Friday, July 3, 2009

एक दहकती हुई लक़ीर मेरे भीतर बुझती-सी

कल की पोस्ट को जारी रखते हुए सुशोभित सक्तावत की दो और कविताएं प्रस्तुत हैं. कवि-अनुवादक सुशोभित इन्दौर में रहते हैं.

अंतराल के भंवर से बचते हुए

उठी हुई बांहों जैसे पेड़ों पर
लदा लस्‍त-पस्‍त आकाश
उजाले की बर्छियों से छिदा
दु:ख की देह पर घाव सुख का मुंह खोलता-सा
सुई की आंख से झांकती हुई चाह

अपने क़ाबू के बाहर होने की ऐन सरहद पर
ज़ब्‍त करते ख़ुद को खिलखिलाहट के परदे के पीछे
मांस की एक नदी रुकती है और डूबते हैं स्‍पर्श के पत्‍थर
दीवार के उस तरफ़ जा गिरी आंख को
खड़खड़ाहट के बीच सुनने की कोशिश करते कान चौकन्‍ने
और बू उठती है जल रहे फ़ोटोग्राफ़्स से
रंगीन तस्‍वीरों का एक
रासायनिक भपका

दिन के तपते हुए पहाड़ पर तुम
जलने से बचा रही होती हो अंगुलियां
देह पर उगे कांटों को सहलाते
चाक़ू पर चलने की
चौकस देहभाषा के साथ
तमाम मशगूलियतों के एकदम बीचोबीच
नज़र में रखती उस एक भंवर को
जो हर चीज़ के बीच से घर्राती गुज़र जाती है
अंगुलियों के अंतराल में

और एक चिहुंक की उड़ती हुई चि‍डि़या
एक ख़ास लहज़ेदार स्‍वर, खिलखिलाहट, हंसी
चेहरे पर चस्‍पा चेहरा उतारने की
रोज़मर्राई वर्जिश के दौरान
औचक ढूंढते एक चाभी गुमी हुई
जबकि सिर हिलाते सैकड़ों ताले
हंसते हुए हर तरफ़

फिर भी सुख का घाव जब भी खोलता मुंह
ज़ब्‍त कर लेती हो तुम शब्‍दों को चबाते और निगलते पत्‍थर
तमाम कटे हुए पेड़ों को बजाती हो वायलिन की तरह
और चल पड़ती है ठहरी नदी भी
भंवरों को ग़र्क करती
अपने ही-
पानी में

हासिल की हद के सरासर बाहर...

नींद में सुनता हूं कोई बारिश,
और उसकी बजती हुई लय!
आगे फैलाता हूं सूखे हाथ
आंखें- गुम जाती है
बारिश्‍ा के इतने सुदूर बयाबां में...

आइने में खोलता हूं धूप की खिड़की!
और आकाश की निलाई को
कतरता हूं ऐनबीच.
बेहद सर्द वह सीसे का आकाश.
और यह- धूप का धोखा!
सर्द, बेहद सर्द!

एक दहकती हुई लक़ीर मेरे भीतर बुझती-सी-
जिसके कोई शक्‍़ल थी!

शायद, उधर-
कोई गुंजाइश
सतरों के बीच धरी हुई
इस सुब्‍ह- गुंजाइश वो
ख़त्‍म होती ख़ुद पर
सांस के हर बल के साथ
खुलती... और खुलती जाती!

और मैं, छूट जाता हूं बहुत पीछे
हर दफ़े बिन छुए, जो कुछ
अंतरालों के बीच की खाइयों में
दबा-छिपा है
इतना क़रीब...
क़रीबतरीन-
के हासिल तक कर सकने की हद के
सरासर बाहर!

अब जबके- तमाम आलम जागा हुआ मुझ पर
अपनी नींद में.
मेरे पास
कुछ नहीं-
कुछ धुंधले वहमों के सिवा
जो महज़ सिताइशों के सिले हैं
और यह-
धूप की बंद होती हुई खिड़की!

4 comments:

शायदा said...

ye bhee badhiya. rrat ko phir se padhenge.

गौरव सोलंकी said...

सच में अच्छी!

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

कुछ नहीं-
कुछ धुंधले वहमों के सिवा

सच है...। बहुत बढ़िया।

अमिताभ मीत said...

कमाल है भाई ... कहाँ से जुगाड़ लाते हो ये सब ??