Monday, June 15, 2009
रेगिस्तान के जबड़ों में दूध के दांत
इज़रायली कवि रॉनी सॉमेक की ये कविताएँ आधुनिक अवबोध और विकल्प चिंतन के बीच पुल की तरह झूलती हैं. उनकी कविता में भेडि़ए, हंसिए और पिस्तौल के बिम्ब जहां उस आतंक का अक़्स करते हैं, जो तीसरी दुनिया के तक़रीबन हर आधुनिक कवि के हिस्से आया है, वहीं भेड़ों और अरबी चरवाहों के पेस्टोरल संदर्भ कथ्य को स्मृति-बिम्बों वाली वह संचेतना भी बख़्शते हैं, जो अमूमन समकालीन रचना की अनिवार्य पनाहगाह भी बनती रही है. अगरचे उससे ग़ैर-सहमति की भी आवाज़ें उठती रहीं. नेरूदा और पॉज़ में वर्तमान और विरासत का ये द्वंद्व ख़ूब है. बहरहाल, यह दोहरी विवेक-चेतना रॉनी सॉमेक की कविताओं में पर्याप्त तनाव और ड्रॅमैटिज़्म तो पैदा करती ही है.
रॉनी सॉमेक का जन्म 1951 में बग़दाद में हुआ था. वे उस मुल्क़ के शाइर हैं, जहां से एदोनिस और सादी यूसुफ़ जैसे सुख़नवर आते रहे. 2 साल की उम्र में वे इज़राइल चले गए, लेकिन कविताएं उन्होंने अरैबिक में ही लिखीं. उनका संग्रह 'जास्मीन' 1995 में शाया हुआ. उसके बाद उनके आधे दर्जन से अधिक मज़मुए और छपे. उन्हें इज़राइल के प्रधानमंत्री पुरस्कार और येहूदा अमीख़ाई पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. रॉनी सॉमेक की ये कविताएँ 'द अमेरिकन पोएट्री रिव्यू' के जुलाई-अगस्त, 2000, वोल्यूम 29 में प्रकाशित हुई थीं.)
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अराद की ओर
अराद की ओर जाती भेड़ें
रेगिस्तान के जबड़ों में
दूध के दांत की तरह हैं
जारी है जंग
भेड़ों के बीच रहने वाला भेडि़या
अभी नहीं जन्मा.
आग ठहरती है लाल रंग में
दिसंबर का अंत
और सम्राट साउल एवेन्यू का हरापन
अपने आपमें नक़ल है पत्तियों की
और आग रुकी रहती है लाल रंग में
और पीला पीला है
आज की रात
औचक बारिश के अंतराल में
वह बात करती है
मार्टिन बूबर के बाबत
एक 'छुपी हुई रोशनी'
कार की हैडलाइट और ट्रैफिक सिग्नल्स से.
मेरे बदन में तारों की तरह
स्थगित हैं उसके शब्द
जिनके नीचे उसकी स्मृति सिहरती है
जैसे लहराता हंसिया.
कविता, जो चेख़ोव की पंक्तियों से शुरू होती है
पहले अंक में नमूदार होने वाली पिस्तौल
तीसरे में दाग़ी ही जानी चाहिए
पिस्तौल की नाल थूकेगी जैकेटों के बक्कल
लोहे की चेन और ऊँची सैंडिल पहनने वाली औरत की चाल
जो छील देगी येहूदा हेल्वी सड़क को
छोटे-छोटे टुकड़ों में.
इस दौरान, वह बालों को लाल रंगती है
जैसे कोई अरबी चरवाहा रंगता है अपनी भेड़ों को
कौन जाने, शायद किसी चरवाहे की बंसी ही हो
उसके सपनों का सीमांत.
(टिप्पणी और अनुवाद : सुशोभित सक्तावत)
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इजराइली,
कविता,
रॉनी सीमेक
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5 comments:
सुशोभित की पहली पोस्ट यहां लगाने का शुक्रिया रवीन्द्र भाई. उम्दा चयन, अनुवाद, और टिप्पणी.
सादी यूसुफ़ की कई सारी कविताएं कबाड़ख़ाने में पहले लगती रही हैं.
फ़िलहाल उम्मीद करता हूं कि सुशोभित आगे नियमित यहां योगदान करेंगे.
और हां, सुशोभित नए कबाड़ी बने हैं इसकी सूचना और उनका परिचय यदि आप टिप्पणी से पहले पोस्ट में लगा दें तो अच्छा रहेगा.
क्या कहते हैं, रवीन्द्र भाई?
shushobhit ki post bahut achhi h. ravindra ji ko unhe yaha lane ke liye dhanyavad.
kisi bhi nye kabadi ka jaruri sankshipt parichay dena sahi rahega.
अशोक मियाँ तुम्हारे सादी के अनुवाद आज अनुनाद पर पढ़े ! यहाँ सुशोभित जी ने भी बढ़िया काम किया है ! उम्मीद है आगे भी ऐसा ही कुछ कर दिखाएँगें. तुम कबाड़ियों ने इंटरनेट पर अपना कारोबार फैलाया है पर नैनीताल के असली कबाड़ियों की याद है?
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