Saturday, July 11, 2009

पाखा़ने का फुस्कारा

उदय जी ने अनिल यादव की पोस्ट के जवाब में अपने ब्लॉग पर लिखा. (ध्यान रहे उदय जी ने मेरे ही इसरार पर कबाड़खा़ना जॉइन किया था):

इस बीच कई फोन और एस.एम.एस. आये कि गोरखपुर में अपने भाई नरेंद्र (जिनकी पिछले वर्ष अचानक हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गयी थी, उनके नाम पर सम्मान लेने के एक बिल्कुल पारिवारिक और वैयक्तिक कार्यक्रम को भा.ज.पा. के आडवाणी और हमारे जे.एन.यू. के पुराने दोस्त चंदन मित्रा (जो लंबे अर्से से हिंदुत्ववादी राजनीति के प्रबल समर्थक हैं) के अंग्रेजी अखबार 'Pioneer' के किसी कर्मचारी की पोस्ट एक 'मशहूर' ब्लाग में साया की गयी है और नियोजित तरीके से, मुझ पर आक्रमण करके बदनाम करने की घृणित जातिवादी कोशिश की जा रही है। मैंने अभी २ मिनट पहले ही उस ब्लाग को देखा। वह मेरा पसंदीदा ब्लाग 'कबाडखाना' निकला। दुख और आश्चर्य है। लेकिन इस ब्लाग पर बात करने का समय शायद आ गया है।

दरअसल, इस हिंदू जातिवादी समाज में विचारधाराओं से लेकर राजनीति और साहित्य तक जैसा छ्द्म और चतुर खेल खेला गया है, उसके हम सब शिकार हैं। मेरे परिवार में यह सच है कि कोई भी एक सदस्य ऐसा नहीं है (इनमें मेरी पत्नी, बच्चे, बहू और पोता तक शामिल हैं...और मेरे मित्र तथा पाठक भी) जो किसी एक धर्म, जाति, क्षेत्र, नस्ल आदि से जुड़े़ हों। लेकिन हिंदी साहित्य, मीडिया और अब ब्लागिंग में सक्रिय सवर्ण हिंदू उसी कट्टर वर्णाश्रम-व्यवस्थावादी mindset से प्रभावित पूर्व-आधुनिक, सामंती, अनपढ़ और घटिया लोग हैं जिनके भीतर जैन, बौद्ध, नाथ, सिद्ध, सरहपा, ईसाइयत, दलित, इस्लाम आदि तमाम आस्थाओं और identities के प्रति गहरी घृणा और द्वेष है। इसे वे भरसक ऊपर-ऊपर छिपाए रखने की चतुराई करते रहते हैं। मैंने अपने जीवन भर इनका दंश और ज़हर झेला है और अभी भी झेल रहा हूं। लेकिन इस अपमान और साजिश का शिकार मैं अकेला नहीं, बहुतेरे हैं।


उपर्युक्त ब्लाग में समूची सोची-समझी नीयत के साथ जिस तरह से इस पोस्ट को प्रस्तुत किया गया है, (इसमें माडरेटर एक्टिवेटेड है) वह उनकी ही कलई ही उद्घाटित करता है। इसका सरगना इलाकाई-जातिवादी नेक्सस का वह कुत्सित नाम है, जिसने देश और समाज की सारी नैतिकताओं के धुर्रे बिखेरते हुए अपनी कई हवसों को पूरा किया है। ये एक नहीं, कई हैं। दक्षिण से 'वाम' तक इनकी धर्म-ध्वजा फ़हरा रही है।

गनीमत यही है कि आने वाली नयी पीढी़ और जातिवादी ज़हर से मुक्त नव-आधुनिक युवा इनके चेहरे पहचान रहे हैं।
मैं ज़ल्द ही इन सबके बारे में लिखूंगा। (हालांकि ये इतने ताकतवर हैं और इस व्यवस्था में इनकी पैठ इतनी गहरी है कि हमेशा की तरह जीवन मेरा ही बिगड़ेगा)...शमशेर की वही पंक्ति फिर पेश है, जिसे मैं अक्सर दुहराता हूं :

'ज़माने में तो अपना जब तलक ये जीना होना है,
तुम्हारी चोटें होनी हैं, हमारा सीना होना है !'

हम अपनी रचनाओं, प्रतिभाओं, मेहनत और ईमानदारी से इन घृणित सवर्ण लुटेरों के साम्राज्य को ध्वस्त करेंगे।

अंत में एक शेर और जो किसी ज़माने में अपने युवा दिनों में हम गाते थे :

'हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक बाग नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे !!'

ज़ल्द ही मिलेंगे। (एक खयाल आता है ; 'Right to Information' सिर्फ़ सरकार और सरकारी संस्थाओं पर ही क्यों लागू हो? क्या हम इन गिरोहों से इनकी योग्यताओं के प्रमाणपत्र और इनकी उपलब्धियों के दस्तावेज मांग कर उन्हें सार्वजनिक नहीं कर सकते?

अनिल ने टिप्पणी की:

"आडवाणी और हमारे जे.एन.यू. के पुराने दोस्त चंदन मित्रा (जो लंबे अर्से से हिंदुत्ववादी राजनीति के प्रबल समर्थक हैं) के अंग्रेजी अखबार 'Pioneer' के किसी कर्मचारी" वाह दादा वाह। हमला करने से पहले दूरी बनाने की क्या अदा है आपकी। इस कर्मचारी का आपसे तबसे स्नेहिल परिचय था जब वह, इस अखबार से पहले फ्रीलांसर हुआ करता था।
बहरहाल ठाकुर साहब, दलित चिंतन की लफ्फाजी छोड़िए और कबाड़खाने पर आकर जवाब दीजिए कि क्या योगी को आप किसी भी लेखक को सम्मान देने लायक पाते हैं आप। आपके भाई वहां नौकरी करते थे तब तो और भी अच्छी तरह आप सांसद योगी को जानते रहे होंगे।

कृपया माडरेटर का दुरूपयोग न करें। अगर आपने मेरे बारे लिखा तो मेरा पक्ष भी प्रकाशित होना चाहिए।


और ये रहा उदय जी का जवाब:

अनिल जी, मैं सचमुच आपसे कभी नहीं मिला हूं। मैं आपको ठीक से जानता भी नहीं। कृपया गलत बयानी ना करें। 'कबाड़्खाना' या कट्टर जातिवादियों और धूर्तों का 'पाखाना' कोई ऐसी अनिवार्य जगह नहीं है, जिसमें जाना मेरी मज़बूरी हो। हां, आपने सम्मान की 'रकम' के बारे में अपना कयास लगाया है तो वह बता देता हूं। गोरखपुर से चलने के पहले मेरी भाभी ( स्व.कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह की पत्नी) ने एक सूती कुर्ता और एक सूती पाज़ामा अपने इस खानाबदोश बना डाले गये देवर को दिया था। क्या उसे भी लूटना चाहते हो?

पिछली पोस्ट में मेरी कविता 'उनका उनके पास' की अंतिम पंक्तियां हैं :

'जहां तक मेरा सवाल है तो धन्यवाद

बस मेरे कपडे़-लत्ते ही लौटा दें. तो गनीमत !'

(उम्मीद है यह कविता किसी बदले हुए समय में फिर पढी जाएगी, 'तिब्बत' की तरह। क्षोभ में और गुस्से में कुछ असंगत लिख गया होऊं तो आप सब माफ़ करेंगे। ढेरों शुभकामनाएं।


मैं तबाह हूं!

मेरी बहुत सारी और हवसें बची हुई हैं. टैम ना मिल्लिया सर जीज़. उन्नीस माह से अपनी इकलौती बच्ची को देखने नहीं जा पा रहा क्यूंकि अपने अधमरे बाप की मिजाज़पुर्सी के घृणित कर्म की हवस में लीन हूं. थैंक्यू उदय जी! ये नया विशेषण मुझे और इतनी आजिज़ी से बनाए गए 'जातिवादी और इलाक़ाई' ब्लॉग को बख़्शने के लिए. आपकी महानता का प्रताप इसे बचाए रखेगा उम्मीद है.

आपका अपना

Ashok Pande

(जातिवादी कबाड़ियों का सरग़ना. जो बकौल आपके,उदय जी, इलाकाई-जातिवादी नेक्सस का वह कुत्सित नाम है, जिसने देश और समाज की सारी नैतिकताओं के धुर्रे बिखेरते हुए अपनी कई हवसों को पूरा किया है।)

आन दो! आन दओ!

होर वेखी जा - छेड़ी ना!

आपकी महानता को नमन!

15 comments:

अजित वडनेरकर said...

हे गाफिल अजित वडनेरकर, किस दुनिया में रहता है तू...अपने आस-पास की कुछ तो खबर रख। कुंवर जैसे संबोधनों का महिमागान अब भी है बाकी।
कबाड़ियों, जियो।

उदयजी, इस पोस्ट (अनिल यादवजी की) में ऐसा कुछ नहीं है जिस पर लाल-पीला हुआ जाए। आपको ऐसा नहीं लगता कि किन्हीं नतीजों पर पहुंचने और टिप्पणी करने में कुछ जल्दबाजी हो गई है? आप से शालीन और स्थिरता वाले जवाब की अपेक्षा थी। कहीं भी आपको जानबूझकर छेड़ा या उधेड़ा जा रहा है, ऐसा मुझे तो नहीं लगा।
पर क्या कहूं, हो सकता है आप सच कह रहे हों? मैं ही मूर्ख हूं। कुछ भी नहीं जानता। न राजनीति, न पासपड़ोस, न साहित्यिक जमात, न चुटकुले। कुछ भी नहीं जानता। लानत है मुझ पर। मनुष्यनुमा पत्रकार होने के नाते सब पता रहना चाहिए मुझे। पर ...

Ashok Pande said...

By the way, I had activated moderation on this blog just for a couple of days when some people began to use unnecessarily abusive language. And this was done a few months back.

I had expected a much more mature and sane person inside you.

अभिषेक मिश्रा said...

ये हमारे महान लेख़क हैं. मवालियों के सरदार से पुरुस्कृत होते हुए इन्हें शर्म नहीं आती.आलोचना के प्रति इनकी सहिष्णुता इतनी है कि एक हिन्दुत्ववादी गुंडे के तलवे चाटने के बाद हिंदी समाज को जातिवादी ब्राह्मणवादी और पिछड़ा होने के लिए गरियाने लगते हैं. हत्यारों से सम्मानित होने को एक वैयक्तिक और पारिवारिक जिम्मेदारी बताते हैं.
प्रश्न उठाते हैं कि हिंदी समाज में गाँधी और भगत सिंह क्यों नहीं पैदा हो पाए.
शायद इन्हें लगता है कि 'हिन्दू ह्रदय सम्राट' इसकी कमी पूरा करेंगे.
या शायद इन्हें लगता है कि वह डोमाजी उस्ताद एक महान सर्वाहारा नेता है जो साडी दुनिया से मेहनतकशों का हिस्स मांगने को निकला है.
हम ऐसे महान लेखकों को उनकी औकात क्यों नहीं बताते ?
--
--
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते,
उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कवितायें पढ़ी थीं,
भई वाह !
उनमे कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण
मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान्
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलबन
हाय हाय !!
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय.
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ़ उभर आया है
छुपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आए हैं,
यहाँ शोभा-यात्रा है किसी मृत्यु दल की

प्रीतीश बारहठ said...

bahut dino bad aya hu. Aakhen Khulti ja rahi hai, kanhi fat hi na jayen. kucha dino pahale kisi blog par maine Udayji ke bare men kuchh(bheed se alag nahi mana tha)kah diya tha, bas kisi tarah se bach gaya, fad hi nahi khaya gaya. Ghabrahat ho rahi ab pata nahi kitne Udar prakashon ka parichay milega.

he ram, he ram, he ram!

मुनीश ( munish ) said...

जिस किस्म की भाषा का प्रयोग साहित्यकार उदय प्रकाश ने आपके विरुद्ध किया है वो नितांत निंदनीय है . इस प्रकार की ज़ुबान का इस्तेमाल निहायत गैर वाजिब और शर्मनाक है , ये मैं तब कहता हूँ जब की इसके या उसके साहित्य -फाहित्य से मेरा कोई लेना-देना नहीं है !

Uday Prakash said...

चलिए मैं खुद आपके ब्लाग में आकर अपनी भर्त्सना करता हूं, जिससे आप सबको शांति मिले। लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता कि मेरे जैसे दर ब दर, लांछित, अपमानित स्वतंत्र लेखक के प्रति आदित्यनाथ का व्यवहार , जिसे आप 'हत्यारा' कह रहे हैं, अधिक गरिमापूर्ण और शालीन नहीं था? और अशोक जी, 'सरगना' मैंने आपको नहीं कहा था। खुश रहें और मेरी ओर से अपने जीवन के लिए ढेरों शुभकामनाएं स्वीकार करें।

Unknown said...

गरिमापूर्ण और शालीन व्यवहार से गदगद उदय प्रकाश,

योगी आदित्यनाथ का कोई दोष नहीं, उन्हें अभी बीच में न लाएं। वे जिसे चाहे उसे सम्मान देंगे। इसका उन्हें पूरा अधिकार है।

सवाल आपसे था कि आपने लेने क्यों गए। लिया क्यों। क्या घरेलू आयोजनों को प्रेस में छपवाया जाता है। इसके जवाब में आउल-फाउल बकने लगे। अगर आपका सांप्रदायिकता, कट्टरपंथ, धार्मिक दंगों को लेकर नजरिया बदल रहा है तो इसे स्वीकार करने में क्या हर्ज है।

अशोक पांडे को नहीं तो किसे आपने इलाकाई जातिवादी नेक्सस का कुत्सित सरगना कहा था। इसे कृपया पहले स्पष्ट करें।

हमारी शांति के लिए कृपया आप परेशान न हों। "पाखाने" में भला कब शांति रही है।

चंद्रभूषण said...

उदय जी को भले ही ऐसा लगता हो, लेकिन आम हिंदीभाषियों के बीच वे लांछित, अपमानित नहीं, अपनी भाषा के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और सम्मान प्राप्त लेखक हैं। बतौर पत्रकार मेरी भी योगी आदित्यनाथ से कम से कम दो बार बात हुई है। और बात करना उन्हें आता नहीं, इसके बावजूद धंधे की जरूरत से मुझे शायद आगे भी उनसे बात करनी पड़े। यह सब जिस तरह मेरी जिंदगी का हिस्सा है, वैसा ही उदय प्रकाश के साथ भी हो सकता है। इसके आधार पर उनके बारे में कोई वैचारिक निष्कर्ष निकालने के लिए कम से कम मैं तो तैयार नहीं हूं। लेखन और चिंता के अनेक मुद्दों पर उदय प्रकाश से मेरा तीखा विरोध हो सकता है लेकिन योगी के साथ मंच शेयर करने या किसी कारण उनसे पुरस्कृत होने को मैं इस सूची में सबसे निचली जगह ही देना चाहूंगा। इतना कह-सुन लेने के बाद अनिल यादव और अशोक पांडे के लिए उदय प्रकाश द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों पर मैं कड़ा एतराज जताता हूं। उदय जी अगर इन दोनों लोगों के बारे में नहीं जानते तो जान लें, क्योंकि अपने-अपने दायरे में इनका योगदान भी कुछ कम नहीं है। और जहां तक सवाल लेखन की ईमानदारी का है तो इस मामले में ये बहुतों से बहुत आगे हैं। सख्त से सख्त, तीखी से तीखी बहस का स्वागत है, लेकिन इसके लिए मोटिव इंप्लांट करना जरूरी नहीं है। बातें खुलकर होनी चाहिए लेकिन आगे और बात होने की जगह भी बनी रहनी चाहिए।

शिरीष कुमार मौर्य said...

इस पोस्ट से यक़ीन और गर्व हुआ कि अशोक दा अब भी अशोक दा है.... पंकज श्रीवास्तव, अनिल यादव और सभी हमखयाल मित्रों को मेरा सलाम!

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

हिंदी लेखकों में अपनी दयनीयता का बखान करने का जो अजीब रोग है, अफसोस कि उदयप्रकाश भी उससे अछूते नहीं पाये गए. अपने पुरस्कार लेने को उचित ठहराने के लिए दयनीयता को ढाल बनाने की तो कोई ज़रूरत नहीं थी. और यह भी कि उदयप्रकाश जैसे समर्थ लेखक से बेहतर अभिव्यक्ति की भी उम्मीद करता था और करता हूं.

इरफ़ान said...

Uday Prakash ne jin shabdon mein Ashok aur kabadkhana ke sathiyon ke baare mein likha hai usey padhkar main hairan hun.Is silsiley mein Udayji ko tathya rakhne chahiye aur sweekaar karna chahiye ki chook hui hai.
Main is baarey mein sari posts nahin padh saka hun lekin jo sasrsari taur par lagta hai wo ye hai ki sare Demigods ki parikshayein honi chahiye aur is kaam ho hum hi kareinge.

इरफ़ान said...

Uday Prakash ne jin shabdon mein Ashok aur kabadkhana ke sathiyon ke baare mein likha hai usey padhkar main hairan hun.Is silsiley mein Udayji ko tathya rakhne chahiye aur sweekaar karna chahiye ki chook hui hai.
Main is baarey mein sari posts nahin padh saka hun lekin jo sasrsari taur par lagta hai wo ye hai ki sare Demigods ki parikshayein honi chahiye aur is kaam ho hum hi kareinge.

इरफ़ान said...
This comment has been removed by the author.
मिहिर said...

Udai ji, hairaan hoon. Jadui chamakti bhasha ka tilism itna dikhavti khokhla hoga, sochna bhi mushkil hai. Bhai Anil yadav shabashi ke hakdaar hain.

मिहिर said...

Udai ji, hairaan hoon. Jadui chamakti bhasha ka tilism itna dikhavti khokhla hoga, sochna bhi mushkil hai. Bhai Anil yadav shabashi ke hakdaar hain.