही होता है। (हम अपने विचारों के प्रति तार्किक नहीं वस्तुतः भावुक हो जाते हैं, मेरे गाँव में जागीरदार के यहाँ शादी-ब्याह के अवसर पर मण्डली नोटंकी करने आती थी, शाम सात-आठ बजे हम बालक मण्डली के आसपास इकट्ठा हो जाते, मण्डली वाले तैयार हो रहे होते, दो धुर विरोधी पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता एक-दूसरे को उसका संवाद याद कराते हुए मिलते, रात को नाटक में वे आपस में लड़ रहे होते थे। जागीरदार के घर गाँव के मनोरंजन के लिए खेला जाने वाला यह नाटक अधिकांशतः जागीरदार के खिलाफ होता था, जैसे राजकुमारी को किसी आम आदमी से प्यार हो जाता अंत में प्यार की जीत हो जाती थी। जागीरदार देखता भी और इनाम भी देता, जबकि गाँव के छोरों को उसकी लडकी के दर्शन करना भी उपलब्ध नहीं होता था। गाँव का मनोरंजन होता, स्थिति जस की तस रहती। जागीरदार अपने खिलाफ होने वाले नोटंकी का खुद प्रबन्ध करता है और पूरी अकड़ में रहता है। एक प्रभाव जरूर होता है इन नाटकों का, जनता सपनों में चली जाती है, सपने में जागीरदार को जीत लेती है, जमीनी असंतोष स्थगित हो जाता है।
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आध्यात्मिकता अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है
हमारे समय के बड़े कवि-कहानीकार श्री कुमार अम्बुज ने मेल से यह ज़बरदस्त और ज़रूरी दस्तावेज़ भेजा है. बहुत सारे सवाल खड़े करता जावेद अख़्तर का यह सम्भाषण इत्मीनान से पढ़े जाने की दरकार रखता है. इस के लिए श्री कुमार अम्बुज और डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का बहुत बहुत आभार.
(जावेद अख्तर के इण्डिया टुडे कॉनक्लेव में दिनांक 26 फरवरी, 2005 को ‘स्पिरिचुअलिटी, हेलो ऑर होक्स’ सत्र में दिए गए व्याख्यान का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)
मुझे पूरा विश्वास है देवियों और सज्जनों कि इस भव्य सभा में किसी को भी मेरी स्थिति से ईर्ष्या नहीं हो रही होगी. श्री श्री रविशंकर जैसे जादुई और दुर्जेय व्यक्तित्व के बाद बोलने के लिए खड़ा होना ठीक ऐसा ही है जैसे तेंदुलकर के चमचमाती सेंचुरी बना लेने के बाद किसी को खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े. लेकिन किन्हीं कमज़ोर क्षणों में मैंने वादा कर लिया था. कुछ बातें मैं शुरू में ही साफ कर देना चाहता हूं. आप कृपया मेरे नाम –जावेद अख्तर- से प्रभावित न हों. मैं कोई रहस्य उजागर नहीं कर रहा. मैं तो वह बात कह रहा हूं जो मैं अनेक बार कह चुका हूं, लिखकर, टी वी पर या सार्वजनिक रूप से बोलकर, कि मैं नास्तिक हूं. मेरी कोई धार्मिक आस्थाएंनहीं हैं. निश्चय ही मैं किसी खास किस्म की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करता. खास किस्म की!एक और बात! मैं यहां बैठे इस भद्र पुरुष की आलोचना करने, इनका विश्लेषण करने, या इन पर प्रहार करने खड़ा नहीं हुआ हूं. हमारे रिश्ते बहुत प्रीतिकर और शालीन हैं. मैंने हमेशा इन्हें अत्यधिक शिष्ट पाया है.
जब हम किसी व्यक्ति को इस प्रकार के विशेषणों से अलंकृत करते हैं तो हमें अपनी बात को, विचार को गहराई से समझाने के लिये इस गहराई में भी उतरना चाहिये कि उक्त व्यक्ति ने ऐसे संस्कार, ऐसे गुण कहाँ से प्राप्त किये हैं, उसकी प्रेरणायें क्या हैं। कहीं यह उसका छल तो नहीं है। यदि श्री रविशंकर शालीन और शिष्ट हैं तो क्या उन्हें यह गुण उनकी आध्यात्मिकता प्रदान कर रही है या यह उनका कपट व्यवहार है। अगर वक्ता इस गहराई के साथ अपने विचारों को स्पष्ट करता है तो उसका सम्प्रेषण बेहतर होगा। जावेद साहब शायद किन्हीं खास मर्यादाओं के कारण ऐसा नहीं कर रहे हैं, व्यावहारिक रूप से यही बेहतर है, लेकिन बात को आगे बढाने से पहले हमें अपने दिमाग में इस बात को भी रखना चाहिये। हमें इस बात पर कोई ऐतराज नहीं होना चाहिये कि कोई व्यक्ति नास्तिक है, या उसकी किसी खास प्रकार की धार्मिक आस्थायें नहीं हैं, खास किस्म की, बशर्तें ऐसा व्यक्ति अपनी मानवता को बचाये रखे, परस्पर सम्मान में विश्वास रखे, सामाज में, देश में, विश्व में, पर्यावरण में आस्था रखने वाला हो अपनी जिम्मेदारियों का पालन करने वाला हो। लेकिन मुझे इस सदेच्छा पर सहज ही भरोसा नहीं होता, ठीक इसी प्रकार जैसे कोई राजा भी हो साथ ही विनम्र भी हो। इसके विपरीत यदि व्यक्ति आस्तिक है लेकिन उसमें उक्त गुण नहीं है तो उसकी आस्तिकता भी व्यर्थ है, समाज में उसकी स्वीकार्यता नहीं होगी, उसकी आस्तिकता पर संदेह किया जाना उचित होगा। आस्तिकता-नास्तिकता एक विवेक सम्पन्न व्यक्ति का नितांत निजी मामला है। जहाँ तक किसी खास किस्म की धार्मिक आस्था का प्रश्न है, हमें सवाल की गहराई में जाना चाहिये। यदि यह वर्तमान समय में धर्म के नाम पर हो रही मारकाट, धर्मों की आपसी लड़ाई या साम्प्रदायिक कट्टरवाद के खिलाफ एक सुरुचि सम्पन्न, शांतिप्रिय और मानवतावादी व्यक्ति की अरुचि है, मोहभंग है, तो वरेण्य है, प्रशंसनीय है। खास किस्म की धार्मिक आस्था नहीं होना, धर्म को सम्प्रदायातीत मानवतावादी स्वरूप में ग्रहण करने से किसी को आपत्ति हो भी क्या सकती है। लेकिन यहाँ विचारणीय विषय संस्थागत धर्म नहीं है, यहाँ विचारणीय विषय है आध्यात्मिकता!
मैं तो एक विचार, एक मनोवृत्ति, एक मानसिकता की बात करना चाहता हूं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं.मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब राजीव ने इस सत्र की शुरुआत की, एक क्षण के लिए मुझे लगा कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूं. इसलिए कि अगर हम कृष्ण, गौतम और कबीर, या विवेकानन्द के दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है. मैं इसी वक़्त बैठ जाता हूं. मैं यहां उस गौरवशाली अतीत पर बहस करने नहीं आया हूं जिस पर मेरे खयाल से हर हिन्दुस्तानी को, और उचित ही, गर्व है. मैं तो यहां एक सन्देहास्पद वर्तमान पर चर्चा करने आयाहूं.इण्डिया टुडे ने मुझे बुलाया है और मैं यहां आज की आध्यात्मिकता पर बात करने आया हूं. कृपया इस आध्यात्मिकता शब्द से भ्रमित न हों. एक ही नाम के दो ऐसे इंसान हो सकते हैं जो एक दूसरे से एकदम अलग हों. तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की. रामानंद सागर ने टेलीविज़न धारावाहिक बनाया. रामायण दोनों में है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुलसीदास और रामानंद सागर को एक करके देख लेना कोई बहुत अक्लमन्दी का काम होगा. मुझे याद आता है कि जब तुलसी ने रामचरितमानस रची, उन्हें एक तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. भला कोई अवधी जैसी भाषा में ऐसी पवित्र पुस्तक कैसे लिख सकता है? कभी-कभी मैं सोचता हूं कि किसम-किसम के कट्टरपंथियों में, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के क्यों न हों, कितनी समानता होती है! 1798 में, आपके इसी शहर में, शाह अब्दुल क़ादिर नाम के एक भले मानुस ने पहली बार क़ुरान का तर्ज़ुमा उर्दू में किया. उस वक़्त के सारे उलेमाओं ने उनके खिलाफ एक फतवा ज़ारी कर डाला कि उन्होंने एक म्लेच्छ भाषा में इस पवित्र पुस्तक का अनुवाद करने की हिमाक़त कैसे की! तुलसी ने रामचरितमानस लिखी तो उनका बहिष्कार किया गया. मुझे उनकी एक चौपाई याद आती है :”धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ जौलाहा कहौ कोऊ.काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारन सोऊ..तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ.मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकू न दैबो को दोऊ..”रामानंद सागर ने अपने धारावाहिक से करोड़ों की कमाई की. मैं उन्हें कम करके नहीं आंक रहा लेकिन निश्चय ही वे तुलसी से बहुत नीचे ठहरते हैं.
विचारधारा या यूँ कहिये दर्शन पर जब बात करनी होती है तो व्यक्तियों पर बात करनी ही नहीं चाहिये। व्यक्ति के अपने गुण-दोष होते हैं, उन्हीं के आधारपर दर्शन को परिभाषित करना पर्याप्त नहीं है। हाँ उद्धरण दिये जा सकते हैं, लेकिन विचार व्यापक दृष्टिकोण से करना होगा। यहाँ केवल आज की आध्यात्मिकता बात करते हुए अपने विचार का प्रतिपादन करने वाले जावेद साहब आगे चलकर उस आध्यात्मिकता को भी एक ही शब्द में खारिज कर रहें हैं जिस पर यहाँ वे गर्व करने को उचित बता रहे हैं।
दूसरा यह भी पडताल करने की जरूरत है कि कट्टरपंथी अपनी कारगुजारियों की प्रेरणा क्या वास्तव में आस्तिकता या आध्यामिक्तता से ही लेते हैं या वे ऐसे कार्य अपने अंधविश्वास, आध्यात्मिकता को सही तरह से नहीं समझने, स्वार्थ, संगठनात्मक हित या अज्ञान के कारण करते हैं। इस पर पर्याप्त रूप से विचार कर लेने के पश्चात ही आध्यात्मिकता के दर्शन पर आरोप जड़े जा सकते हैं। जैसा कि जावेद साहब खुद ही कह रहे हैं कि एक ही नाम के दो व्यक्तियों की कारगुजारियाँ पूर्णतः परस्पर विरोधी हो सकती हैं इसको उनके नाम में तलाशना तो ठीक नहीं है, चाहे उन्होंने कपडे भी एक ही तरह के पहने हों। भिन्न-भिन्न धर्म-सम्प्रदायों के कट्टरपंथियों की समानता का कारण उनकी प्रेरणा शक्तियों का एक होना ही तो नहीं है, क्या ये आध्यात्मिकता से प्रेरणा प्राप्त करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये नास्तिकता से प्रेरणा प्राप्त करते हों, आखिर चोरी तो पुलिस की वर्दी पहनकर भी की जा सकती है! मैं इसे आगे और स्पष्ट करने का प्रयास करूंगा। बहस की शुरुआत में मैं केवल इतना तय करना चाहता हूँ कि आध्यात्मिकता या आस्तिकता पर विचार रखने, आलोचना करने के लिये केवल उस चरित्र को ही माध्यम बनाया जा सकता है जो वास्तव में इस विचारधारा का सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व करता है, इसी प्रकार नास्तिकता के उचित प्रतिनिधि चरित्र का चुनाव भी आवश्यक है अन्यथा नास्तिकता को समझने में भी भूल हो सकती है। अक्सर होता यह कि आलोचना के लिये हम हमारे विचार और हमारी सुविधा के अनुसार समाज से उन चरित्रों का चुनाव कर लेते हैं जो हमें रुचते हों। दूसरा आज तक मैं यह भी देखता आया हूँ कि कितना ही बडा तार्किक हो वह किसी आध्यात्मिक को यह छूट नहीं देता कि वह अपनी आध्यात्मिकता को खुद परिभाषित करे, बल्की नास्तिक ही अपनी सुविधा के अनुसार आध्यात्मिकता को परिभाषित करता है, ताकि अपने आरोपों को पुष्ट कर सके। यह तो बहस का उचित तरीका नहीं है, बल्की अपनी पीठ खुद थपथपाना है। आइये आगे चलें....
मैं एक और उदाहरण देता हूं. शायद यह ज़्यादा स्पष्ट और उपयुक्त हो. सत्य की खोज में गौतम महलों से निकले और जंगलों में गए. लेकिन आज हम देखते हैं कि वर्तमान युग के गुरु जंगल से निकलते हैं और महलों में जाकर स्थापित हो जाते हैं. ये विपरीत दिशा में जा रहे हैं. इसलिए हम लोग एक ही प्रवाह में इनकी बात नहीं कर सकते. इसलिए, हमें उन नामों की आड़ नहीं लेनी चाहिए जो हर भारतीय के लिए प्रिय और आदरणीय हैं.
बिल्कुल ठीक बात है, लेकिन यह आध्यात्मिकता की दृष्टि से ही सत्य है, नास्तिकता की दृष्टि से तो बिल्कुल पोंगा-पंथी वाली बात है। गौतम नें महल छोड़ा तो क्यूँ! उन्हें महल में रहते हुये ही यह समझ आया कि यह जीवन तो नश्वर है, यह महल, यह राज, यह वैभव सभी मिथ्या हैं, मृत्यु अटल सत्य है। इसका साक्षात्कार उनको एक ही दिन की नगर की यात्रा में हो गया। वे इस भौतिक जगत के मोह में महल से नहीं निकले वे मोहभंग से महल से निकले थे, वैराग्य में। इस ज्ञान के बाद भी यदि वे केवल करुणा से औतप्रोत होते तो राजा रहते हुए गरीबों की बेहतर सेवा कर सकते थे। उनके पास वे संसाधन होते, वे राजनीतिक जागरुकता पैदा करते। लेकिन वे महल से निकल गये, कष्ट उठाने के लिये। इस से तो यही सिद्ध हुआ कि भौतिकता के मोह में पड़ा हुआ मनुष्य समाज के काम का नहीं है। उसे अपने स्वरूप का ज्ञान वस्तुजगत में नहीं हो सकता। लेकिन इस घटना पर यदि जावेद साहब के नजरिये से विचार करें तो सोचिये कि ऐसी कौनसी रासायनिक क्रिया जो महल और विचार को मिलने नहीं देती। आखिर महल और विचार में क्या बैर है, मनुष्य महल में रहते हुए ज्ञानी क्यूँ नहीं हो सकता? दूसरी तरफ नितान्त अवैज्ञानिक और अतार्किक बात है कि बिना पढ़े-लिखे ही, समाज के सम्पर्क से अछूते, जीवन अनुभव से हीन व्यक्ति को किसी पेड़ के नीचे आँखें मूंदे बैठे-बैठे, अचानक ज्ञान प्राप्त हो जाता है। आखिर इस में क्या वैज्ञानिकता है, क्या तार्किता है। बात यह कि महल का विचार से क्या वैज्ञानिक बैर है? जब चार लाइन के गीत से करोड़ों रुपये कमाना वाला गीतकार दमादम तिजोरी भरते हुए भी अच्छे गीत लिख सकता है, यहाँ लक्ष्मी और सरस्वती का बैर नहीं है तो दर्शन में ही क्यूँ है? जबकि तुलसी, कबीर, सूरदास, मार्क्स, प्रेमचंद, गोर्की, निराला अभावों से जूझते हुए मर गये। आइये पुनः जावेद साहब के पास चलते हैं......
जब मुझे यहां आमंत्रित किया गया तो मैंने महसूस किया कि हां, मैं नास्तिक हूं और किसी भी हालत में बुद्धिपरक रहने की कोशिश करता हूं. शायद इसीलिए मुझे बुलाया गया है. लेकिन, उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क़ भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं – “दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए.” वे ऐसा नहीं करते.
यहाँ मैं कुछ कहूँगा तो व्यक्तिगत आक्षेप जैसा हो जायेगा, किसी फिल्मकार के दी- एण्ड कहने मात्र से फिल्म का दी एण्ड नहीं हो जाता है, वह समाज को तरह-तरह से प्रभावित करती है, अच्छे भी और बुरे भी। आधुनिक गुरु से निराशा वाजिब है, समय का यही सत्य है। लेकिन न तो यह समय अन्तिम है और न ही यह सत्य अन्तिम है। मैं पुनः कहता हूँ कि यहाँ सिर्फ आधुनिक शब्द पर ध्यान आकर्षित कर रहे जावेद साहब आगे चलकर बडी चतुराई से इस आधुनिक शब्द को हटा लेंगें। (एक जादूगर की तरह, जो अपने मंच, अपने साधनों की सुविधा से दर्शकों का ध्यान बंटाता है और चमत्कार दिखाता है, वह दर्शक का ध्यान चमकती चीजों पर केन्द्रित करता है और ध्यान बंटाकर जादू उत्पन्न करता है, जावेद साहब के पास यहाँ चमकदार शब्द हैं, अपनी बनाई हुई भूमिका है, अपनी परिभाषायें हैं) समीक्ष्य विषय आधुनिक गुरु नहीं आध्यात्म है, वह क्या सपना दिखाता है, उस सपने को अपने विचार में रखिये। आप ध्यान से पढ़ते चलिये...
इसलिए, देवियों और सज्जनों मैं एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यहां उस आध्यात्मिकता के बारे में बात करने आया हूं जो दुनिया के सुपरमार्केट में बिकाऊ है. हथियार, ड्रग्स और आध्यात्मिकता ये ही तो हैं दुनिया के तीन सबसे बड़े धन्धे. लेकिन हथियार और ड्रग्स के मामले में तो आपको कुछ करना पड़ता है, कुछ देना पड़ता है. इसलिए वह अलग है. यहां तो आप कुछ देते भी नहीं.इस सुपर मार्केट में आपको मिलता है इंस्टैण्ट निर्वाण, मोक्ष बाय मेल, आत्मानुभूति का क्रैश कोर्स – चार सरल पाठों में कॉस्मिक कांशियसनेस. इस सुपर मार्केट की चेनें सारी दुनिया में मौज़ूद हैं, जहां बेचैन आभिजात वर्गीय लोग आध्यात्मिक फास्ट फूड खरीद सकते हैं. मैं इसी आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं.प्लेटो ने अपने डायलॉग्ज़ में कई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कही हैं. उनमें से एक यह है कि किसी भी मुद्दे पर बहस शुरू करने से पहले शब्दों के अर्थ निश्चित कर लो. इसलिए, हम भी इस शब्द- ‘आध्यात्मिकता’ का अर्थ निश्चित कर लेने का प्रयत्न करते हैं.
अगर इसका अभिप्राय मानव प्रजाति के प्रति ऐसे प्रेम से है जो सभी धर्मों, जतियों, पंथों, नस्लों के पार जाता है, तोमुझे कोई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं उसे मानवता कहता हूं. अगर इसका अभिप्राय पेड़-पौधों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों और पशुओं के प्रति, यानि मानवेत्तर विश्व से प्रेम से है, तो भी मुझे क़तई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं इसे पर्यावरणीय चेतना कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का मतलब विवाह, अभिभावकत्व, ललित कलाओं, न्यायपालिका, अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रति हार्दिक सम्मान का नाम है? मुझे भला क्या असहमति हो सकती है श्रीमान? मैं इसे नागरिक ज़िम्मेदारी कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भीतर उतरकर स्वयं की ज़िन्दगी का अर्थ समझना है? इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैं इसे आत्मान्वेषण या स्व-मूल्यांकन कहता हूं. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ योग है? पतंजलि कीकृपा से, जिन्होंने हमें योग, यम, यतम, आसन, प्राणायाम के मानी समझाए, हम इसे किसी भी नाम से कर सकते हैं. अगर हम प्राणायाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है. मैं इसे हेल्थ केयर कहता हूं. फिजीकल फिटनेस कहता हूं. तो अब मुद्दा सिर्फ अर्थ विज्ञान का है. अगर यही सब आध्यात्मिकता है तो फिर बहस किस बात पर है? जिन तमाम शब्दों का प्रयोग मैंने किया है वे अत्यधिक सम्मानित और पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए शब्द हैं. इनमें कुछ भी अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है.
बिल्कुल, आध्यात्मिकता इन सभी शब्दों को समाहित करती है। जावेद साहब की पीठ थपथपाइए उनकी प्रतिभा के लिये... किसी प्रारम्भिक कक्षा के छात्र से अध्यापक द्वारा यदि गणित का सवाल पूछा जाता है – 7X5=?, जावेद साहब का प्रयास इसीलिये प्रसंशनीय है कि वे पांच बार सात-सात लाइन खैंचकर उन्हें गिनने का प्रयास कर रहे हैं। आध्यात्म की परिभाषा में जो जावेद साहब से छूट गया है वह है समूची सृष्टि से एकात्म भाव (आत्महीन सर्व व्यापक भाव), समर्पण, वैराग्य, आत्म नियन्त्रण, संयम, सांसारिक अनासक्ति, नैसर्गिक कमजोरियों ( क्रोध, स्वार्थ, आदि) पर विजय, निष्काम कर्म, आत्मशोधन, स्वयं की प्रति दृष्टा भाव, आदि, आदि, आदि... खैर जावेद साहब की सुनये...
तो फिर इस शब्द- आध्यात्मिकता- पर इतनी ज़िद क्यों? आखिर आध्यात्मिकता शब्द में ऐसा क्या है जो इन शब्दों में नहीं सिमट आया है? वो ऐसा आखिर है क्या?पलटकर कोई मुझी से पूछ सकता है कि आपको इस शब्द से क्या परेशानी है? क्यों मैं इस शब्द को बदलने, त्यागने, छोड़ देने, बासी मान लेने का आग्रह कर रहा हूं. आखिर क्यों? मैं आपको बताता हूं कि मेरी आपत्ति किस बात पर है. अगर आध्यात्मिकता का अर्थ इन सबसे है तो फिर बहस की कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ और है जो मुझे परेशान करता है. शब्द कोष में आध्यात्मिकता शब्द, -स्पिरिचुअलिटी- की जड़ें आत्मा, स्पिरिट में हैं. उस काल में जबइंसान को यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है या चपटी, तब उसने यह मान लिया था कि हमारा अस्तित्व दो चीज़ों के मेल से निर्मित है. शरीर और आत्मा. शरीर अस्थायी है. यह मरणशील है. लेकिन आत्मा, मैं कह सकता हूं, बायोडिग्रेडेबल है. आपके शरीर में लिवर है, हार्ट है, आंतें हैं, दिमाग है. लेकिन क्योंकि दिमाग शरीर का एक हिस्सा है और मन दिमाग के भीतर रहता है, वह घटिया है क्योंकि अंतत: शरीर के साथ दिमाग का भी मरना निश्चित है. लेकिन चिंता न करें, आप फिर भी नहीं मरेंगे, क्योंकि आप तो आत्मा हैं और क्योंकि आत्मा परम चेतस है, वह सदा रहेगी, और आपकी ज़िन्दगी में जो भी समस्याएं आती हैं वे इसलिए आती हैं कि आप अपने मन की बात सुनते हैं. अपने मन की बात सुनना बन्द कर दीजिए.. आत्मा की आवाज़ सुनिए – आत्मा जो कॉस्मिक सत्य को जानने वाली सर्वोच्च चेतना है.
उपर हम बता चुके हैं कि जावेद साहब कि आध्यात्मिता की परिभाषा में क्या- क्या नहीं सिमट आया है. कुछ और जोड़ते हैं सृष्टि का रहस्य, सम, शांति, अनन्त, संतुष्टि, धन्यवाद, ज्ञान, आदि...आदि। मनुष्य अपने प्रारम्भिक काल से ही विज्ञान से अछूता नहीं है न ही अकर्मण्य है, जब उसे पता भी नहीं था कि धरती गोल है या चपटी तब भी उसने खगोलीय गणनाओं का अत्यन्त समृद्ध गणित खोज लिया था, उसकी चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण की गणनाओं के समक्ष आज भी कोई चुनौती नहीं है। फिर भी मैं क्यूं कि फैशन परस्त हूँ, अतः यह मान सकता हूँ कि,आध्यात्मिकता शब्द पुराना हो गया है, बासी है, इसलिये इसे छोड देना चाहिये, बदल लेना चाहिये ( तुम भी कोई अच्छा सा रख लो अपने दीवाने का नाम..)। वैसे आस्तिकों ने भी बदले तो हैं नाम...कृष्ण को कृष्णा, राम का रामा.. (बदला है न कुछ तो..नहीं!..) जावेद साहब का आग्रह शब्द को बदलने का है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं, लेकिन मुझे आपत्ति है अर्थ को नकारने से........ । हाँ गाँधी जी ने स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को भंग करने का सुझाव कांग्रस के दुरुपयोग होने की संभवाना के कारण दिया था यदि जावेद साहब भी आध्यात्म शब्द के हो रहे दुरुपयोग के कारण ऐसा सुझाव देते तो विचारणीय होता। तब यह आध्यात्म पर संदेह नहीं बल्की आध्यात्म के ठेकेदारों पर संदेह होता। ठीक है आत्मापर संदेह है! कोई खास बात नहीं है आप फिलहाल इसे मस्तिस्क ही मानें और बात को बढ़ायें...
ठीक है. कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी: “अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं”. और भी गुरु हैं जिन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं होता है कि आप जूते बाहर नहीं छोड़ते. लेकिन दिमाग?.....नहीं.अब, अगर आप अपना दिमाग ही बाहर छोड़ देते हैं तो फिर क्या होगा? आपको ज़रूरत होगी ऐसे गुरु की जो आपको चेतना के अगले मुकाम तक ले जाए. वह मुकाम जो आत्मा में कहीं अवस्थित है. वह सर्वोच्च चेतना तक पहुंच चुका है. उसे परम सत्य ज्ञात है. लेकिन क्या वह आपको बता सकता है? जी नहीं. वह आपको नहीं बता सकता. तो, अपना सत्य आप खुद ढूंढ सकेंगे?. जी नहीं. उसके लिए आपको गुरु की सहायता की ज़रूरत होगी. आपको तो उसकी ज़रूरत होगी लेकिन वह आपको इस बात की गारण्टी नहीं दे सकता कि आपको परम सत्य मिल ही जाएगा...
क्या आप मुझे इजाजत देंगे कि मैं इसे कुतर्क कह सकूं? जूते बाहर छोड़ने पर जावेद साहब को ऐतराज नहीं है, नहीं छोडने पर गुरु को नहीं है, तो बात दिमाग की ही करते हैं। वह दिमाग जिसका नहीं होना मृत्यु है, शरीर शिथिल हो जाता है निस्पंद हो जाता है, क्या वही दिमाग बाहर छोडने का बोर्ड लगा होता गुरु के द्वार पर? इतना तय है कि गुरु किसी मृत व्यक्ति को शिष्य बनने का आमन्त्रण नहीं देता है, अर्थात वह दिमाग वाले को अपने आश्रम में प्रवेश देता है। फिर यह बोर्ड क्या कह रहा है? कौनसा दिमाग छोड़ना है? दिमाग अर्थात पूर्वाग्रह। अच्छा मैं जाता हूँ अपने अध्यापक के साथ भूगोल की प्रयोगशाला में अध्यापक मुझे बता रहा है कि धरती गोल है वह ग्लोब को घुमा रहा है, लेकिन चूँकि वहाँ कोई तख्ती नहीं थी ऐसे निषेध की, अतः मैं अपने दिमाग के साथ ही वर्तमान हूँ प्रयोगशाला में। पण्डित जी ने, दादाजी ने बता रखा है कि धरती तो गाय के सींग पर टिकी है, एक और है साथी उसे बता रखा है कि शेषनाग के फन पर टिकी है धरती। प्रयोगशाला में धरती घूम रही है, छोटी-सी गैंद के आकार में, अध्यापक अपनी तर्जनी से घुमा रहा है धरती को, दिमाग मेरे पास सुरक्षित है, साथी के पास भी, गाय का सींग उभर रहा है, शेषनाग का फन लपलपा रहा है, उंगली हमारे ठेंगे पर, क्या हमारे पास दिमाग नहीं है? अध्यापक घुमा देगा उंगली से धरती को, और यह है इसकी धरती... ओह...ओह.. हो बडे आये कहीं के वैज्ञानिक! (क्या तख्ती इसी दिमाग को बाहर छोडने के लिये है?) तर्क, विज्ञान सब कहते हैं पूर्वाग्रह छोड़ो, हम बिना तख्ती के ही छोड़ते हैं पूर्वाग्रह। पूर्वाग्रह के साथ ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। दूसरी तरह से देखते हैं यदि इस तख्ती के पीछे गुरु का मन्तव्य यह कि जो कुछ वह कहता है उसे ज्यों का त्यों मानलो तो ऐसा संभव नहीं है, प्रश्न करने की, शास्त्रार्थ करने की इजाजत सभी गुरु देते हैं, चाहे ये प्रश्न-उत्तर कितने ही कूढ़मगज हों। जहाँ प्रश्न-उत्तर की इजाजत हैं वहाँ मेघा का विकास नहीं होगा ऐसा तो नहीं माना जा सकता है। ऐसा शिष्य यदि किसी बौद्धिक के पास आयेगा तो उसका कार्य भी पहले उसकी मेघा का विकास करना ही होगा। आध्यात्म के क्षेत्र में गुरु अनिवार्य है ऐसा तो कभी सुनने में नहीं आया। ठीक है कोई बात नहीं कि एक कोचिंग इंस्टीटूट है मेरे कस्बे में, प्रशासनिक पदों की तैयारी कराता है, बड़ी भारी भरकम फीस है, मैं भी वहाँ गया। न ही तो वह प्रशासनिक अधिकारी है न ही वह मुझे गारण्टी देता है कि मुझे आईएएस बना देगा फिर फी कहता है कि मुझे उसके कोचिंग इंसटीटूट की जरूरत है। परीक्षा खुद ही देनी है, इन्टरव्यू खुद ही देना है फिर भी साथी कहते हैं कि कोचिंग इन्सटीटूट जरूरी है। इतना ही बहुत है...
और यह परम सत्य है क्या? कॉस्मिक सत्य क्या है? जिसका सम्बन्ध कॉस्मॉस यानि ब्रह्माण्ड से है? मुझे तो अब तक यह समझ में नहीं आया है. जैसे ही हम अपने सौर मण्डल से बाहर निकलते हैं, पहला नक्षत्र जो हमारे सामने आता है वह है अल्फा सेंचुरी, और वह हमसे केवल चार प्रकाश वर्ष दूर है. उससे मेरा क्या रिश्ता बनता है? क्यों बनता है?तो, राजा ने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं जो सिर्फ बुद्धिमानों को ही दिखाई देते हैं. और राजा लगातार बड़ा होता जा रहा है. और ऐसे बुद्धिमानों की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है जिन्हें राजा के ये कपड़े दिखाई दे रहे हैं और जो उनकी तारीफ करते हैं.
मित्रों जब मैंने ये पक्तियाँ पढ़ी तो मेरी रोमावलियाँ खड़ी हो गई थीं। मुझे उम्मीद हो गई थी कि बस अब अगली ही पंक्ति में कॉस्मिक सत्य से पर्दा उठा देंगे जावेद साहब, इस रहस्य को जानने के लिये सदियों से मानव की कठिन दौड़-धूप का अंत होने वाला है। लेकिन बड़ी घटिया बात हुई, जावेद साहब ने कहा इससे मेरा क्या सम्बन्ध, क्या रिश्ता? तो इस शतर्मुर्गी सोच से विचार करेंगे हम आध्यात्मिकता पर! मेरा एक मित्र कहता है भूटान की गरीबी से भारत क्या सम्बन्ध? लेकिन वह कभी यह कभी नहीं कहता कि भूटान है तो उसका कोई सत्य नहीं है। मैं भी सोचता हूँ कि मेरी औसत आयु तो 100 वर्ष है, अधिक से अधिक मैं 150 वर्ष जीउंगा फिर पानी क्यों बचाऊँ, ओजोन परत के क्षरण से मेरे जीवन काल में तो कोई आफत नहीं आने वाली। 500 वर्ष के बाद के समय से मेरा क्या संबंध? इस सोच का और संकुचन करूं! चौराहे पर बैठा भिखारी मेरा कौन होता है? कैसे होता है? शायद जावेद साहब पूरी मानव जाति के संबंध की बात कर रहे हों, तो अब हम आध्यात्म पर अल्फा सेंचुरी से इधर-इधर बात करते हैं। जावेद साहब को ब्रह्माण्ड के सत्य से आपत्ति नहीं है उनका कहना है उससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, वैसे भी कोई तार्किक यह कैसे कह सकता है कि किसी चीज का अस्तित्व है तो उसका कोई सत्य नहीं हो सकता! अब बात रही हमारे सम्बन्ध की तो मानव जब हमारे सौरमण्डल के भीतर-भीतर की समस्त प्रकृत्ति पर अपनी सेवा के लिये विजय प्राप्त कर लेगा और सारा पानी पी जायेगा तो हो सकता है कि वैज्ञानिक अल्फा सैंचुरी के उधर कहीं पानी खोज लें और उसे इस सौरमण्डल में ले आयें मानव की सेवा के लिए। इस तरह हमारा अल्फा सैंचुरी से सम्बन्ध विकसित हो जाये। क्यूँकि वैज्ञानिक भी यह तो कह रहे हैं कि वे इस सृष्टि में न तो एक भी कण और जोड़ सकते हैं न घटा सकते हैं वे सिर्फ इस प्रकृति व्याख्या कर सकते हैं , वस्तुओँ के गुण-धर्म बदल सकते हैं प्राकृतिक सम्बन्ध स्थापित करके। न जोड़ सकते हैं न घटा सकते हैं। क्या सौर मण्डल के बाहर से धरती पर खतरा नहीं आ सकता है। लगा न आपको कुतर्क! इस तर्क के उपर ठीक ऐसा ही कुतर्क है। लेकिन यह तो हुई वैज्ञानिक अपेक्षा इसमें आध्यात्म क्या? आध्यात्म सिर्फ इस वैज्ञानिक अपेक्षा का सत्य, रहस्य!
और बढ़ें......
मैं सोचता था कि आध्यात्मिकता दरअसल धार्मिक लोगों की दूसरी रक्षा पंक्ति है. जब वे पारम्परिक धर्म से लज्जित अनुभव करने लगते हैं, जब यह बहुत चालू लगने लगता है तो वे कॉस्मॉस या परम चेतना के छद्म की ओट ले लेते हैं. लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है. इसलिए कि पारम्परिक धर्म और आध्यात्मिकता के अनुयायीगण अलग-अलग हैं. आप ज़रा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिह्नित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे मार्क्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है.आप देखेंगे कि इनके अनुयायी खासे खाते-पीते लोग है, समृद्ध वर्ग से हैं. ठीक है. गुरु को भी सत्ता मिलती है, ऊंचा कद और पद मिलता है, सम्पत्ति मिलती है..(जिसका अधिक महत्व नहीं है), शक्ति मिलती है और मिलती है अकूत सम्पदा. और भक्तों को क्या मिलता है?
चलिये हम भी नहीं इस बहस में नहीं पडें कि हमारे मार्क्सवादी मित्र क्या कहते हैं? हमने पहले भी कहा कि हमें विचारधारा के प्रतिनिधि चरित्रों को केन्द्र में रखना चाहिये। जो व्यक्ति लोगों को छल रहा है, ईश्वर(यदि वह मानता है) की आँखों में धूल झौंकने का भ्रम पाले हुए है वह आध्यात्मिक नहीं है, उसके माध्यम से आध्यात्म पर आरोप स्वीकार नहीं हैं।
जब मैंने ध्यान से इन्हें देखा तो पाया कि इन भक्तों की भी अनेक श्रेणियां हैं. ये सभी एक किस्म के नहीं हैं. अनेक तरह के अनुयायी, अनेक तरह के भक्त. एक वह जो अमीर है, सफल है, ज़िन्दगी में खासा कामयाब है, पैसा कमा रहा है, सम्पदा बटोर रहा है. अब, क्योंकि उसके पास सब कुछ है, वह अपने पापों का शमन भी चाहता है. तो गुरु उससे कहता है कि “तुम जो भी कर रहे हो, वह निष्काम कर्म है. तुम तो बस एक भूमिका अदा कर रहे हो, यह सब माया है, तुम जो यह पैसा कमा रहे हो और सम्पत्ति अर्जित कर रहे हो, तुम इसमें भावनात्मक रूप से थोड़े ही संलग्नहो. तुम तो बस एक भूमिका निबाह रहे हो.. तुम मेरे पास आओ, क्योंकि तुम्हें शाश्वत सत्य की तलाश है. कोई बात नहीं कि तुम्हारे हाथ मैले हैं, तुम्हारा मन और आत्मा तो शुद्ध है”. और इस आदमी को अपने बारे में सब कुछ अच्छा लगने लगता है. सात दिन तक वह दुनिया का शोषण करता है और सातवें दिन के अंत में जब वह गुरु के चरणों में जाकर बैठता है तो महसूस करता है कि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं.
यहाँ जरा रुक जाइयेगा।
पहला वर्गः जावेद साहब के गुरु ने उन्हे निष्काम कर्म की सही परिभाषा नहीं बताई है, श्रीमद्भगवद् गीता भारत में सर्वत्र उपलब्ध है। निष्काम कर्म जो केवल कर्त्तव्य से प्रेरित फल की आशा बगैर किया जाने वाला कर्म है, उसके माध्यम से सम्पदा कैसे बटोरी जा सकती है? जादूगर वाला प्रसंग यहाँ स्मरण करें अपने शब्द, अपने अर्थ, अपनी भूमिका, अपनी व्याख्या - दर्शकों-श्रोताओं को एक खास ऐंगल से दिखाना-सुनाना। बिना भावात्मक रूप से जुड़े हुए अनुचित पैसा कमाया जा सकता है? शोषण किया जा सकता है? कौन गुरु है जो निष्काम कर्म की यह व्याख्या करता है?
अगर वह है तो कोई टोने-टोटके वाला होगा। भारत में जन्मे किसी भी बालक से पूछ लीजिये, जिसका कोई आध्यात्मिक गुरु नहीं है, उसके माता-पिता ने उसे यही बताया है कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, वह तुम्हारी प्रत्येक गतिविधि को देख रहा है, उसका लेखा-जोखा रख रहा है। उसे दोखा देना संभव नहीं है। और प्रत्येक गलत कार्य की सजा अवश्य है। निष्काम कर्म का जावेद साहब वाला अर्थ किसी को नहीं समझाया जा सकता है। अब इसे भी दूसरे ऐंगल से देखिये। क्या आपका कोई परिचित भ्रष्टाचारी है, शोषक है! तो कृपया उससे पूछिये कि वह भ्रष्टाचार क्यूँ करता है? उसका जबाब यह कभी नहीं होगा कि वह निष्काम कर्म कर रहा है, उसके गुरु ने उसे ऐसा करने को कह रखा है या वह भगवान के नाम पर ऐसा कर रहा है। वह आपको अपने भ्रष्टाचार के पक्ष में तर्क देगा। वह कहेगा कि सभी भ्रष्ट हैं इसलिये वह भी भ्रष्ट है, वह औरों जितना भ्रष्ट नहीं है, वह कहेगा मैं किसी की आत्मा दुःखाकर नहीं लेता, मैं माँग कर नहीं लेता कोई अपने आप देता है तो लेता हूँ। वह कहेगा मैं अपने कर्मचारियों को वाजिब से ज्यादा तनख्हा देता हूँ। इसके बिना काम नहीं चलता। उपर भी देना पड़ता है। बच्चे पालने हैं। अर्थात वह आध्यात्म को लेकर किसी भ्रम में नहीं है, वह अपनी निकृष्टता से पूरी तरह परिचित है लेकिन भौतिकता के समक्ष हथियार डाले हुए है। उसे इस तरह का कोई भ्रम हो ही नहीं सकता कि उसके कार्य से उसका ईश्वर खुश है या उसे माफ कर देगा। वह अपने बचाव में तर्क देता है तो क्या मैं इस आरोप को तार्किकता के माथे मढ़ दूँ? फिर भी वह जाता है गुरु के पास अपने पापों के शमन के लिये(जावेद साहब के अनुसार) इस अहसास के साथ कि बहुत बडी उधारी है उसके उपर वह नहीं चुका सकता पूरी लेकिन यदि थोड़ी हल्की होने की उम्मीद में। यदि गुरु उसे पाप छोड़ने के लिए प्रेरित नहीं करता और उसके पापों का शमन इस तरह कर रहा कि कमाये जाओ और मुझे लाकर देते रहो तो वो कैसा गुरु है। क्या उसे आध्यात्मिक गुरु माने? जो आरोप उस गुरु पर हैं उन आरोपों को आध्यात्म पर माने!
लोगों का एक और वर्ग है. ये लोग भी धनी वर्ग से हैं. लेकिन ये पहले वर्ग की तरह कामयाब लोग नहीं हैं. आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि “कौन कहताहै कि तुम नाकामयाब हो? तुम्हारे पास और भी तो बहुत कुछ है. तुम्हारे पास ज़िन्दगी का एक मक़सद है, तुम्हारे पास ऐसी संवेदना है जो तुम्हारे भाई के पास नहीं है. क्या हुआ जो वह खुद को कामयाब समझता है? वह कामयाब थोड़े ही है. तुम्हें पता है, यह दुनिया बड़ी क्रूर है. दुनिया बड़ी ईमानदारी से तुम्हें कहती है कि तुम्हें दस में से तीन नम्बर मिले हैं. दूसरे को तो सात मिले हैं. ठीक है. वे तुम्हारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे.” तो इस तरह इसे करुणा मिलती है, सांत्वना मिलती है. यह एक दूसरी तरह का खेल है.
दूसरा वर्गः क्या कहूँ! करुणा और सांत्वना अपराध है, गलत बात है? इस केस में गुरु से क्या अपेक्षा की जानी चाहिये? क्या गुरु इस भक्त से यह कहे कि जैसे तुम्हारा भाई दोनों हाथों ले लूट रहा है तुम भी लूटो पीछे मत रहो। प्रतिभा से आगे नहीं निकल पा रहे हो तो अपराध करो। अपने भाई की सुपारी दे दो। उस पर झूठा मुकदमा दायर करदो, किसी भी तरह पीछे मत रहो वरना मै चलता हूँ तुम्हारे साथ दोनों मिलकर निकालते हैं कोई तरकीब! या हम यह अपेक्षा करना चाह रहे हैं कि गुरु इसे व्यापार करने की शिक्षा दे? यदि गुरु कहता है कि जो मिल रहा है उसे प्रभु का प्रसाद समझो, उसमे संतुष्ट रहो, पैसे के लिये अंधी प्रतियोगिता में मत फंसो। जो है वह बहुत अधिक है इसे अच्छे कार्यों में खर्च करो। उन्हे देखो जिन्हे तुम्हारा जितना भी नहीं मिल रहा है और संतुष्ट हैं। तुम्हारा भाई पैसे को ही सबकुछ समझ रहा है निश्चित ही वह मनुष्यता में तुमसे नीचे रहेगा। पैसा आँखो पर पट्टी बांध देता है। तो गुरु गलत रहा है? हाँ गलत, इससे देश का सकल घरेलू उत्पाद कम रह जायेगा ऐसी शिक्षा अर्थ व्यवस्था के लिये घातक है। प्रकृति द्वारा मनुष्य की सेवा जितनी हो सकती है उतनी नहीं हो सकेगी। मनुष्य असंतुष्ट नहीं रहेगा तो सुखी कैसे होगा!
खैर आगे.....
एक और वर्ग. मैं इस वर्ग के बारे में किसी अवमानना या श्रेष्ठता के भाव के साथ बात नहीं कर रहा. और न मेरे मन में इस वर्ग के प्रति कोई कटुताहै, बल्कि अत्यधिक सहानुभूति है क्योंकि यह वर्ग आधुनिक युग के गुरु और आज की आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा अनुयायी है. यह है असंतुष्ट अमीर बीबियों का वर्ग.एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक उदासीन पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? कुछ बच्चे! वह डूबा है अपने काम धन्धे में, या दूसरी औरतों में. इस औरत को तलाश है एक कन्धे की. इसे पता है कि यह एक अस्तित्ववादी असफलता है. आगे भी कोई उम्मीद नहीं है. उसकी ज़िन्दगी एक विराट शून्य है; एकदम खाली, सुविधाभरी लेकिन उद्देश्यहीन. दुखद किंतु सत्य!
तीसरा वर्गः मैं इस वर्ग के प्रति उक्त धारणा से जो निष्कर्ष निकाल पाया हूँ वह जावेद साहब के बारे में नहीं कह सकता, इसलिये जावेद साहब को इससे अलग रखें। कई बार हम किसी खास समुदाय में रहते हुए जो बात निरन्तर सुनते रहते हैं उसी बात को अन्य स्थान पर बिना पर्याप्त विचार किये अभ्यासवश ही दोहरा देते हैं। इस वर्ग के भक्तों के प्रति उक्त टिप्पणी में आप साफ देख सकते हैं कैसी करुणा, कैसा अपनत्व जाग उठा है। वस्तुतः कामुक लोगों की हसीन कल्पना है, दिवास्वप्न है कि अमीर बीबीयाँ असंतुष्ट हैं, उन्हे कन्धे की जरूरत है और इसके लिये उनका कंधा प्रस्तुत है, लेकिन यह भोली औरतें जा रही हैं गुरु के पास। जावेद साहब का व्यक्तित्व बड़ा है, और बड़े आदमी के नीचे उतरने की भी सीमा होती है इसलिये वे मान लेते हैं कि अमीर आदमी भी अपनी बीबी को बच्चे दे सकता है। वरना हमारे इतिहासकार, कहानीकार, उपन्यासकार तो अब तक यही कहते आये हैं कि अमीर, राजा, जागीरदार, सामन्त आदि तो नपुसंक होते हैं, उनके घरों में जो संतान उत्पन्न होती है वह किसी, मंत्री, दास, नौकर, ड्राइवर या बंजारे की होती है।(मुझे आज तक यह समझ में नहीं आता कि सब चिंताओं से मुक्त, शारीरिक रूप से सबल, सर्व साधन सम्पन्न ये लोग आखिर नंपुसंक होते हैं तो क्यूँ? इनकी पत्नियाँ दूसरों के प्रेम में पड़ी रहती हैं तो वहाँ क्या तलाशती रहती हैं? दूसरी ओर ये ही नपुंसक लोग दूसरी औरतों में खोये रहते हैं हालाँकि दूसरी औरत में खोने का कारण प्रकरण वाइज होता है, फिर भी अमीरों में अय्यासी भाव का पाया जाना तो तार्किक लगता है लेकिन क्या उनको अपनी नपुंसकता का पता ही नहीं चलता! यह भी देखा गया है जो आदमी जितना अधिक लम्पट होगा, घर में वह वफादारी का उतना ही नाटक करेगा, फिर भी अमीर पत्नियां असंतुष्ट ही रह जाती हैं। ओहो हाँ, इतिहास में मीरा का उदाहरण है वह भी आध्यात्मिक गुरुओं के पास जाती थी लेकिन उसका पति तो उसपर जान छिड़कता था) इस वर्ग के बारे में सोचते हुए स्वप्न में खो जाया जाता है, कंधे में खुजली होने लगती है लेकिन ये भोली औरतें जा रही हैं गुरु के पास, यहाँ हमारे नथुनों तक सैंट की खुशबू बिखराकर। मैं कई बार इन अमीर औरतों की असंतुष्टि को मापने की कोशिश करता हूँ, देखता हूँ एक गरीब की औरत उसकी अत्यन्त तुच्छ सम्पदा से जितनी असंतुष्ट है तो एक अमीर की पत्नी कितनी असंतुष्ट होगी! समूचे सौर मण्डल जितनी। इन औरतों के पास सुख-सुविधायें सारी हैं, इतनी की फुर्सत ही नहीं है, पार्टियाँ हैं, भरे-पूरे घर परिवार, मित्र, रिश्तेदार, बच्चे सब हैं। इन्हीं के बीच वे पांच घण्टे ब्यूटी पार्लर में बिताने को भी हैं। मनोरंजन के सारे साधन है, ये चाहे जैसी हॉबी के लिये समर्पित हो सकती हैं, ये गरीबों की सेवा कर सकती हैं, थकान से चूर पति जब घर आये तो इनका सबल कंधा उनके लिये तैयार है। ये साहित्य पढ सकती हैं, आयोजन कर सकती है, लिख सकती हैं। लेकिन असंतुष्ट हैं! कारण सिर्फ इतना कि पति समय नहीं देता है। एक और वर्ग है असंतुष्ट(इनके अनुसार) पत्नियों का जो गरीब घरों में पैदा हुईं, एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक गरीब और उबाउ पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? पांच-छह बच्चे! वह डूबा है परदेश में अपने काम धन्धे में, रिक्सा चला रहा है, दो-दो तीन-तीन महिने में लौटता है घर-गाँव। शहर में कभी-कभार वह जाता है गंदी औरतों के पास, धन और स्वास्थ्य लुटाता। यह औरत है जो ज़िंदगी को दे रही है धक्के मैले, कुचैले बीमार कुपोषित बच्चों को पालती। जा रही है तांत्रिकों-औझाओं के पास, कई बार अपनी कमाई, अपनी इज्जत गिरवी रखती हुई। पति की सतत् प्रतिक्षा में करती है पूर्णिमा, ग्यारस के व्रत। दोपहर दो बजे तक भूखी-प्यासी खेतों में काम करती नहा-धोकर मंदिरों में जल चढ़ाती, नियम की पक्की, ब्राह्मणों को भोजन कराती। अपने शरीर को हाड-हाड करती वह भागवत कथायें सुनने जाती है दूसरे गाँवों तक। लेकिन इस वर्ग की किसी नास्तिक को , बौद्धिक को याद नहीं आती है क्यूँकि ये पत्नियां मैली-कुचैली हैं, इनसे दुर्गंध आती है, इनमें इन समाज सुधारकों की कोई रुचि नहीं हैं।
और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुज़र जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकीसम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है: “आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?” किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि “यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है”. तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि “मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है”.
आप मुझे क्षमा करें लेकिन मेरा आरोप वही है ‘जादूगर वाला’। ऐसी परिस्थितियों में किसी गुरु के पास जाकर ही पता लगाया जा सकता है कि वह क्या कहता है। निश्चित रूप से वह नहीं जो जावेद साहब बता रहे हैं। ऐसी स्थिति में हर रिश्तेदार, मित्र, मिलने वाला और गुरु एक ही तरह से सांत्वना देता है। मुझे कोई नहीं मिला जो अपने परिजन की मृत्यु के पीछे-पीछे स्वर्ग की ओर निकल पड़ने को व्याकुल हुआ हो। दुःख होता है लेकिन उसके पीछे सारी समझावन आत्मिक शक्ति को बढ़ाने के लिये ही होती है। हाँ यह कहते हुए तो गुरु मिल जायेगा – क्यूँ व्यर्थ शोक करते हो, उसके लिये दुःखी मत हो वह भला आदमी था निश्चित ही स्वर्ग में गया है। अब तुम कर्म करो ताकि उसकी आत्मा को भी खुशी हो। एक दिन सबको वहीं जाना है कोई आगे –कोई पीछे। क्या निकृष्ट बात है, घातक बात है, इससे किसका बुरा होता है? अब बताइये इस दुःख में नास्तिकता किस प्रकार से सांत्वना देती है?
आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है.ज़िन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है.
हाँ कोई स्वर्ग नहीं है तब? मृत्यु के बाद कोई पीड़ा नहीं है तो वह भी स्वर्ग से कम नहीं।
आपमें से कोई मुझसे पूछ सकता है कि अगर इन्हें कुछ खुशी मिल रही है, कुछ शांति मिल रही है तो आपको क्या परेशानी है? मुझे अपनी पढ़ी एक कहानी याद आती है. किसी संत की कही एक पुरानी कहानी है. एक भूखे कुत्ते को एक सूखी हड्डी मिल जाती है. वह उसी को चबाने की कोशिश करने लगता है और इसी कोशिश में अपनी जीभ काट बैठता है. जीभ से खून आने लगता है. कुत्ते को लगता है कि उसे हड्डी से ही यह प्राप्त हो रहा है. मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं नहीं चाहता कि ये समझदार लोग ऐसा बर्ताव करें, क्योंकि मैं इनका आदर करता हूं. मानसिक शांति या थोड़ा सुकून तो ड्रग्स या मदिरा से भी मिल जाता है लेकिन क्या वह आकांक्ष्य है? क्या आप उसकी हिमायत करेंगे? जवाब होगा, नहीं. ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज़ एक मृग तृष्णा है.
चलिये यहाँ तक विचार कर लेते हैं। कुत्ते वाली कहानी की संत की है! संत शायद आध्यात्मिक ही रहा होगा, तब इस कहानी का संदर्भ क्या होगा! चलिये इतनी सुविधा प्राप्त नहीं करते हैं। कहानी पर आते हैं कहानी कहती है कि कुत्ता अपने ही खून से संतुष्टि प्राप्त कर रहा है, इस भ्रम में कि वह उसे हड्डी से प्राप्त हो रहा है, और इस प्रकार न केवल वह अपनी शारीरिक क्षति कर रहा है बल्कि झूठी खुशी प्राप्त कर रहा है जो अधिक देर नहीं रहेगी। क्या मैंने सही समझा? ठीक है, आध्यात्म एक सूखी हड्डी है, जो दुःख में सुख की भूख को तृप्त करने के लिये व्यक्ति के मुंह में है, व्यक्ति समझ रहा है कि आध्यात्म से उसका दुःख दूर हो रहा है जबकि वास्तव में वह सुख वह अपने –आप से ही प्राप्त कर रहा है। यह दुःख वस्तुतः आत्मसबलीकरण से प्राप्त हो रहा है, जिसका माध्यम या प्रेरक आध्यात्म है। यह आध्यात्म चाहे झूठ है लेकिन आत्मसबलीकरण वास्तविक है, कुत्ते की भूख तृप्त नहीं होगी, थोड़ी देर बाद पुनः सतायेगी, उसे यह भी पता चल जायेगा कि खून हड्डी से नहीं मुंह से ही आ रहा है, वह हड़्डी को फैंक देगा। लेकिन यहाँ एकबार दुःख को सहन करने की शक्ति विकसित हुई तो पुनः खत्म नहीं होगी, भूख का वास्तविक रूप से शमन हो जायेगा। यहाँ जिस मुंह से खून आ रहा है वह शारीरिक क्षति नहीं है, मानसिक पुष्टि है जो स्थाई है, अब बात आती है कि यह अवास्तविक साधन (सूखी हड्डीरूप आध्यात्म) से प्राप्त हुई है, तो उसकी अवास्तिवकता के बावजूद पुनः दुःख उत्पन्न होने पर इसी सूखी हड़्डी से संतोष प्राप्त हो सकेगा, इसकी खोज होगी। क्योंकि यह सूखी हड्डी स्थायी रूप से दुःख को मिटाती है। इस बात को आगे बढाउँ, ड्रग्स और मदिरा से जोड़ूँ, वैसे बात उपर सिमट आयी है, लेकिन ड्रग्स और मदिरा दिमाग को शिथिल कर सुख देते हैं, अंततः शारीरिक क्षति करते हैं , आध्यात्म विवेक उत्पन्न करता है, निश्चित ही ऐसा नहीं जैसा आप चाहते हैं। वह दुःख मनाने की व्यर्थता को सामने रखता है। पत्नी मर गई है, क्या इसमें कोई तार्किक और सत्य सुख ढूँढा जा सकता है? इसका सत्य यही है न कि मरा हुआ व्यक्ति जिंदा नहीं हो सकता है, मृत्यु को स्वीकार कर लेना चाहिये। क्या आध्यात्म इस सत्य से दूर ले जाता है, कोई मृगतृष्णा रचता है? नश्चित ही नहीं, वह सत्य के पास ले जाता है।
मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है. अगर आप यह साइकिल चलाएं, आप गिरेंगे नहीं. लेकिन बड़े हो गए लोग तीन पहियों की साइकिलें नहीं चलाया करते. वे दो पहियों वाली साइकिलें चलाते हैं, चाहे कभी गिर ही क्यों न जाएं. यही तो ज़िन्दगी है.
तर्क में, बहस में किसी प्रकरण पर जब हम कोई उदाहरण देते हैं तो उसे समस्त अंगउपांगों के साथ प्रकरण पर घटित होना चाहिये। मैं आध्यात्म को साइकल का तीसरा पहिया मानूँ या पूरी तीन पहियों की साइकल कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। अब चूँकि आप बडे हो गये हैं अतः साइकल तो चलानी जरूरी है लेकिन वह दो पहियों की होनी चाहिये, तीन की नहीं। ठीक, साइकल की उपयोगिता क्या है? वह यात्रा को सुगम बनाती है, दो पहियों से आशय है आपको बैलंस बनाकर साइकल चलाना आना चाहिए। तो यहाँ आपकी जीवन यात्रा का यह बलैंस आध्यात्म का पहिया बना रहा है। जीवन में आप बार-बार गिरते हैं, पड़ते हैं तो आध्यात्म का पहिया बैलंस बनाने आता है। जब आप खुद बैलंस बनाने लगते हैं तो तीससे पहिये की आवश्यकता नहीं है, विवेक और सत्य का पहिया ही पर्याप्त है। क्या मैंने इसे भी ठीक समझा? लेकिन ठहरिये आपकी साइकल चल कहाँ रही है, धरती पर न। जीवन की साइकल चलाने के लिये आपका बालपन और युवापन क्या है, अनुभव की सघनता न। जीवन यात्रा है, विवेक और सत्य साइकल के पहिये, तो धरती क्या है, कहीं यह साइकल हवा में तो नहीं चलानी है! हाँ अपके सांसारिक जीवन की यात्रा भौतिकता के धरातल पर बिना तीसरे पहिये के संभव है, आप बीमार हैं, संकट में हैं तो आध्यात्म आपको यही दो पहिये वाली साइकल चलाने का सुझाव देगा वह कहेगा वैध को दिखाओ, डाक्टर के पास जाओ, संकट में हो तो भौतिक इंतजामात करो। लेकिन आप दुःख में हैं उन कारणों से जिनपर आपका कोई बस नहीं, जिनका कोई वस्तुगत हल नहीं, आप वायवीय जगत में तैर-उतरा रहे हैं, तब आपको इन हिचकोलों से बचाने के लिये है आध्यात्म की साइकल।
एक और वर्ग है. ठीक उसी तरह का जैसा गोल्फ क्लब जाने वालों का हुआ करता है. वहां जाने वाला हर व्यक्ति गोल्फ का शौकीन नहीं हुआ करता. ठीक उसी तरह हर वह इंसान जो आश्रम में नज़र आता है, आध्यात्मिक नहीं होता. एक ऐसे गुरु के, जिनका आश्रम दिल्ली से मात्र दो घण्टे की दूरी पर है, घनघोर भक्त एक फिल्म निर्माता ने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे भी उनके गुरु के पास जाना चाहिए. वहां मुझे दिल्ली की हर बड़ी हस्ती के दीदार हो जाएंगे. सच तो यह है कि वे गुरु जी निर्माणाधीन दूसरे चन्द्रास्वामी हैं. तो, यह तो नेटवर्किंग के लिए एक मिलन बिन्दु है.
ज्यूं का त्यूँ का स्वीकार है, यह भी आध्यात्म पर आरोप नहीं है, आध्यात्म का दुरुपयोग है।
ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है जो आध्यात्मिक या धार्मिक हैं और फिर भी भले इंसान हैं. इसकी वजह है.
मैं मानता हूँ आध्यात्मिक इंसान तो भला होगा ही यह सुनिश्चित है। मुझे आश्चर्य मिश्रित सुख होता है जब मैं किसी नास्तिक को भला देखता हूँ। ( एक पृथक आलेख)
मैं मानता हूं कि किसी भी भाव या अनुभूति की तरह आपकी भी एकसीमा होती है. आप एक निश्चित दूरी तक ही देख सकते हैं. उससे आगे आप नहीं देख सकते. आप एक खास स्तर तक ही सुन सकते हैं, उससे परे की ध्वनि आपको सुनाई नहीं देगी. आप एक खास मुकाम तक ही शोक मना सकते हैं, दर्द हद से बढ़ता है तो खुद-ब-खुद दवा हो जाता है. एक खास बिन्दु तक आप प्रसन्न हो सकते हैं, उसके बाद वह प्रसन्नता भी प्रभावहीन हो जाती है.
इसमें मैं इतना ही जोडता हूँ कि आपके सोचने की भी एक सीमा होती है, बुद्धि की भी एक सीमा होती है आप एक सीमा तक ही बौद्धिक हो सकते हैं पूर्ण बौद्धिक नहीं, तर्क की भी एक सीमा होती है, उसके आगे आप तार्किक नहीं हो सकते हैं। आप नहीं मानेंगे न, नीचे एक बात है जिसे मैं भी नहीं मानता।
इसी तरह, मैं मानता हूं कि आपके भलेपन की भी एक निश्चित सीमा है. आप एक हद तक ही भलेहो सकते हैं, उससे आगे नहीं. अब कल्पना कीजिए कि हम किसी औसत इंसान में इस भलमनसाहत की मात्रा दस इकाई मानते हैं. अब हर कोई जो मस्जिद में जाकर पांच वक़्त नमाज़ अदा कर रहा है वह इस दस में से पांच इकाई की भलमनसाहत रखता है, जो किसी मदिर में जाता है या गुरु के चरणों में बैठता है वह तीन इकाई भलमनसाहत रखता है. यह सारी भलमनसाहत निहायत गैर उत्पादक किस्म की है. मैं इबादतगाह में नहीं जाता, मैं प्रार्थना नहीं करता. अगर मैं किसी गुरु के पास, किसी मस्जिद या मंदिर या चर्च में नहीं जाता तो मैं अपनेहिस्से की भलमनसाहत का क्या करता हूं? मुझे किसी की मदद करनी होगी, किसी भूखे को खाना खिलाना होगा, किसी को शरण देनी होगी. वे लोग जो अपने हिस्से की भलमनसाहत को पूजा-पाठ में, धर्म या आध्यात्म गुरुओं के मान-सम्मान में खर्च करने के बाद भी अगर कुछ भलमनसाहत बचाए रख पाते हैं, तो मैं उन्हें सलाम करता हूं.
आप बतायें क्या मैं इस बात को तार्किक मानूं, भलमनसाहत की सीमा होती है, उसकी निश्चित इकाईयाँ होती हैं। आप मुझे कहने दीजिये एक व्यक्ति के पागलपन की भी एक सीमा होती है उसके बाद वह बुद्धिजीवी हो जाता है। तब तो कोई चिंता नहीं ये सारे आध्यात्मिक जो अपने अविवेक से या पाप से आध्यात्मिक बने फिरते हैं एक सीमा के बाद सारे के सारे वैज्ञानिक या पुण्यात्मा हो जायेंगे। फिर तो कोई बड़ी चिंता नहीं हैं। आप नहीं मान रहे हैं न, मै जानता हूँ मुझे कुछ और कहना होगा। जैसे मुझमें विनम्रता की १० इकाइयाँ हैं, पूरी की पूरी मैंने शाम चार बजे से पहले ही खर्च करदी (दस मंदिरों में जाकर) क्या आप शाम 5 बजे मुझसे मिलना चाहेंगे? नहीं न। आप मिल सकते हैं मुझसे कभी भी, विनम्रता, भलमनसाहत कभी खत्म नहीं होती हैं। विद्या के कहा गया है जितना अभ्यास किया जाता है उतनी ही बढ़ती जाती है, अभ्यास नहीं करने पर घट जाती है। भलमनसाहत भी, और विनम्रता भी। वाह रे जादूगर तेरी चालाकी की निश्चित इकाईयाँ नहीं है और भलमनसाहत की हैं! धन्य है। इसे पढ़कर कहीं पिता अपने पुत्रों से शाम के समय मिलने से ही कतराने लगें कि यदि दिन में दस बार अध्यापक या बॉस के सामने झुक चुका होगा तो शाम को मिलते ही चाँटा लगायेगा।
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि अगर धार्मिक लोगों के बारे में मेरे विचार इस तरह के हैं तो तो फिर मैं कृष्ण, कबीर या गौतम के प्रति इतना आदर भाव कैसे रखता हूं? आप ज़रूर पूछ सकते हैं. मैं बताता हूं कि क्यों मेरे मन में उनके प्रति आदर है. इन लोगों ने मानव सभ्यता को समृद्ध किया है. इनका जन्म इतिहास के अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ. लेकिनएक बात इन सबमें समान थी. ये अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए. ये दलितों के लिए लड़े. चाहे वह रावण हो, कंस हो, कोई बड़ा धर्म गुरु हो या गांधी के समय में ब्रिटिश साम्राज्य या कबीर के वक़्त में फिरोज़ शाह तुग़लक का धर्मान्ध साम्राज्य हो, ये उसके विरुद्ध खड़े हुए. और जिस बात पर मुझे ताज़्ज़ुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान औरसत्ता की स्वीकृति हो. लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं जिसने गुजरात के पीड़ितों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो.
सही है इसका अर्थ यह है कि ये लोग आध्यात्मिक नहीं है, इनमें से कोई भी ब्रह्माण्डीय सत्य को नहीं जान चुका है, जानना तो दूर आपकी भांति इनको ब्राह्माण्डीय सत्य में यकीन ही नहीं है। इनको केन्द्र में रखकर आध्यात्मिकता को खारिज नहीं किया जा सकता है। यदि घर में बहुत-सा कूड़ा- करकट इकठ्ठा हो गया, गंदगी हो गई है, टूट-फूट हो गई है तो घर की साफ-सफाई और मरम्मत की आवश्यकता है न कि घर को फोड़ डालने की। आप किसी रास्ता यह कह कर मत रोकिये अंदर बैठा तेरा भाई शराब पी रहा है अब इस घर में मत जा। अगर मनुष्य और उसके विकास में यकीन है तो घर की आवश्यकता को खारिज मत करिये श्रीमान्। और जिनका अल्फा सेंचुरी से कोई संबंध नहीं है उन्हें कहिये कोई और अल्फा सेंचुरी से सम्बन्ध बनाना चाहता है तो उसकी टांग न खींचे, बुद्धि की सीमारेखाओं का आविष्कार मत कीजिये प्रभु।
ये सब भी तो आखिर इंसान हैं. मान्यवर, यह काफी नहीं है कि अमीरों को यह सिखाया जाए कि वे सांस कैसे लें. यह तो अमीरों का शगल है. पाखण्डियों की नौटंकी है. यह तो एक दुष्टता पूर्ण छद्म है. और आप जानते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इस छद्म के लिए एक खास शब्द है, और वह शब्द है: होक्स(HOAX). हिन्दी में इसे कहा जा सकता है, झांसे बाजी!.धन्यवाद.
मानाकि अमीरों को सांस लेना सिखाना तो पर्याप्त नहीं है लेकिन सांस लेना सिखाना दुष्टतापूर्ण छद्म है, प्रयोग द्वारा सिद्ध करें। बहुत घिनौना षडयंत्र है यह कि कुछ नास्तिक आस्तिकता चौला ओढ़ लें और कुछ बाहर रहें, केन्द्र में रखें आध्यात्मिकता को और उसकी फुटबाल बनालें। आतंकवादी सेना की वर्दी पहनकर सेना में घुस आये हैं महोदय, यह सुरक्षातंत्र को चौपट करने का गंभीर मामला है। कृपया बंद कीजिये इस प्रहसन को, अपने अभिनेताओं को लौटा लीजिये, दुनिया से उसका वो हसीन, मानवीय और प्रेम का ख्वाब(जो निरा ख्वाब नहीं है) मत छीनिये जो लाखों हकीकतों से अधिक उपयोगी है। अपनी शुद्र वासनापूर्तियों के लिये मनुष्य को वापस जंगल में पहुँचाने का कार्यक्रम स्थगति कर दीजिये महोदय। धन्यवाद
एक परीक्षणः
१. क्या आप इसे पढ़कर तारीफ के लिये उतावले हो रहे हैं, या गाली देना चाह रहे हैं?
यदि हाँ तो आप कट्टर हैं।
२. क्या आप को यह समीक्षा सही लग रही है?
यदि हाँ तो आप आस्तिक हैं, यदि सही भी लग रही है और कुछ कमी लगती है तो आप पाखण्डी हैं।
३.क्या आप संकुचित हो रहे हैं?
यदि हाँ तो आप नास्तिक हैं
४. क्या आप जवाब तैयार कर रहे हैं?
यदि हाँ तो आपका एक नास्तिक ईश्वर अवश्य है।
५. क्या आप कुछ और तर्क अपनी और से जोड़ना चाह रहे हैं?
यदि हाँ तो आप अंधविश्वासी आहत आस्तिक हैं।
६. क्या आपने सोचना शुरु किया है?
यदि हाँ तो आप विवेकशील बौद्धिक हैं।
७. आपको यह समीक्षा मूर्खतापूर्ण लगी?
यदि हाँ तो आप सुखी इंसान हैं मनोरंजन प्रिय।
८. आप इस विषय पर कुछ और पढ़ने के इच्छुक हो रहे हैं?
यदि हाँ तो आप विनोदी हैं।
९. आप समझते हैं कि जावेद साहब की काट नहीं हो पाई है?
यदि हाँ तो आप तर्क फ्रैंडली नहीं हैं?
१०. आप दोबार इस ब्लाग पर नहीं आयेंगे।
यदि हाँ तो आप बिल्कुल सही हैं।
निवेदनः मुझे इस बात का अहसास है कि इस प्रकार की प्रतिक्रिया उचित नहीं है, इसमे गंभीरता नहीं है, लेकिन क्या करें?
-प्रीतीश बारहठ
33 comments:
यह क्या बहस है? क्या फर्क है नास्तिक और आस्तिक में? मुझे तो आज तक यह समझ नहीं आया कि कौन नास्तिक है, और कौन नास्तिक? मुझे तो एक परिभाषा मिली थी कि वेद को प्रमाण न मानने वाला नास्तिक है। आज कौन मानता है? फिर सभी नास्तिक हैं। फिर कोई जानवर या पक्षी तो नास्तिक या आस्तिक हो नहीं सकता। एक इंसान में ही खूबी है कि वह इन में से कोई एक होने का दावा कर सकता है या आरोप लगा सकता है। तो ठीक है इन दोनों में से कोई एक होने के पहले यह तो तय कर लिया जाय कि इंसान भी है या नहीं।
जावेद धांसू हैं लेकिन फ़ांसू नहीं है वर्ना बाबाजी बन चुके होते!
आध्यात्मिकता अमीरों की ट्रांक्विलाईजर नहीं है उनकी आधारभूत जरूरत है सबकी आधारभूत जरूरत है लेकिन इस जरूरत का एहसास बाकी जरूरतें पूरी होने के बाद होता है. जावेद पुत्तर नें Maslow's hierarchy of needs (हां अब सारे विकि खंगाल लेना) का जिक्र नहीं किया कि आध्यात्मिकता की मूल वजह क्या है.. डिजायर फ़ार सेल्फ़-एक्चुअलाईजेशन एक स्वस्थ्य दिमाग की द्योतक है..सदियों से बाबालोग इसी डिजायर को तथाकथित आध्यात्मिकता का रास्ता दिखा कर एक्स्प्लाईट करते हैं ये एक सच है. पूर्वी समाजों में यह ट्रैंड सनातन है. डिजायर की दो ही दिशा संभव हैं .. लौकिक या पारलौकिक, दैहिक या ऐहिक.. आम-तौर पे पारलौकिक का क्रम लौकिक के बाद आता है कुछ अपवाद क्रम को तोडते भी हैं.
आध्यात्म शब्द के मूल में आत्म और स्पिरिचुआलिटी के मूल में स्पिरिट है. रोना ये है की जावेद को आत्मा या स्पिरिट में भरोसा नहीं है, उनके हिसाब से जैसे ईथर (aether) के फ़ंडे को प्रायोगिक रूप से सैंकडो साल पहले ही विज्ञान तज दिया और वो मात्र ग्रीक माईथोलोजी की चीज हो कर रह गया वैसे ही आत्मा भी एक अवैज्ञानिक कंसेप्ट है और बुद्धीमान को उसे त्यज देना चाहिए. चूंकि आत्मा का कंसेप्ट त्यज्य है इसलिय आध्यात्मिकता भी एक त्यज्य कंसेप्ट हो जाता है - सो इस शब्द का भी कोई अर्थ नहीं .. लेकिन क्या उन चीजों का भी कोई अर्थ नहीं जिनका यह शब्द प्रतिनिधित्व करता है? जावेद कहते हैं कि नहीं यह शब्द जिन गुणों का प्रतिनिधित्व करता है वे आत्मसात करने योग्य हैं लेकिन इसका किसी ईश्वरीयता से संबंध स्थापित ना करो मानवीयता से करो क्योंकि वे ईश्वरीय नहीं स्वस्थ्य मानवीय गुण हैं! ये एक अच्छा और धांसू विचार है चूंकि वो है तो मानवीय गुण ही.. है तो एक मानवीय डिजायर ही! यहीं जावेद नंबर बना लेते हैं.
जावेद जानते हैं की कृष्ण के बारे में वो कुछ भी उल्टा सीधा नहीं बोल सकते! लेकिन अगर वे आत्मा के फ़ंडे को खारिज करते हैं को कृष्ण की गीता के सार के आधार को ही खारिज कर रहे हैं. ईश्वरीयता को खारिज करना है तो उसके पैरोकार कृष्ण को खारिज करना होगा लेकिन वे स्पष्टत: ऐसा नहीं करते. जबकी गौतम नें ईश्वर के अस्तित्व को स्पष्टत: खारिज किया था - वे सही मायनों में नास्तिक थे. अगर देखा जाए तो कृष्ण और गौतम को एक वाक्य में बोलना विसंगत है!
आत्मा है या नहीं, उसकी उपस्थिती या अनुपस्थिति से ही जड और चेतन, स्थूल और स्पंदन का अंतर होता है या नहीं इसका फ़ैसला तो नहीं हुआ .. ना होगा लेकिन आंशिक रूप से जावेद प्रभावित करते हैं, कम से कम वे बाबाओं की पोल तो अच्छे से खोल ही रहे हैं.
Stamina boss! Stamina!
prypt samay to nhi tha lekin prabal jigyasa ke chalte pritsh ji ka tippani-sangrah padh gya.
pdhane ke bad barhath ji parikshan me bhagidari karna chahta hu. mera uttar kramank 7 h. baki log bhi is parikshan me bhagidari karke pritish ji ke khoj ko safal banaye.
द्विवेदी जी,
मैं तो तार्किकता और वैज्ञानिकता की पड़ताल करने ही निकला था। आस्तिकता क्या है यह तो मैं आप जितना भी नहीं जानता। मुझे वेदों का तो ध्यान ही नहीं आता वेद तो केवल हिन्दुओं के ही पास हैं जबकि आस्तिक तो अन्य धर्मों में भी हैं, यहाँ तक खुद जावेद साहब भी धार्मिकों और आध्यात्मिकों को अलग-अलग बता रहे हैं। मेरा कहना यह कि आध्यात्म के ऐवरेस्ट को फूंक से उड़ाने की कोशिश की जा रही है, यदि यह उडाया भी जा सके तो हमें मान लेना चाहिये कि अभी वह बम हमारे पास नहीं है जिससे इसे उडाया जा सकता है। रही बात जानवरों की तो क्या हमारा डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त पर भरोसा नहीं रहा, हम तो पहले बन्दर ही बताये। विज्ञान के अनुसार इंसान एक विकसित जानवर ही तो है। ईश्वर की कसम खाकर कहता हूँ मैंने भी कभी ईश्वर को नहीं देखा है। वेद, पुराण, दर्शन पढ़ना तो दूर देखे भी नहीं हैं, हाँ तर्क और विज्ञान से यदि आप माने तो थोड़ा नाता रहा है। ध्यान-वान के बारे में तो सोचना भी मत, बड़ी मुश्किल से इन टिप्पणियों के लिये दस-पंद्रह मिनट का समय निकाल पाता हूँ। रोजी-रोटी, हारी-बीमारी, नाते-रिश्ते ही सारा समय खा जाते हैं। हाय अब किसी को कैसे यकीन दिलाउँ कि जिस मानवता के की चिंता जावेद साहब को है उसी मानवता के लिये मैं भी चिंचित हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि मानवता की इस पावन नदी का स्रोत आध्यात्मिकता मे ही है, प्रकृति में नहीं। प्रकृति में प्रत्येक मनुष्य के लिये दूसरा मनुष्य एक प्राकृतिक वस्तु है(स्वयं भी) जिसे यदि संभव हो तो उसे अपनी सेवा के लिये जीत लेना चाहिये। कोई कहेगा कि दोनों साथ रहें तो दोनों को ही सुख मिलेगा लेकिन ऐसे साथियों को साथ रखने की प्रेरणा क्या होगी जिनका साथ भार होगा? फिर एक अपराधी व्यक्ति को नास्तिकता क्या प्रेरणा देती है कि हत्या करो और सबूत मिटादो, यदि तुम इस समाज, इस तंत्र की आँखो में धूल झौंक सके तो फिर ऐस ही ऐस है, कोई नहीं है जो तुम्हारे बाल बांका कर सके। जबकि आध्यात्मिकता उसे रोकती है कि पाप की सजा से बचने की कोई संभावना ही नहीं है। मैं विश्वास-अविश्वास के क्षेत्र में आस्तिकता पर बात करने का आग्रह नहीं करूंगा, पूरी तरह विज्ञान, तर्क और मानवता के हित में बात करूं तो भी हर दृष्टि से आध्यात्म को नास्तिकता से बीस ही पाता हूँ। इसी क्षेत्र में यदि मैं आध्यात्मिकता पर पुनर्विचार करने को तैयार हूँ तो अपेक्षा करता हूँ कि नास्तिकता भी स्वयं पर पुनर्विचार करने को तैयार हो उसी क्षेत्र में जिस पर खडे होने का वह दम भरती है। लेकिन मैंने कोई नहीं देखा जो अपने विश्वास या अविश्वास से रंच मात्र भी हिलने को तैयार हो। रही बात बाबाओं कि तो हम उनके नाम और मुखौटे पर ही क्यों जाते हैं, उनके आचरण से तय क्यूँ नहीं करते कि वे आस्तिक हैं या नास्तिक ! यदि ये अपने भगवा वस्त्र उतार फैंके, धर्म ग्रंथों को न छुयें अपने आप को नास्तिक कहने लगें लेकिन लोगों को लूटना जारी रखें तब क्या ये स्वीकार हो जायेंगे। मैं कल कर्नल की वर्दी पहन आउँगा तो क्या मुझे कर्नल की सीट पर बैठने दिया जायेगा! नहीं न। दूसरा क्या मुझे इजाजत मिलेगी कि मैं नास्तिकों के कारनामों से इस ब्लाग को भरदूँ, वो क्या –क्या करते हैं ? अब आप पूछ सकते हैं कि क्या मैं नास्तिकों में मानवता नहीं मानता हूँ। मानता हूँ जरूर, बहुत से नास्तिक मिशाल देने योग्य हैं, उनका स्नेह भी प्राप्त करता हूँ लेकिन उनकी मानवता की प्रेरणा उनकी विचारधारा से नहीं उनके घरों में रहे आस्तिक संस्कारों, देश – दुनिया में फैले आध्यात्मिक वातावरण की संगति को ही मानता हूँ। आने वाले समय में जब आध्यात्म का कोई नाम लेवा न बचेगा, चारों तरफ नास्तिकता होगी तभी पता चलेगा कि नास्तिकता में कितनी मानवता की प्रेरणा है। आध्यात्मिकता पर विचार करते हुए क्यूँ हमें बाबा ही दिखायी देते हैं, इस देश का वो किसान क्यूँ नहीं दिखाई देता जिसकी दिनचर्या में आध्यात्म ही आध्यात्म भरा पड़ा है।
धन्यावद,
श्री रंगनाथ जी,
मुझे नहीं लगता दुनिया में सुखी इंसानों की संख्या ज्यादा है।
आभार
प्रिय बारहठ जी
मैंने आपके दिए हुए विकल्पों में से एक का चुनाव किया, न जाने क्यों बाकि लोगों ने आपके परीक्षण में भागीदारी नहीं की ? आपके अति-आह्लादकारी विश्लेषण को पढ़कर उनके मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं उठी होगी इस पर यकीन नहीं होता। आपने काफी सोच समझकर विकल्प रखें हैं इसलिए लोगों को चुनाव के लिए बहुत माथापच्ची करनी पड़ेगी। आपने अपने विकल्प में यह लिखा होता कि जो लोग सुखी हैं उन्हें यह लेख मूर्खतापूर्ण लगेगा। तब मैं दुविधा में पड़ जाता कि मैं सुखी हूँ या नहीं। लेकिन आप ने लिखा कि जिन्हें यह लेख मूर्खतापूर्ण लगेगा वह सुखी हैं। मुझे यह लेख मूर्खतापूर्ण लगा यानि आपके ज्ञानशास्त्र में में मैं सुखी इंसान हूँ। आपने अपनी जवाबी टिप्पणी में लिखा है कि आपको नहीं लगता कि दुनिया में सुखी इंसानों की संख्या ज्यादा है यानि आप यह मानते हैं कि आपके लेख को मूर्खपूर्ण मानने वालों की संख्या ज्यादा न होगी। तमाम लोगों को आपकी यह हरकत अंध-आत्मग्रस्तता लगेगी तमाम दूसरे लोगों को आपकी यह हरकत कुछ और भी लग सकती है जिसकी यहाँ चर्चा करना ठीक नहीं।
आप को ज्यादा कष्ट न हो तो जावेद अख्तर के भाषण के नीचे यही परीक्षण रख दें और इसी परीक्षण के आलोक में अपनी टिप्पणीयों का मूल्यांकन करें। आपको पता चलेगा कि आप किस श्रेणी में आते हैं। हम दूसरों के जो पैरामीटर बनाते हैं खुद पर भी उन्हें लागु करना चाहिए। हमेशा नहीं तो कभी-कभी ही सही।
आपके बाकि विकल्पों का विखण्डन किया जाए तो आप को चिंताजनक चिंताओं में उलझने से कोई रोक न सकेगा। महोदय आपने लिखा है कि आपको एहसास है कि आपकी प्रतिक्रिया अनुचित है और इसमें गंभीरता भी नहीं है। एक अनुचित और हल्के लेख की तालठोंक प्रस्तुती के लिए जिस स्तर के साहस की जरूरत पड़ी होगी उस स्तर का साहस रखने वाले होमोसैपियन्स की संख्या इस धरा पर ज्यादा न होगी।
बारहठ जी
आपको यह बताना जरूरी है कि मैंने अपनी पहली टिप्पणी आपको आईना दिखाने के लिए की है। आपका परीक्षण चार्ट निश्चय ही समस्त पाठकों की अवमानना है। आपने जिस तरह से यह विकल्प चुने हैं उसके बाद कोई टिप्पणी करने में असहज महसूस करेगा। आप जरा विचार करें कि मैं अपने किसी लेख के नीचे यह नोट लिख दूँ कि “ जिन मूर्खों को मेरी बात समझ न आयी हो वो बेहिचक अपनी शंकाए मेरे सामने रख सकते हैं“
फिर आपकी क्या प्रतिक्रिया होती ?
महोदय
संवाद शैली को तज कर फतवेबाजी की शैली में लिखे लेख की कोई क्या प्रतिक्रिया देगा ? यदि सारा मामला अपनी अपनी आस्था को सही मानना का है तो फिर ये भाषणबाजी क्यों ?
आप समेत तमाम आस्तिकों को नास्तिकों का अस्तित्व स्वीकार करने में तकलीफ क्यों होती है ?
आप के इस अपमानजनक कथन “ नास्तिकों की मानवता की प्रेरणा उनकी विचारधारा को नहीं बल्कि उनके घर में रहे आस्तिक संसारों.....वगैरह वगैरह....“
अच्छाई पर तथाकथित अध्यात्मिक होमो सैपियन्स का पेटंेट है क्या ?
किसी की मानवता की जड़ उसके परिवार में मौजुद आस्तिक संस्कार हैं तो किसी की बुराई में किन संस्कारों का हाथ होता है ? उसी के घर के आस्किता का या पड़ोसी के घर की आस्तिकता का ?
मुझे ठीक से नहीं पता कि मानव इतिहास में किसी मनुष्य को किसी तथाकथित नास्तिक ने इस बात के लिए हत्या की हो कि उसे आस्तिकता बर्दास्त नहीं ?
स्टैलिन या खमेर रूज ने भी ईश्वर संबधी आस्था के लिए किसी की हत्या की हो यह सुनने में नहीं आया है !!!
लेकिन कंपैरेटिव रिलीजन में एम ए , एम फिल , जे आर एफ होने के नाते आप को हर धर्म में उपलब्ध उस इतिहास की जानकारी दे सकता हूँ जो बताता है कि किस किस ने आम आदमीयों को उनकी आस्था के लिए मौत के घाट उतार दिया !! नास्तिकों की हत्या की बात छोड दीजिए, मैं उन हत्यायों की तरफ आपका ध्यान दिलाना चाहुँगा कि तमाम मासूम लोगों की हत्या इस बात के लिए की गई की उनको ईश्वर में आस्था थी लेकिन किसी खास तरह के ईश्वर में नहीं थी।
धर्म के ताजा तालिबानी कारनामों की लिस्ट नहीं दूँगा, इसके लिए किसी भी दैनिक अखबार को पढ़ लीजिएगा।
अभी तक इतिहास में तथाकथित अध्यात्मिकों का ही वर्चस्त रहा है इसके बावजूद दुनिया का इतिहास रक्तरंजित ही है !! इस पर आपको क्या कहना है ?
सर्वाधिक नापसंद किए जाने वाले नास्त्कि कार्ल मार्कस ने भी धर्म के उन्मूलन की बात नहीं की थी। उनका मानना था कि शोषण की व्यवस्था खत्म हो जाएगी तो मनुष्य के इस तरह की परिकल्पना की जरूरत नहीं पड़ेगी।
लेकिन छोटे से छोटा बाबा या चेला नास्तिकों को तरह तरह की धमकी देता रहता है। उसके वश में हो तो वह उस नास्तिक को मारने से भी नहीं चूकता।
आपने अति-दुस्साहसिक ढंग से माना है कि आपको किसी तरह का अध्यात्मिक अनुभव या अध्ययन नहीं है !! विवेकानन्द का वह कथन याद आ गया जिसका आशय यह था कि, “बिना किसी अध्यात्मिक अनुभव के अध्यात्म का पाखण्ड करने से बेहतर है नास्तिक होना“
महाशय ईश्वर या ऐसी किसी शक्ति का जब तक प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक आप हम नास्तिकों बराबरी का दर्जा क्यों नहीं देते। अगर हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है तो आप के पास भी कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए बेहतर है कि हम दोनों एक दूसरे की आस्था का सम्मान करें। किसी को हक है कि वह बताए कि उसकी आस्था क्या है, क्यों है !!
जब दुनिया भर के बाबा लोगा लोगों को अध्यात्मिक प्रवचन देते हैं तो आपको कोई ऐतराज नहीं होता कि बिना किसी आधार या प्रमाण के ये बाब्बा लोग इतने लंबे लंबे भाषण क्यों देते हैं ?
दूसरी तरफ अगर कोई जावेद अख्तर या कुमार अंबुज अपनी आस्था को पाठकों के सामने रखता है तो आप जैसे तमाम लोगों के तन बदन में आग लग जाती है, ऐसा क्यों ??
आप जिन अच्छाईयों पर आस्तिकों का पेटेंट समझतें हैं कम से कम उन्हीं के सदके नास्तिकों के प्रति सहिष्णु बने ? थोड़ा सहनशील बनें !! उन्हें अपने से हीन न माने !!
आपकी थोथे बाजी के तमाम नमूने में से एक नमूना देखिए, अपराधियों को नास्तिकता क्या सिखाती है ?? अरे महाराज, दिवास्वप्नों से बाहर आइये और तिहाड़ या अपने पास की किसी जेल में पता करिए की कितने कैदी आस्तिक हैं, कितने कैदी नास्तिक हैं ? आपने पूछा है कि अपराधियों को नास्तिकता क्या सिखाती है ? मैं आपसे पूछता हूँ कि दूनिया के सभी आस्तिकों को उनकी आस्किता क्या सीाखाती है कि दुनिया भर की जेलें भरी हुईं हैं ???
जार्ज बुश, सद्दाम हुसैन, राजपक्षे, प्रभाकरण को उनकी आस्किता ने क्या सीखाया है ??
आपने जावेद अख्तर के लेख का जिस तरह लाइन बाई लाइन विवेचन किया है उस पद्धति का मैं प्रयोग करूँ तो आप को भारी असुतिधा का सामना करना पड़ेगा।
आपने विज्ञान और तर्क की बात की है। बकौल आप आपका इन दोनों से नाता रहा है। अगर आप ने यह बात गंभीरता से कही है तो आपसे आग्रह करूँगा कि अपने लिख ेलेख में उपस्थित लॅाजिकल फैलसी का ध्यान रखा करे !!
जावेद अख्तर ने यह बताया है किन तर्कों के आधार पर वह नास्तिक बनें हैं तो आप यह बताइये कि आप किन तर्कों के आधार पर आस्तिक बने हैं ???
गर यह आप के लिए आस्था का विषय है तर्क का नहीं तो इस पर बहसबाजी में न पड़ंे। क्योंकि मैं भी नहीं चाहता कि कोई मेरी आस्था को चोट पहुँचाए। आप अपनी आस्था के साथ सुखी रहिए। मैं अपनी के साथ रहता हूँ।
मैथमैटिक्स(आनर्स) में स्नातक होने, और गणित परास्नातक के दो साल के अनुभव के बाद भी मुझेे ऐसा कोई गणितीय सुत्र नहीं मिला जिससे अध्यात्मिकता को सुलझाया जा सके। गणित किसी भी असित्ववादी प्रश्न का जवाब दे सकती है इसमें मझे पूरी शंका है !!
विज्ञान की दूसरी शाखाओं में अध्यात्मिकता के बीज मिले हैं या नहीं मुझे नहीं पता !!
इतना जरूर है कि उन्नीसवीं सदी में विज्ञान को लेकर धर्म के खिलाफ जो आत्मश्विास था इक्कसवीं सदी में नहीं रहा है। कुमार अंबुज या जावेद अख्तर के लेख के सबसे बड़ी कमी यही है कि इन लोगों को विज्ञान पर बच्चों जैसा भरोसा है, जैसे किसी आस्तिक को ईश्वर पर होता है। जावेद अख्तर ने नितांत निजी स्तर पर अपनी नास्तिकता के तर्क दिए हैं। कुमार अंबुज ने अपनी आस्था को विचार का रूप देना चाहा है।
विज्ञान किसी को नास्तिक बनाने में सझम होता तो दुनिया भर के वैज्ञानिक नास्तिक होत !!
विज्ञान की दुनिया में कई लोग मानतें हैं कि एक भौतिकविद ही इस बात का सर्वाधिक अधिकार रखता है कि ईश्वरीय तत्व पर टिप्पणी कर सके। बाकि किसी विज्ञान शाखा का अधिकार क्षेत्र ईश्वर के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण या संक्रमण नहीं करता। यदि विज्ञान अनिवार्य रूप से ईश्वर विरोधी होती कमजकम सारे भौतिकविद तो नास्तिक जरूर होते। लेकिन ऐसा है नहीं !!
नास्तिक होने के बावजूद मैं मानता हूँ कि वो तमाम कहानीकार,कवि,इतिहासकार इत्यादि उन वैज्ञानिको से ज्यादा वैज्ञानिक सोच नहीं रखते जो ताउम्र विज्ञान के क्षेत्र में काम करने के बावजूद आस्तिक बने रहे !!
आप ने इन मुददों पर तार्किक आधार पर जावेद जी या अंबुज जी के लेखों का जवाब दिया होता तो इससे हम सब को लाभ मिलता। एक स्वस्थ बहस हुई होती !
श्रीरंगनाथ जी,
मैं पुनः आपका आभार (वास्तव में दिल से)प्रगट करता हूँ कि आपने मुझे आइना दिखाया, मेरे बहाने से बाजार में आइने तो आये नहीं तो बाजार से आइने गायब ही हो गये थे। मेरे पास कोई सबूत तो नहीं है लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि अपने हर विचार को बदलने के तैयार हूँ यदि कोई आइना दिखाता रहे। यह जो परीक्षण मैने लगाया है इसकी कोई सफाई नहीं दूँगा, मैंने तो आशा ही तज दी थी कोई बुद्धिजीवी अब आइने भी रखता है, पिछले दस वर्षों से इसी जगत में विचरण कर रहा हूँ लेकिन मुझे तो गालियां की भाषा में बात करने वाले ही ज्यादा मिले हैं, आपके जैसे सीख देने वाले कम। आइना किसी ने नहीं दिखाया।आप कह सकते हैं कि मैं गालियां खाने लायक ही हूँ, लेकिन इसका निर्णय जल्दबाजी में मत करना, फिर चाहे देना। जावेद साहब के लेख के नीचे यही परीक्षण लगाकर देखता हूँ मेरा उत्तर क्रमांक 4 है। आपने जो मेरी प्रतिक्रिया का यह अर्थ लगाया है कि मैं मानता हूँ कि मेरे लेख को मूर्खतापूर्ण मानने वाले कम हैं तो ऐसा नहीं है, यह वस्तुतः एक प्रतिक्रिया है, और क्यों है? मैं इसे शेयर नहीं करना चाहता। मैं ने अशोक पाण्डे जी को जो मेल भेजा है उसमे अपने इस टुच्चेपन का उल्लेख किया है, उनसे पूछ लीजिये। जारी....
श्रीरंगनाथ जी,
मैं पुनः आपका आभार (वास्तव में दिल से)प्रगट करता हूँ कि आपने मुझे आइना दिखाया, मेरे बहाने से बाजार में आइने तो आये नहीं तो बाजार से आइने गायब ही हो गये थे। मेरे पास कोई सबूत तो नहीं है लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि अपने हर विचार को बदलने के तैयार हूँ यदि कोई आइना दिखाता रहे। यह जो परीक्षण मैने लगाया है इसकी कोई सफाई नहीं दूँगा, मैंने तो आशा ही तज दी थी कोई बुद्धिजीवी अब आइने भी रखता है, पिछले दस वर्षों से इसी जगत में विचरण कर रहा हूँ लेकिन मुझे तो गालियां की भाषा में बात करने वाले ही ज्यादा मिले हैं, आपके जैसे सीख देने वाले कम। आइना किसी ने नहीं दिखाया।आप कह सकते हैं कि मैं गालियां खाने लायक ही हूँ, लेकिन इसका निर्णय जल्दबाजी में मत करना, फिर चाहे देना। जावेद साहब के लेख के नीचे यही परीक्षण लगाकर देखता हूँ मेरा उत्तर क्रमांक 4 है। आपने जो मेरी प्रतिक्रिया का यह अर्थ लगाया है कि मैं मानता हूँ कि मेरे लेख को मूर्खतापूर्ण मानने वाले कम हैं तो ऐसा नहीं है, यह वस्तुतः एक प्रतिक्रिया है, और क्यों है? मैं इसे शेयर नहीं करना चाहता। मैं ने अशोक पाण्डे जी को जो मेल भेजा है उसमे अपने इस टुच्चेपन का उल्लेख किया है, उनसे पूछ लीजिये। जारी....
श्रीरंगनाथ जी,
मैं पुनः आपका आभार (वास्तव में दिल से)प्रगट करता हूँ कि आपने मुझे आइना दिखाया, मेरे बहाने से बाजार में आइने तो आये नहीं तो बाजार से आइने गायब ही हो गये थे। मेरे पास कोई सबूत तो नहीं है लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि अपने हर विचार को बदलने के तैयार हूँ यदि कोई आइना दिखाता रहे। यह जो परीक्षण मैने लगाया है इसकी कोई सफाई नहीं दूँगा, मैंने तो आशा ही तज दी थी कोई बुद्धिजीवी अब आइने भी रखता है, पिछले दस वर्षों से इसी जगत में विचरण कर रहा हूँ लेकिन मुझे तो गालियां की भाषा में बात करने वाले ही ज्यादा मिले हैं, आपके जैसे सीख देने वाले कम। आइना किसी ने नहीं दिखाया।आप कह सकते हैं कि मैं गालियां खाने लायक ही हूँ, लेकिन इसका निर्णय जल्दबाजी में मत करना, फिर चाहे देना। जावेद साहब के लेख के नीचे यही परीक्षण लगाकर देखता हूँ मेरा उत्तर क्रमांक 4 है। आपने जो मेरी प्रतिक्रिया का यह अर्थ लगाया है कि मैं मानता हूँ कि मेरे लेख को मूर्खतापूर्ण मानने वाले कम हैं तो ऐसा नहीं है, यह वस्तुतः एक प्रतिक्रिया है, और क्यों है? मैं इसे शेयर नहीं करना चाहता। मैं ने अशोक पाण्डे जी को जो मेल भेजा है उसमे अपने इस टुच्चेपन का उल्लेख किया है, उनसे पूछ लीजिये। जारी....
श्रीरंगनाथ जी,
मैं पुनः आपका आभार (वास्तव में दिल से)प्रगट करता हूँ कि आपने मुझे आइना दिखाया, मेरे बहाने से बाजार में आइने तो आये नहीं तो बाजार से आइने गायब ही हो गये थे। मेरे पास कोई सबूत तो नहीं है लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि अपने हर विचार को बदलने के तैयार हूँ यदि कोई आइना दिखाता रहे। यह जो परीक्षण मैने लगाया है इसकी कोई सफाई नहीं दूँगा, मैंने तो आशा ही तज दी थी कोई बुद्धिजीवी अब आइने भी रखता है, पिछले दस वर्षों से इसी जगत में विचरण कर रहा हूँ लेकिन मुझे तो गालियां की भाषा में बात करने वाले ही ज्यादा मिले हैं, आपके जैसे सीख देने वाले कम। आइना किसी ने नहीं दिखाया।आप कह सकते हैं कि मैं गालियां खाने लायक ही हूँ, लेकिन इसका निर्णय जल्दबाजी में मत करना, फिर चाहे देना। जावेद साहब के लेख के नीचे यही परीक्षण लगाकर देखता हूँ मेरा उत्तर क्रमांक 4 है। आपने जो मेरी प्रतिक्रिया का यह अर्थ लगाया है कि मैं मानता हूँ कि मेरे लेख को मूर्खतापूर्ण मानने वाले कम हैं तो ऐसा नहीं है, यह वस्तुतः एक प्रतिक्रिया है, और क्यों है? मैं इसे शेयर नहीं करना चाहता। मैं ने अशोक पाण्डे जी को जो मेल भेजा है उसमे अपने इस टुच्चेपन का उल्लेख किया है, उनसे पूछ लीजिये। जारी....
रंगनाथ जी,
आपकी टिप्पणी जारी है
मैं इंतजार करता हूँ.....
आपका सानिध्य मुझे जरूरी है.
नहीं जानता कि बाकि कबाड़ियों की इस मुद्दे पर क्या राय है। ऐसा लगता है कि लोग टिप्पणी करने से बच रहे हैं। एक बार सभी लोग अपनी राय खुल के रखें तों इस बहस का कोई सिला मिलेगा। वरन यह सब ज्ञानरंजन बन कर रह जाएगा।
मैं सभी साथियों से अनुरोध करूँगा कि अपनी अपीे आस्था के तर्क सामने रखें। मुझे पूरा विश्वास है कि हमारी आस्थाएं हमारे आपसी ममत्व और परस्पर सम्मान के आड़े नहीं आएंगी।
आपने लिखा है कि "आपका सानिध्य मुझे जरूरी है."
मुझे लगता है कि,
इस तरह की टिप्पणियों से बच कर भी बहस की जा सकती है।
आखिरकार हम दोनों एक दूसरे से अपरिचित हैं । मैंने आपकी पोस्ट का जवाब दिया है आप मेरी टिपपणी का जवाब दें !!
No point in repeating what I had said earlier on the subject, but after reading Pritish ji's detailed analysis, I have two things to say :
1)HOAX??? Spiritualism, or, the gentleman who tried to prove it so?(So many words for something beyond words).
2)A couplet, perhaps, by Meraj Faizabadi, that I heard at a mushaira some 30 years ago:
ये आइनों की शराफत थी, सच नहीं बोले
सुना है चेहरा बहुत दागदार था मेरा.
पर्याप्त अध्यात्म है बिल्कुल न सोचने में भी
-फ़र्नान्दो पेसोआ
पर्याप्त अध्यात्म है बिल्कुल न सोचने में भी
क्या सोचता हूं मैं दुनिया के बारे में?
मैं कैसे जान सकता हूं मैं क्या सोचता हूं दुनिया के बारे में?
- मैं सोचता अगर बीमार होता तो
चीज़ों के बारे में मेरे क्या विचार हैं?
कारक और प्रभाव के बारे में?
ईश्वर, आत्मा, संसार और सृष्टि की बाबत
मेरा चिन्तन क्या है?
-मुझे नहीं मालूम, इस सबके बारे में सोचना
मेरे लिए अपनी आँखें बन्द कर लेने जैसा है
न सोचने जैसा
अपनी खिड़कियों के परदे खींच लेने जैसा
(पर उनमें परदे नहीं है)
वस्तुओं का रहस्य?
कैसे जान पाऊँगा क्या है वह?
इकलौता रहस्य यही है कि कोई ऐसा भी है
जो रहस्य के बारे में सोच सकता है
ऐसा एक कोई जो धूप में खड़ा हो आँखें मूँद लेता है
यह जानना बन्द कर कि सूरज क्या है
वह तमाम गर्मीभरी चीज़ों के बारे में सोचने लगता है
फिर वह अपनी आँखें खोलता है और
सूरज को देखता है
- अब वह कुछ भी नहीं सोच पाता
क्योंकि सूरज की रोशनी
विचारों से कहीं अधिक मूल्यवान है
सारे दार्शनिकों, कवियों से कहीं अधिक मूल्यवान है
सूरज की रोशनी नहीं जानती वह क्या कर रही है
और इसलिए नहीं भटकती
और वह सभी के लिए है और अच्छी है
अध्यात्म?
क्या अध्यात्म है इन पेड़ों में सिवा इसके कि वे हरे हैं?
उनमें चोटियाँ और शाखाएँ हैं
और वे अपने समय पर फलते हैं -
जो नहीं है वह हमें सोचने पर विवश करता है
हम जो यह भी नहीं जानते
कि उनके बारे में सोचा कैसे जाए
लेकिन उनके अध्यात्म से बेहतर क्या अध्यात्म हो सकता है
जो जानते ही नहीं वे जीवित क्यों हैं
जो यह भी नहीं जानते कि वे नहीं जानते?
`चीज़ों की आन्तरिक संरचना...
ब्रह्मांड का गूढ़ रहस्य...`
यह सब असत्य है, निरर्थक है,
यह अविश्वसनीय है कि लोग
इस सबके बारे में सोच सकते हैं
यह तो ऐसा ही हुआ
जब सुबह के शुरू में किरणें आती हैं
और पेड़ों के किनारों पर
सुनहरी धुंधभरी चमक उतरना शुरू करती है अंधेरे को हटाती
और कोई उसके
कारण और परिणाम के बारे में सोचने लगे
वस्तुओं के आन्तरिक अर्थ के बारे में सोचने का अर्थ है
परिश्रम की बरबादी
या जैसे स्वास्थ्य के बारे में सोचना
या जैसे जलप्रपात के पास गिलास ले कर जाना
चीज़ों का आन्तरिक अर्थ यही है
कि उनका कोई आन्तरिक अर्थ नहीं होता
मैं ईश्वर पर विश्वास नहीं करता
क्योंकि मैंने उसे कभी नहीं देखा
अगर वह चाहता होता कि मैं उस पर यकीन करूँ
तो निश्चित ही मेरे पास आता
और मुझसे कहता `यह मैं हूं`
(शायद यह उस व्यक्ति के कानों को हास्यास्पद लग रहा होगा
जो यह नहीं जानता
कि चीज़ों को कैसे देखा जाना चाहिए
जो उस आदमी को भी नहीं समझता
जो चीज़ों की बात उसी तरह करता है
जैसा उनका दिखाई देना
उनके बारे में सिखाता है)
लेकिन अगर पेड़, फूल
पहाड़ और चाँदनी और सूरज ही ईश्वर है
तो मैं उसे ईश्वर क्यों कहता हूं
मैं उसे फूल, पेड़, पहाड़, सूरज और चाँदनी ही कहता हूं
क्योंकि यदि
वह ख़ुद को मुझे दिखलाना चाहने के लिए
अपने आप को
सूर्य और चाँदनी और फूल और पेड़ और पहाड़ बनाता है
यदि वह मुझे
पेड़, पहाड़, चाँदनी
सूरज और फूल की तरह दिखाई देता है
तो सत्य यह है कि वह चाहता है
कि मैं उसे पेड़, पहाड़, फूल, चाँदनी और सूरज की तरह ही
समझूं और जानूं
लेकिन अगर फूल, पेड़, पहाड़ और सूरज
और चाँदनी ईश्वर है
तो मैं उस पर विश्वास करता हूं
तो मैं उस पर हर घड़ी विश्वास करता हूं
और मेरी पूरी ज़िन्दगी
आँखों और कानों के माध्यम से
लगातार की गई
एक प्रार्थना है
और इसीलिए मैं उसकी आज्ञा का पालन करता हूं
(मैं स्वयं कितना अधिक जानता होऊँगा
ईश्वर के बारे में,
जितना वह स्वयं को जानता होगा?)
मैं उसकी आज्ञा का पालन जी कर करता हूं
ऐसे व्यक्ति की तरह जो अपनी आँखें खुली रखता है
और देखता है
और मैं उसे चाँदनी, सूरज और पहाड़
पेड़ और फूल कहता हूं
और इस बारे में सोचे बग़ैर उसे प्यार करता हूं
और देख और सुनकर उसके बारे में सोचता हूं
और हर पल
मैं उसके साथ-साथ चलता हूं
naastik hona badi hi aam baat hai...kabhi kabhi is baat pe yakeen nahi aata ki aise vaigyaanik yug me bhi ek aisi cheez pe itne saare logo ka yakeen hai jisko vigyaan samjhaa nahi saktaa...
ek survey ne ye paaya tha ki kitne pratishat log bhagwan ko maante hai usme bharat top ke desho me hai...aur kitne pratishat log apne bhagwan ke liye kuch bhi kar sakte hai isme bharat bahut neeche aa jaata hai...ye kisi or ishaara kar raha hai..ek hipocricy aati ja rahee hai..
kai baar pareshani is baat ki rehti hai ki tark saare bas naastiko ke paas hote hai,aastiko ke paas vichaar maatr ho sakta hai...tark katai nahee....aise me aastiko ki sankhyaa jab kahin kahin zyaada hai to seedhi si baat hai ki tark kahin na kahin dabte aayenge...
ab ye andaza lagaana koi mushkil nahi ki main ek naastik hoon...fir bhi logo ki aastha ka samman kiya karta hoon,par haan agar koi aastik kabhi ye dikhaa de ki wo kisi prakar hum logo se behtar hai to wo bas bardaasht nahi ho saktaa...jaisa aapne kaha aise me inko aaina dikhaana zaroori ho jaata hai
pehli baar aapke blog pe aaya...post bahut hi zyaada lamba tha,ant tak nahi padh paaya,par jitna padha usse seekhne samajhna ko mila kaafi kuch
आप सबके चिंतन में मैं भी ज्ञान में श्री-वृद्धि कर पा रहा हूँ !!
धन्यवाद!!
Sh. Rangnath ji,
jaisa ki maine bataya tha, mujhe shayad 1-2 din system aur net ki suvidha nahi mil payegi. lekin jaisa bhi mera koodmagaj dimag hai uske sath main vapas Aaunga. Apake duulabh saniddhya ki murkhatapoorn apeksha ke liye kshama chahta hun. kripaya avasar den.
गलतफहमियाँ पालने में भी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये।
हम दूसरों के जो पैरामीटर बनाते हैं खुद पर भी उन्हें लागु करना चाहिए। हमेशा नहीं तो कभी-कभी ही सही।
श्री रंगनाथ जी,
(आपको प्रिय लिख कर तो मैं अपनी इज्जत दाव पर नहीं लगा सकता वैसे भी अत्यन्त सुन्दर लोगों को प्रिय कहने की लालसा रखना अपराध हो सकता है। आपको श्री कहना इसलिये जरूरी है क्यूँकि आप बहुत पढे लिखे हैं, और जी लगाये बिना मैं रह नहीं सकता।)
एक दिन जब मैं आपकी टिप्पणी का जवाब देने का प्रयत्न कर रहा था तब मुझे पोस्ट करने में बहुत समस्या आ रही थी, अचानक देखा आपकी दमादम प्रतिक्रियायें आ रही है, और बार-बार ट्राई करने के कारण खुद मेरी प्रतिक्रिया कई बार प्रकाशित हो गई है। इसी कारण मुझे अपनी प्रतिक्रिया रोकनी पड़ी। तब मैंने इस आशय से कि कहीं आप मेरी प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं करने पर अपनी बात अपने मन में न रखलें मैंने कहा कि मुझे आपका सानिध्य जरूरी है(इस ब्लाग पर टिप्पणियों के माध्यम से ताकि मैं भी खुल सकूं, और खुद को समझ सकूँ) आपने पता नहीं इसे किस प्रकार का सानिध्य समझकर मेरा हाथ झटक दिया कम से कम घर की कॉलबेल बजने तक तो इंतजार किया होता आखिर आपका दरवाजा आपकी मर्जी के बगैर तो नहीं खुल सकता था। खैर! आप जटिल प्रवृत्ति के आदमी हैं, और अपना भी हाल कुछ ऐसा है-
दिल की दुनिया में तेरे आने का गम है
होके बहुत नाराज मेरा महमान उठा करता है।
मेरे अश्कों पे अपना हल्का ही हाथ रख
मुझसे कम ही कोई अहसान उठा करता है।
आपको लगा होगा मैं चापलूसी कर रहा हूँ। जरा जबाब पढ़ने के बाद तय कीजियेगा(जल्दबाजी में....)
जारी......
श्री रंगनाथ जी,
अब तक आप मुझे शायद पर्याप्त आइना दिखा चुके हैं।
होमो सैपियंन्स पर बाद में आउँगा, पहले आइनों की ही बात करता हूँ.
मैं अपना आइना साथ रखा करता हूँ। सौंदर्य प्रसाधन शायद मेरे पास नहीं हैं इसलिये सूरत नहीं संवार पाता होउंगा लेकिन बालों में उंगलियाँ यदाकदा फिरा लेता हूँ। जब से सिलसिला चला है, जावेद साहब के भाषण में सबसे पहले मैंने अपना ही आइना देखा। इस आइने पर डांवाडोल स्थिति गर्द जमी हुई थी और कुतर्कों की दरार थी, इसमें मेरी जैसी सूरत उभरी वह वास्तविक से धुंधली और असत्य रूप से दरकी हुई थी। हाँ इस आइने पर चालाकियों के चमके भी पड़ रहे थे। मुझे आइने की इस हालत का अहसास हुआ तो यह बताने के लिये कि वास्तव में आइना क्या होता है और कितनी स्पष्ट सूरत दिखाता है, मैंने यह प्रतिक्रिया लिखी। यह प्रतिक्रिया किसी विचारधारा की स्थापना या समर्थन में नहीं वस्तुतः आइना दिखाने के लिये ही लिखी गई है। आपने मेरी तारीफ में कहा है कि मैंने परीक्षण बहुत सोच समझकर लगाया है इसके लिये धन्यवाद। वस्तुतः पूरी प्रतिक्रिया और परीक्षण धाराप्रवाह रूप से लिखे गये हैं, इतना की पलटकर प्रुफ भी शुद्ध नहीं किया गया। आप देख सकते हैं कि प्रश्न क्रमांक 10 का इस ब्लाग से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह परीक्षण मेरे ब्लाग पर लगाया जाना था। परीक्षण इस लिये लगाया था कि मुझे इस बात का भ्रम था कि बहुत से लोग इसे पढ़कर बिना प्रतिक्रिया ही लौट जायेंगे। मैं चाहता था कि कोई भी आइना देखने से वंचित नहीं रहे। एक बार मैंने अशोक पाण्डे जी इसे हटाने का अनुरोध भी कर दिया था लेकिन जैसे आपकी टिप्पणी आई मैंने उनसे पुनः अनुरोध किया कि अब इसे नहीं हटायें। आपने कहा इससे पाठक को बहुत समस्या हो जाती है, आपको तो नहीं हुई! कोई किसी प्रश्न पर उलझता है तो प्रश्न नं. 7 (जिसे आपने चुना) उपलब्ध है। आप इसमें मेरी ईमानदारी भी खोज सकते हैं। वैसे मेरा सुखी इंसान से आशय था कि जो लोग अपनी दिनचर्या में रमे हुए हैं, शांतिप्रिय हैं इस प्रकार की खामखां होने वाली वैचारिक बहस को मूर्खतापूर्ण मानते हैं। लेकिन आपने इसके नये अर्थ खोले हैं जो ज्यादा सटीक हैं। आपने मुझे आइना दिखाने के लिये इस प्रश्न का चुनाव किया, समझ आया लेकिन इतनी टिप्पणियों में भी यह नहीं बताया कि वास्तव में आपका कौनसा प्रश्न-उत्तर था। खैर मत बताइयेगा। मैंने बता दिया है कि जावेद साहब के भाषण में मेरा उत्तर क्रमांक 4 था, यानि मैं आस्तिक हूँ, ईश्वर या किसी ऐसी शक्ति में विश्वास रखता हूँ और प्रतिक्रिया तैयार की है।
आप बडे तिलमिलाये कि मैं अपनी टिप्पणी को मूर्खतापूर्ण स्वीकार नहीं करता हूँ इस लिये अंध-आत्मग्रस्तता का शिकार हूँ। आप अपनी हरकत को क्या कहेंगे, जो आपने तमाम नास्तिक दल के लिये प्रश्न क्रमांक 7 के चुनाव का व्हिप जारी किया है, आप इसे मूर्खतापूर्ण मानते हैं इसलिये आप चाहते हैं कि बाकी सब भी इसे मूर्खतापूर्ण कहें, जबकि यह आपका भी वास्तविक उत्तर नहीं है, जो है उसे आप बता नहीं रहे हैं। आपके इस व्हिप के बावजूद मेरा यकीन(आपके अनुसार.. जल्दबाजी में कोई गलत...) ही ठीक साबित हुआ और एक नास्तिक बंधु तो मेरे स्थान पर आपको आइना दिखा गये। वैसे यदि हजार टिप्पणियाँ भी ऐसी आती तो दुनियाँ में सुखी मनुष्यों की संख्या कम ही रहती। आपको भी इस बात का अहसास है अतः अकेले ही 10 बार मूर्खतापूर्ण कह कर सुखी आदमियों की संख्या बढ़ाने को उतावले हैं, आप गंभीरता ओढ़कर पुनः एक अपील जारी करते हैं, ये प्रयास स्तुत्य हैं। अपने आप को स्वयं ही कोई नाम दे लीजिये। आपने कहा यह परीक्षण पाठको की अवमानना है, कतई नहीं इसमें पाठकों के लिये सम्मान भी है, और उन्हे व्यर्थ टिप्पणी से बचाता भी है(यदि आपने जितने गौर से परीक्षण पढ़ा उतने ही गौर से भूमिका भी पढ़ी होती) आपने मुझे धमकाने की चेष्टा की है कि बाकी प्रश्नों का विखण्डन किया जाये तो.... मैं पुनः आग्रह करूँगा कि आप शोक से ऐसा कर सकते हैं लेकिन जल्दबाजी में कोई गलतफहमी..., फिर अनुरोध है कि मेरी भूमिका पढ़े..
cont....
मैं ने अपनी टिप्पणी को अनुचित कहा, गंभीरता की कमी बताई, अपने आपको वैदिक ज्ञान से अछूता बताया तो आप झट से मान बैठे, लेकिन हल्का सा जिक्र तर्क और विज्ञान का कर दिया तो आप मेरा वायवा लेने की तैयारी करने लगे। अपनी इस अदा को क्या कहेंगे। मेरी ही बात के आधार पर, अपनी विरोधी विचारधारा होने के कारण मुझे होमो सैपियन इंसान कहने को आतुर (अपने स्वयं के लिये भी कोई नाम स्वयं ही दें यदि मैंने दिया तो मुश्किल होगी) ...इंसान धरा पर कितने होंगे। मेरी टिप्पणी को मैं अनुचित और गंभीरता से हीन कहता हूँ तो यह मेरे नैतिक मापदण्डों के अनुसार है। मैं पुनः ताल ठोक कर कहता हूँ कि जावेद साहब के कुतर्कों की तो यह बहुत उचित शल्यक्रिया है और जिस तरह से उनके अनुचित, असभ्य और मसखरे टाइप के विचारों को अद्भुत बताकर पर्चे बंटवाने की तैयारी की जारही थी उन्हें देखते हुए जरूरी भी थी। जब जावेद साहब भलमनसाहत को सीमाओं में बांध रहे थे, निष्काम कर्म की कुटिल व्याख्या कर रहे थे, आध्यात्म को ड्रग्स, मदिरा और हथियारों के साथ जोड़ रहे थे, गरीबों और महिलाओं की करुणा का मजाक उडा रहे थे तब आपने उन्हें होमो सैपियन नहीं कहा!
आपको फतवेबाजी की शैली कहां मिली आपने नहीं लिखा है, आप आगे चलकर कहते हैं कि मैं लाइन दर लाइन जावेद साहब के साथ गया हूँ तो आप इस फतवेबाजी को जावेद साहब के भाषण में ही ढूंढिये। मैंने जब पाण्डे जी इस प्रतिक्रिया को लिखने की अनुमति माँगी थी तो उन्होंने कहा था कि ब्लाग ठीक ऐसे ही है जैसे कुछ दोस्त आपस में बैठे बात कर रहे हों, वैसे भी कृपया शब्द के साथ फतवा जारी होता मैंने आज तक नहीं सुना। आपने पूछा है भाषणबाजी क्यों? श्रीमान् मेरी टिप्पणी को पढ़िये मैं भी यही पूछ रहा हूँ भाषणबाजी क्यो? इन सभी प्रश्नों को उलट लीजिये और जावेद साहब और उनके भाषण पर नाचने-कूदने वालों से पूछिये।
आपने पुनः होमो सैपियन्स (शायद आपका प्रिय शब्द है, अभ्यासवश बोलते हैं इस लिये अब मैं इसका ज्यादा बुरा नहीं मानूँगा) कहते हुये सख्त ऐतराज उठाया है कि नास्तिकों की मानवता की प्रेरणा..........? पेटेंट क्या होता है यह तो शायद मुझे वापस पढ़ने की जरूरत पड़ेगी, लेकिन आप धमकियों से काम निकालना चाहते हैं क्या? आप नास्तिक विचार के साथ मानवता रिश्ता जोडने का तर्क क्यों नहीं करते? आप क्यों नहीं परिभाषा करते नास्तिकता की, और उससे मानवता की प्रेरण कैसे जुड़ती है समझाते क्यों नहीं? या वह सूत्र इन धमकियों मे ही निहित है। आपने पूछा है बुराई में किन संस्कारों का हाथ होता है? निश्चित ही पडोसी के घर की आस्तिकता नहीं, अनास्था का हाथ है। आप बहुत उत्तेजित हो गये हैं धर्मों का इतिहास बखान करते हुए, आप क्या स्वीकार करवाना चाहते हैं मुझसे? पहले मेरी प्रतिक्रिया को गौर से पढ़ लीजिये मेरा उत्तर उसमें बहुत स्पष्ट रूप से उल्लेखित है। कोई भी हत्यारा आध्यात्मवादी होता है मैं नहीं मानता, हाँ आध्यात्मवादी नामक हो सकता है। आपकी अत्यन्त उत्तेजना का शायद यह उत्तर पर्याप्त है।
आपको अप्रत्यासित रूप से विवेकानन्द की याद आ गई है। क्या वास्तव में विवेकानन्द की बातों को आप इतना ही मानते हैं? क्या आप मानते हैं कि मुझे नहीं तो विवेकानन्द को आध्यात्मिक अनुभव हुआ था, रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें काली माता के दर्शन करवा दिये थे। यदि ऐसा है तो हमारे बीच में क्या बहस हो सकती है! लेकिन नहीं आपको लगा होगा यह पंक्ति आप मुझ पर लागू कर देंगे। मुझे नहीं लगता आपको पाखण्ड की परिभाषा भी बतानी पडेगी। पाखण्ड तब होता श्रीमान् जब मैं यह कहता कि मुझे ईश्वर की अनुभूति हुई है, आओ मैं आपको अनुभूति का मार्ग बता सकता हूँ। किसी विचारधारा से जुड़ना पाखण्ड नहीं होता है ऐसे तो केवल आविष्कारक ही विज्ञान पढ़ सकेंगे। यह जो आपकी और जावेद साहब की प्रवृत्ति है कि रविशंकर को खारिज करने के लिये गौतम और मुझे खारिज करने के लिये विवेकानन्द, गौतम और विवेकानन्द को खारिज करने के लिये कोई और, कोई और को खारिज करने के लिये कोई और, यह उचित नहीं है। क्या कहना है आपका? मैं भी तो आप सब लोगों से बराबरी के दर्ज वाला प्रश्न ही पूछ रहा हूँ।
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आपके सुझाव “महाशय ईश्वर या ऐसी किसी शक्ति का जब तक प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक आप हम नास्तिकों बराबरी का दर्जा क्यों नहीं देते। अगर हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है तो आप के पास भी कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए बेहतर है कि हम दोनों एक दूसरे की आस्था का सम्मान करें। किसी को हक है कि वह बताए कि उसकी आस्था क्या है, क्यों है !!” पर कुर्बान होने को जी चाहता है, मैने कब और कहाँ इस पर ऐतराज किया। तकलीफ तो यह कि अपनी विचारधारा को तो वैज्ञानिक, तार्किक और बौद्धिक बताना और दूसरे की विचारधारा को पाखण्ड बताना। कम से कम आस्तिक विचारधारा के पीछे एक प्रबल संभावना को तो विज्ञान भी नहीं नकारता फिर भी न जाने क्यू? हम अगर इतने सहमत हैं तो फिर यह क्या विडम्बना है कि व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के दलदल में फंसते चले जाते हैं।
लोग करते होंगे, मैं किसी बाबा का तरफदार नहीं हूँ। दूसरा जावेद अख्तर के कारण मेरे तन-बदन में आग का आरोप आप फिर जल्दबाजी में लगा रहे हैं। मैंनें जावेद अख्तर के भाषण पर पहली टिप्पणी इतनी ही की थी यह बहुत ही सतही विचार हैं, जावेद खुद इस मुद्देपर डावांडोल हैं और उनके तर्कों में कुतर्कों का मिश्रण है लेकिन इसी से कई तन-बदनों में आग लग गई और मुझे यहाँ तक घसीट लाई। यह आप अब मान रहे हैं कि यह लोग भी अपनी आस्था ही सामने रख रहे हैं, अब तक तो यह कहा जा रहा था यह विज्ञान है, तर्क है, बुद्धि है। मेरी प्रतिक्रिया का कोई असर हो न हो इतना तो है कि अब कोई जावेद साहब के भाषण को अद्भुत नहीं कह रहा होगा, न ही उसके प्रिंट बांटने की जल्दबाजी में होगा। आप ये क्या बार-बार पेटेंट की बात कर रहे हैं, मेरा तर्क तो केवल इतना है कि मानवता के समस्त गुण आध्यात्मिकता के विचार से तार्किक सम्बद्धता रखते हैं, इसे सीधे नहीं मानकर अन्यत्र आप भी मानते हैं कि आध्यात्मिकता इन गुणों का प्रतिनिधित्व करती है। आपको जो अपराधियों वाले किस्से से दुःख पहुँचा है, तो आपका जैसा अति विद्वान धैर्य के साथ नास्तिकता के मूल विचार से
मानवता के गुणों की तार्किक सम्बद्धता को स्थापित क्यूँ नहीं करता, क्यूँ केवल गाँलियाँ या दुहाइयाँ दी जा रही हैं। आपके थोथे बाजी कहने भर से तो मैं पश्चाताप करने से रहा। जब मैं बार-बार खम ठोक कर कहता हूँ कि मैं अपनी आस्तिकता पर पुनर्विचार करने को तैयार हूँ तो आप उस तैयारी के साथ क्यूँ नहीं आते, समझाइये मैं कहाँ गलत हूँ। आप चाहते हैं कि आप कहते हैं कि मैं गलत हूँ तो अपने को गलत मानलूँ, ऐसा नहीं हो सकता श्रीमान्।
जार्ज बुश, सद्दाम हुसैन, राजपक्षे, प्रभाकरण को उनकी आस्किता ने क्या सीखाया है ?? मैं इन्हें अनुत्तीर्ण विद ऋणात्मक अंक छात्र मानता हूँ इससे ज्यादा कुछ नहीं।क्या आप यह कहना चाहते हैं कि इनका आचरण आस्तिकता की पाठ्यवस्तु के अनुरूप था? आप इन्हें राजनेता से ज्यादा आध्यात्मिक मानते हैं क्या? आप बताइये इस भारतरूपी विशाल शिवपालगंज में रंगनाथ कितने हैं, शायद केवल एक या दो-चार।
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आपने लिखा है “आपने जावेद अख्तर के लेख का जिस तरह लाइन बाई लाइन विवेचन किया है उस पद्धति का मैं प्रयोग करूँ तो आप को भारी असुतिधा का सामना करना पड़ेगा।“ अगर यह केवल धमकी नहीं है तो आपका स्वागत है। लेकिन एक मूर्खतापूर्ण सलाह भी है कि मेरी प्रतिक्रिया की भूमिका पहले पढ़लें, मुझे अपने बारे में कोई गलतफहमी नहीं है, और आपको भी नहीं पालनी चाहिये। आपके लाइन दर लाइन जाने के बाद शायद मैं शब्द दर शब्द जाऊँ, और यदि जरूरी हुआ तो अक्षर दर अक्षर, यदि मैं नहीं जा सका तो आपके तर्क अन्तिम होंगे ऐसा नहीं है कोई और जा सकता है इस रास्ते। इस लिये भूमिका अवश्य पढ़े.. जो भी अंत में बोलेगा महफिल को लूट लेगा....
आप एक बात क्यूँ नहीं बताते! जग जाहिर कि आस्तिक तो भावनात्मक होता है उसकी भावनाओं को चोट लगने पर उसका तिलमिलाना तो समझ में आता है, लेकिन आपकी यह टिप्पणी बता रही है कि आपके भी तर्क, विचार या बौद्धिकता को चोट नहीं लगी है, चोट भावना को ही लगी है, यदि आप इसे वाकई मूर्खतापूर्ण समझते हैं तो क्यूँ नहीं नजरअंदाज कर जाते? आखिर मैं कोई कानून बनाने की माँग तो नहीं कर रहा, कोई आंदोलन तो नहीं चला रहा न ही जावेद साहब। हम अपने –अपने विचार अपने मित्रों से ही तो बांट रहे हैं। मैं अभी भी समझता हूँ कि मैं जावेद साहब के लाइन दर लाइन उतना नहीं गया हूँ जितनी वहाँ संभावना थी, मैंने काफी कुछ जब्त कर लिया है। इसलिये माने तो एक सलाह कि इस प्रकार टिप्पणीयों में आप जैसी महान् शख्सियत को तो कम से कम नहीं गिरना चाहिये। हल कुछ भी नहीं होता एक खामखां उत्तेजना और सम्बन्ध खराब होने के सिवा। आइना तो आप मुझे पर्याप्त रूप से दिखा चुके हैं।
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आपने मुझे तर्क फैलसी का उपदेश भी दिया है,(Meri pratikriya bahut simit uddesh ke liye thi, kuch jagah mene swikar bhi karliya hai) जावेद अख्तर ने जो भी बताया हो मैं उनके तर्कों चीरफाड़कर उनमें उपस्थित लाजिकल फैलसी को उजागर कर चुका हूँ, आप भी मेरे ध्यान में लायें। आपने जो कहा है “गर यह आप के लिए आस्था का विषय है तर्क का नहीं तो इस पर बहसबाजी में न पड़ंे। क्योंकि मैं भी नहीं चाहता कि कोई मेरी आस्था को चोट पहुँचाए। आप अपनी आस्था के साथ सुखी रहिए। मैं अपनी के साथ रहता हूँ।” मैंने भी अपनी प्रतिक्रिया के जरिये ठीक यही प्रश्न जावेद साहब और उनके अनुयायियों से किया है। आस्तिक नहीं कहता कि उसकी आस्था तर्क का विषय है नास्तिक कहता है।
आपने जो फतवेबाजी का आरोप मुझ पर लगाया है वह नितांत झूठा और धमकाने भर के लिये प्रतीत होता है। दूसरी और आप स्वयं अपनी टिप्पणी में फतवेबाजी के नमूने ढूंढ लें तो बेहतर है, मैं व्यर्थ ही आपकी उत्तेजना बढ़ाना नहीं चाहता। आप जो बार-बार कुछ किताबों का नाम गिना रहे हैं, क्या बहस के इस स्तर पर उसके बिना भी काम नहीं चलाया जा सकता था। फिर आप मुझसे इन्टलऐक्चुअल बहस की अपेक्षा तब करें जब साधारण जिज्ञासाओं का उत्तर दे दें। मैं नहीं समझता आध्यात्मिकता या नास्तिकता पर केवल पढ़े लिखे लोगों का पेटेंट है। या फिर आप मुझे उस आधारभूत पाठ्यक्रम की सलाह दें जिसे पढ़ने के बाद व्यक्ति आवश्यक रूप से आस्तिक या नास्तिक हो जाये। आपने गणित और विज्ञान के माध्यम से जिस ओर इशारा किया है उसमें मुझसे बहस की क्या गुंजाइश है, यह तो आप जावेद साहब या नास्तिक विचारधारा वालों को बतायें। उन्नीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी का जो ट्रेंड़ आपने बताया है उसमें आप को यह भी बताना चाहिये था कि आप इसका क्या कारण मानते हैं। अगर मैं इसका अनुमान इस तरह करलूँ कि लोग आध्यात्म से निराश होकर पहले विज्ञान और नास्तिकता की ओर गये लेकिन बहुत ही अल्प समय में वहां से भी निराश होकर पुनः आध्यात्म की ओर आकर्षित हो गया, लौट के बुद्धु घर को आये वाली स्थिति। तो क्या आप मुझसे सहमत होंगे?(हालांकि मेरा निष्कर्ष यह नहीं है) एक टिप्पणी सर्वे वाली आयी है उसका निष्कर्ष आप किस तरह से लेते हैं? क्या इस तरह की भारत में अधिकांश आध्यात्मिक ढोंगी है या वे कट्टर नहीं हैं!!
कुमार अंबुज साहब का लिखा मैं नहीं पढ़ सका लेकिन जावेद साहब के बारे में ऐसी टिप्पणी मैंने पहली बार आपकी ही पढ़ी है, मेरी भी प्रारम्भिक टिप्पणी यही थी। यदि आपकी यह टिप्पणी पहले आयी होती, लोग उस भाषण को अद्भुत और क्रांतिकारी नहीं बता रहे होते तो शायद मेरी प्रतिक्रिया भी नहीं होती।
“विज्ञान किसी को नास्तिक बनाने में सझम होता तो दुनिया भर के वैज्ञानिक नास्तिक होत !! ” यह प्रश्न आपका निश्चित ही नास्तिकता वादियों से है, मैं भी यही प्रश्न अपनी टिप्पणी में कर चुका हूँ। यहां हम सहमत होते जा रहे हैं। मैं ने पूरे आग्रह के साथ जो बात कहनी चाहिये है वह यह है कि जिस प्रकार आस्तिकता एक आस्था है उसी प्रकार नास्तकिता भी एक विश्वास ही है, उसे तर्क या विज्ञान द्वारा पुष्ट नहीं किया जा सकता है। जबकि बहुत से वैज्ञानिक किसी अज्ञात और पारलौकिक शक्ति की संभावना जताते रहे हैं।
आपने अंत में मेरी ही जिज्ञासाओं को रख दिया है तो फिर कैसे मुझे होमो सैपियन कहा गुरु!
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मैंने जावेद साहब के भाषण की अति साधारणता को खोलने के लिये तथा उन सभी लोगों को आइना दिखाने के लिये प्रतिक्रिया की थी जो जावेद साहब से छूट पाकर आध्यात्म के साथ गाली-गलौच तक उतर आये थे। इसलिये इस प्रतिक्रिया में जो गंभीरता हो ही नहीं सकती थी जिसकी आप मांग कर रहे हैं, यदि आप भी मुझे होमो सैपियन नहीं कह कर आये होते तो आध्यात्म पर मैं अपने आप को खोलता जरूर। अभी तो यह तय नहीं हो पा रहा है कि आप एक होमो सैपियन के किसी भी विचार को गंभीरता से सुन पायेंगे भी या नहीं। अपने आप को होमो सैपियन कहे जाने के बावजूद मुझे आपकी टिप्पणी से ऐसा लग रहा है कि आप काफी गुस्सा पी गये हैं, (उगल देते तो खांमखां बात बढ़ती)। पता नहीं क्यूं मुझे लगता है कि आहत होने के बावजूद आप में एक ईमानदारी है, जिसका अंत में आपने निर्वाह भी किया है। लेकिन भारत रूपी इस विशाल शिवपालगंज में रंगनाथ हैं ही कितने!!!
मै चाहता तो अपनी प्रतिक्रिया को ऐसी महफिलों में सुना सकता था जहाँ मुझे कंधो पर उठालिया जाता, लेकिन मुझे अपने आपको कबाडखाना पर होमो सैपियन कहा जाना ज्यादा पसंद है, फूल मुझे चुभते हैं।
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बार हठ जी
1.आप ने कई बार पूछा है कि मेरा असल उत्तर क्या है ? आप को बता दूँ कि मेरा जवाब उत्तर क्रमांक सात ही है। सामान्य परिस्थितियों में मैं ऐसे बोल्ड उत्तर देने से बचता हूँ क्योंकि मैं इसे गैर जरूरी समझता हूँ। लेकिन आपने जिस अंदाज में वो परीक्षण लगाए थे उनके बरक्स मुझे सच कह कर आपको आईना दिखाना जरूरी लगा। आपने अपनी जवाबी टिप्पणी में आईना शब्द की बारंबारता देख कर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि तीर बिल्कुल सही निशाने पर लगा है।
2.आपको होमो सैपियन्स कहना बहुत बुरा लगा है। अरे महाराज, विज्ञान-विज्ञान की दुहाई देते रहने से काम नहीं चलेगा। कुछ विज्ञान को अपने अंदन जज्ब भी करना होगा। आप ने तो मुझे ऐसे धमकी दी है जैसे होमो सैपियन्स कोई गाली हो। बार हठ जी आप को लगता है कि आप को होमो सैपियन्स कह कर मैंने अपमान किया है तो मैं अपने शब्द वापस लेता हँू। जनाब आप की जानकारी के लिए बता दूँ कि मैं खुद को होमो सैपियन्स ही मानता हूँ। वैज्ञानिकों ने मनुष्यों को यही नाम दिया है। मुझे इस पर कोई एतराज नहीं है। आप कहते हैं तो मुझे यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि आप होमो सैपियन्स नहीं हैं !! इतना ही नहीं मैं मानता हूँ कि बार हठ जी को पूरा अधिकार है कि वो होमो सैपियन्स न बने........
आप के लिए विकी-पीडिया से आएक टुकड़ा कापी-पेस्ट कर रहा हूँ। समय हो तो उसका पाठ कीजिएगा।
A human is a member of a species of bipedal primates in the family Hominidae (taxonomically Homo sapiens—Latin: "wise man" or "knowing man").
3. आप की टिप्पणी के कई बार पढ़ने के बाद मुझे आप से गहरी सहानुभूति है। आप स्वयं उलझे हुए हैं। कहीं न कहीं व्यथित हैं। निश्यच ही आपको के मन में एक उहापोह है। खैर, आपने तमाम तर्कों-कुतर्कों के बावजूद मुझे काफी सम्मान दिया है। इसके लिए आपका आभारी हूँ।
4.आपकी टिप्पणी में वैचारिक प्रतिउत्तर कम और व्यक्तिगत आरोप ज्यादा हैं। व्यक्तिगत आरोप व्यक्ति सापेक्ष होते हैं इसलिए उनका जवाब देना फालतू है।
5.जिस तरह से आपने अपनी टिप्पणी में नास्तिकों को दुश्चरित्र होने का फतवा जारी किया है मैंने उस बात का प्रतिरोध किया है। आपकी पोस्ट का जवाब तो मैंने उत्तर क्रमांक सात का चुनाव करके दे दिया था। हालाँकि आपने मेरे चुनाव को विशेष महत्व देते हुए टिप्पणी की यानि मेरी टिप्पणी का आपके लिए महत्वपूर्ण थी। आपने देखा ही होगा कि मैंने आपके मूल पोस्ट पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी है। क्योंकि मेरी समझ में वह पोस्ट तवज्जो देने लायक है भी नहीं। आपने दिनेशराय द्विवेदी को दिए गए जवाब में नास्तिकों के चरित्र हनन का कुत्सित प्रयास किया है। आपके इसी हरकत से मुझे टिप्पणी करना पड़ी। भविष्य में भी कोई ऐसी हरकत करेगा तो मैं उसका जवाब दूँगा।
6.मेरे उठाए तमाम प्रश्नों को सुन्दर और सरल ढंग से समझना हो तो अशोक जी ने कविता के रूप में जो टिप्पणी की है उसका बार-बार पाठ-पुनर्पाठ करें। उससे ज्यादा सुलझे और स्पष्ट रूप से अपनी बात कहने की सलाहियत मुझमें नहीं है।
आपने फिर बहुत जल्दबाजी की मुझे कम्पलीट नहीं करने दिया, अब बात कुछ और हो गई है।
1. मैं स्वीकार करता हूँ कि आपका ही तीर निशाने पर लगा है, मेरा तीर निशाने पर तो क्या लगेगा बल्की चला ही नहीं है फुस्स हो गया है। आपकी टिप्पणियों में इसके प्रमाण हैं। दूसरा मै यह भी स्वीकार करता हूँ कि आप मुझसे नहीं मेरी तस्वीर से लडे हैं। वाह!
मैं मानता हूँ कि आपका उत्तर क्रमांक सात ही है, आप नहीं दोहराते तब भी मुझे इसका पता था, आपके पास अब इसके अलवा कोई विकल्प बचा भी नहीं है।
2. मुझे होमो सेपियन का मतलब नहीं आता था मैं ने उसे गलत समझा। अब मैं समझ गया हूँ कि
ः अनुचित और हल्की बात को साहस के साथ कहने वाला= wise man=knwing man=मूर्ख=आप स्वयं=होमोसेपियन
मेरे ज्ञान में वृद्धि करने के लिये आपका शुक्रिया। (यहाँ मैं इसका प्रयोग नहीं करूंगा लेकिन आपको बतादूं कि मैं किसी व्यक्ति को श्रीमान्, महोदय, महाशय, महाराज, श्री श्री इस तरह से कह सकता हूँ कि वह तिलमिला जाये जबकि शब्दकोश अपने स्थान पर इनका अर्थ बहुत गरिमापूर्ण देता रहे, क्या आप नहीं मानते श्री रं..ग नाथजी।)
3. मुझे आपकी सहानुभूति स्वीकार है, यह मेरे लिये बडी बात है(और मैं आपकी सहानुभूति की अवमानना नहीं कर सकता) लेकिन आपने नहीं बताया कि मैं क्यूं व्यथित हूँ, मुझे क्या दुःख है, क्या इसलिये कि मेरा बाबओं की तरह धंधा नहीं चल पा रहा है! आप इतने द्रवित कैसे हुए प्रभु? मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं उलझा हुआ हूँ, अस्पष्ट हूँ लेकिन आप पूरी तरह स्पष्ट हैं, सुलझे हुए हैं, आपकी टिप्पणियों में कोई विरोधाभास नहीं है।
4.मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि आपको मेरे द्वारा दिये गये सम्मान पर क्या आश्चर्य है? आप को स्वयं पर क्या शंका है! मैं एक पढ़े-लिखे और संवेदनशील इंशान को सम्मान देकर ही खुद के साथ न्याय कर सकता हूँ इसमें मुझे कतई संदेह नहीं है। जहां कहीं अनुचित बात मैंने की है वह केवल जवाब में की है मैं स्वयं का अभी इतना परिष्कार नहीं कर पाया हूँ वरना यह सब नहीं होता. जो लोग संवेदनशील नहीं है और इन मुद्दों पर धंधा करते हैं वे मेरे और आपके ब्लाग को ठेंगे पर रखते हैं, उनके स्वयं के चैनल चलते हैं।
5. आपकी गलतफहमी दूर हो या नहीं हो लेकिन मैं यह बताना जरूरी समझता हूँ कि मैंने किसी नास्तिक का चरित्रहनन नहीं किया है, मेरा मूल प्रश्न यही है कि नास्तिकता का मानवता के साथ कोई कनेक्शन नहीं है और कनेक्शन स्थापित करने पर मानवता तहस-नहस होती है, जिस पर मैं कायम हूँ, जब भी बात चलेगी इसी होमोसेपियन साहस के साथ कहूँगा। वैसे आये दिन आस्तिकों के होने वाले चरित्रहनन पर आपका क्या कहना है?
6. मैंने अशोक पाण्डे जी की कविता इसलिये नहीं पढ़ी थी क्यूँकि आपने साहित्यकारों को इस पर बात करने का अधिकार ही नहीं दिया था। अब पढ़ली है, और यदि यही आपकी बात है तो मुझे आप पूरी तरह स्वीकार है। आप जैसे सूरज को दीपक दिखाने की कुचेष्टा कर रहा हूँ(मूर्खता) कि कविता कभी भी विचार नहीं होती है, वह संवेदना होती है। कविता को विचार समझने की भूल नहीं करनी चाहिये। मेरी भी एक कविता है 'प्रार्थना' यदि कभी गलती से आप पढलें तो उसे मेरा विचार नहीं मान बैठना। दूसरे साहित्यकारों के विषय में अपना सोच बदलिये (अगर नहीं बदलना हो तो भी उत्तेजित होकर डराना मत, मैं तो पहले से ही डरा हुआ हूँ)।ज्ञान अर्जित पहले किया जाता है, किताबों में बाद में लाया जाता है। जीवन निरा ज्ञान नहीं है वह व्यवहार है, और इस क्षेत्र में साहित्यकार दार्शनिकों से बीस होते हैं, मानव मन की गुफाओं की जो यात्रा साहित्यकारों ने की है वह किसी विज्ञान के बस का नहीं है।
मेरे ज्ञान में वृद्धि करने, मुझ पर(नहीं मेरी तस्वीर पर) समय खर्च करने, मुझे सुधारने, मेरी टिप्पणियों की प्रतीक्षा करने(मेरी मजबूरियां हैं), सहानुभूति दिखाने के लिये आपका बहुत-बहुत आभार।
जय हिन्द
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