मित्रों के आग्रह पर मैं आखिरी पोस्ट लिख रहा हूं। मेरी तरफ से यह विवाद खत्म। सदा के लिए पटाक्षेप। जिस "चीज" पर भरोसा करके मैने ... के हिंदू वाहिनी के नेता योगी से सम्मान लेने पर सवाल उठाया था, उस चीज की जगह शून्य है। खोखल, निर्वात। शर्मिंदा हूं कि गलत जगह, एक अश्लील सवाल उठाया था। खोखल के भीतर क्या है, अब नहीं सोचना चाहता।
क्यों?
यह यथार्थ का जादू है।
नाटक से भी नाटकीय। सस्वर कपट हंसी और रुलाई के लंबे अलाप से बांधी गई लोककथाओं से भी दिलफरेब।
यह जीवन है।
सारी दुनिया के लेखकों ने इसकी चाल की फोटो उतारने की हर हद से आगे जाकर जानलेवा कोशिशें की हैं। उनकी अनुभूति का कैमरा 'रामकै' हो गया और वे खुद सिजोफ्रेनिक 'कखले' हो गए लेकिन वे उसकी कानी उंगली की जुंबिश भी नहीं पकड़ पाए।
सपने में भी नहीं सोचा था, ऐसा भी दिन आएगा कि ... ... के बजाय योगी की दिल से प्रशंसा करनी पड़ेगी।
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मुझे मालूम है कि हम ऐसे धुंधले, जालसाज समय में जी रहे हैं जब देश के सवा सौ शासक खानदान एक साझा मकसद के लिए धार्मिक कट्टरपंथियों (सांप्रदायिकों) और सेकुलरों के बीच का फर्क लगभग मिटा चुके हैं। ये दोनों जैसे एक ही धड़ पर उगे दो चेहरे बन गए हैं। राजनीतिक सत्ता की मलाई सामने होती है तो सारे सेकुलर सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के 'पवित्र' उद्देश्य से सरकार में शामिल हो जाते हैं। जब सांप्रदायिक शक्तियों के साथ मलाई काटनी होती है तो वे देश को एक और चुनाव के बोझ से बचाने का अहसान कर डालते हैं।
खुद सांप्रदायिक जब सत्ता में आते में हैं तो चिरकाल तक राज करने की लालसा में पिघल कर पंथनिरपेक्ष होने लगते हैं सत्ता से बाहर होते ही फिर कीर्तन मंडलियां सजतीं हैं और चिमटे बजाता उग्र हिंदुत्व का जगराता प्रारंभ हो जाता है। तथाकथित सेकुलर भी महीन ढंग से चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए मुस्लिम, ईसाई या हिंदू कार्ड खेलने से परहेज नहीं करते। जाति का खुला कार्ड तो खैर सनातन है। चुनावी राजनीति की चंद्रकांता संतति में ये दोनों ऐयारों की तरह बाना बदल कर मतदाता को छलते रहते हैं।
सेकुलर को चुनाव में टिकट नहीं मिला ... खटाक ... मंदिर बनाने लगा। सांप्रदायिक को मंत्री नहीं बनाया ... खटाक ... गंगा-जमुनी तहजीब बचाने लगा। मंत्री था, हटा दिया तो साइकिल पर सवार होकर लालटेन की रोशनी में हाथी का खरहरा करने लगा।
यूं भी कह सकते हैं कि सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष दो सोशियोलाइट, बिंदास यार हैं। हर शाम, सज-धज कर किसी न किसी पार्टी में जाते हैं। एक दूसरे के टैटू, मसल्स और चाल की तारीफ करते हैं। छक कर माल उड़ाते हैं, मौज करते हैं। नशे में बहकते, लौटते हुए सड़क पर लड़ने लगते हैं। लैंपपोस्ट के नीचे नेलपालिश वाले नाखून चमकते हैं, "कैसा सांस्कृतिक राष्ट्रवादी है तू अपना क्लब छोड़कर सेकुलरों की गे-पार्टी में गया था।"
"आय-हाय..कैसा सेकुलर है तू। अपनी उजड़ी लिपस्टिक देख। तू भी तो कट्टरपंथियों के क्वियर-कार्निवाल से लौट रहा है।" (यह दृश्य उपलब्ध कराने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट का शुक्रिया)
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राजनीति के इस विद्रूप तमाशे से कई प्रकाश वर्ष दूर भारतीय समाज में धार्मिक सहिष्णुता की प्रबल अंतर्धारा बहती है जिसके कारण ही तमाम नस्लों, धर्मों, भाषाओं और परस्परविरोधी स्वार्थों की टकराहटों के बावजूद इस देश में लोग एक साथ रहते हैं। हिम्मत के साथ हर विपदा से हर बार उबर आते है। घृणा हर बार दांत पीसती, सिर धुनती रह जाती है और जीवन मुस्काराता आगे बढ़ चलता है। इस सहिष्णुता का उत्स बिल्कुल साधारण, आम लोगों की करूणा में है। इसी करूणा की झिलमिल ... ... की रचनाओं में मुझे दिखती थी। इसी जगह खड़े होकर मैने सवाल उठाया था कि ... ... ने हिंदू वाहिनी के नेता, भाजपा सांसद योगी के हाथों सम्मान क्यों लिया?
जनसाधारण की इस करूणा को कायरता (जिस हिंदू का खून न खौला खून नहीं वह पानी है) बताकर कर योगी की पार्टी भाजपा अयोध्या से गुजरात तक उसके चिथड़े उड़ाते हुए घसीट रही थी। हर सूबे लेकर दिल्ली तक खून की लकीरें और घसीट के निशान अभी मिटे नहीं हैं। आजकल भ्रम और कलह का काल है। कल क्या होगा पता नहीं। लेकिन योगी के उग्र, रौद्र हिंदुत्व के आगे भाजपा भी हर चुनाव से पहले पनाह मांग जाती है। पूर्वांचल में वही होता है जो वे चाहते हैं।
... ... का पछतावानामा आयाः"मैं सच्चे मन से अपने उन पाठकों और प्रशंसकों से क्षमा मांगता हूं, जिन्हें मेरे इस पारिवारिक आयोजन के राजनीतिक संदर्भॊं को समझ पाने में मुझसे हुई भूल के कारण ठेस पहुंची है।"
लेकिन खुद योगी ने ... ... को "राजनीतिक संदर्भ" समझाने की कोशिश की थीः
यहां मैं तमाम वैचारिक विरोध के बावजूद योगी की सदाशयता, साफगोई, दूरदर्शिता और ... ... की खास लेखकीय इमेज की गहरी समझ की प्रशंसा करता हूं। उसे बचाने की फिक्र की तो और भी ज्यादा।
"इस समारोह में जाने से पहले मैने खुद आगाह किया था कि ... ... जी को कठिनाई हो सकती है लेकिन एक निजी (संदर्भ किसी परिवार का नहीं, गोरखनाथ पीठ के अपने कालेज का) समारोह मानकर चला गया था।"
यानि आप तब भी नहीं समझ पाए। ...(?)
फिर बचा क्या।
किसी से भी कोई शिकायत नहीं बची। गालियों, धमकियों का क्या, वे तो पहले भी इफरात में मिलती रहतीं थीं। अब मुझे कुछ नहीं कहना है। मेरे लिए यह विवाद सदा के लिए खत्म हो चुका है। कुछ जानने की इच्छा ही नहीं बची।
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(इस बहस में ... ... की सादगी और सरलता से विचलित होकर कूदे उनके तमाम मुखर समर्थकों (जो स्वाभाविक ही था) और ऐसा हंगामाखेज मौका पाते ही अपनी कुंठाओं को पंख बनाकर उन्मादी उड़ान भरने वाले मौसमी फतिंगों से जरूर पूछना चाहता हूं कि जब योगी आपके प्रिय लेखक को को आसन्न कठिनाई से आगाह कर रहे थे तब विरोध पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले तथाकथित ईर्ष्याग्रस्त "रंगे सियार", तथाकथित सामूहिक "पाखाने" के निवासी धूर्त कबाड़ी, वह जातिवादी नेक्सस का हवस का मारा तथाकथित सरगना, उनकी कीर्ति के सुनहरे घेरे में घुस कर थोड़ी देर के लिए हुस्यारी से खुद को चमकाने की दयनीय हरकत करने वाला यह तथाकथित "जातिवादी" कर्मचारी... और इनके गुमराह करने पर आपके प्रिय लेखक के भविष्य को जीने के लायक नहीं रहने देने का षडयंत्र करने वाले मेरे देखे-अनदेखे दोस्त लोग सब कहां थे?
काश, पांच जुलाई को उस निर्णायक क्षण वे गोरखपुर में होते तो वे सभी योगी की 'चिंता' से सहमत होते और हिंदी के 'कानटूटे प्याले' में यह तूफान न खड़ा न होने पाता।
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(कबाड़ी साथियों से माफ़ीनामे के साथ सरगना का निवेदन: भाई अनिल यादव की यह एक महत्वपूर्ण पोस्ट है - मैं दोबारा कह रहा हूं बहुत ज़रूरी पोस्ट - इस ख़ौफ़नाक प्रकरण पर हमारी तरफ़ से अब अन्तिम! . कृपया इसे कल पूरे दिन भर लगे रहने दें. कष्ट के लिए क्षमा साथियो! - अशोक पाण्डे.
पुनश्च हाहाहाहा: नीचे लगी तस्वीर मैं लगा रहा हूं अनिल नहीं. पढ़ने के लिए क्लिपिंग पर क्लिक करें)
(साभार : अमर उजाला, २० जुलाई २००९)
12 comments:
अभी कुछ देर पहले यह पोस्ट देखी और 'बिहारी सतसई' का ध्यान करने लगा. कई कहानियाँ - सी याद - सी आके रह गईं है. अधिक नहीं अभी तो गागर में सागर भरने का कारनामा ( जादू ...!) करने वाले महाकवि बिहारी का एक दोहा और एक सोरठा -
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ.
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ.
और-
मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काँचो काँच सो.
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ.
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भाई ,आज सुबह से ही मुझे अच्छा - अच्छा , सधा - सधा गद्य पढ़ने को क्यों मिल रहा है !
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चलो अब धूल - मट्टी डालो इस प्रकरण पर.
और -
गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम.
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जय हो
आई मौज फ़कीर की
दिया झोंपड़ा फूंक!
डाल दई मट्टी!
सियाबर रामचन्नर जी की पुनः जैकारी होबे!
मीर बाबा तो साहेबान. यूं कह गए:
आंख मस्ती में किसू पर नहीं पदती उसकी
ये भी उस सादा-ओ-पुरकार की हुसियारी है
रोइए ज़ार ज़ार क्यों
कीजिए हाय हाय क्यों.
... ... (नाम अच्छा है) का पतन उतना गंभीर नहीं है जितना वामपंथी कतारों के कई बड़े नामों का हुआ है. पाल राबसन को शिल्पी संग्रामी बताने वाले, डोला हे डोला और बुड़ा लोहित जैसे जन-गीत गाने वाले भूपेन हज़ारिका ने तो अपनी राजनीतिक वल्दियत को सरेआम नकारते हुए संसदीय सीट के लिए संघ का पिछवाड़ा चाट लिया और गोहाटी से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हो गए.
मैं अपने एक अग्रज और मित्र का नाम भी यहाँ ले सकता हूँ जिन्होंने 84 में सिख क़त्लेआम के कुछ ही साल बाद इसके एक अभियुक्त हरकिशनलाल भगत के हाथों एक पुरस्कार प्राप्त करने में कोई हिचक नहीं दिखाई. ये भी ... ... की तरह एक ड्राप आउट मार्क्सिस्ट रहे जो उन दिनो उत्तर-आधुनिकता के इश्क़ में ग़ाफ़िल थे.
ऐसे और भी हैं. अस्तु, एक मुट्ठी मिट्टी मेरी ओर से भी -- पूरे विवाद पर.
आप बडे लोग मिट्टी-मिट्टी खेल सकते हैं। मैने डाली तुझपे(मे)तु मुझपे(मे)डाल … मिट्टी क तन मेरा भी, योगी क भी और भगत क भी। पर मै क्या करूं? जिसकी सारी आस्था हिल गयी है? जिसे लगता है कि यही दुनिया है तो फ़िर्…
आप देखिये इस पूरे मसले का तीन लोगों द्वारा किस तरह वामपंथ को कोसने के लिये उपयोग किया गया है। उदय (मुझमे … की शर्म नहीं) योगी से सम्मान ले आये पर वो महान कि इतिहास देखिये, लेखकीय क़द देखिये, आपने सवाल उठाया तो आप जातिवादी,फासीवादी,फिदायीन और माओवादी( यह सब मोहल्ला पर कोई अग्यातकुलशील अजय कह गये हैं जिनका दावा है कि वह पन्द्रह साल उदय जी के साथ काम कर चुके हैं) हैं…आपका इतिहास छोडिये वर्तमान भी गया भाड में।
और कौन लोग हैं इस महान कर्म को जस्टिफ़ाई करने वाले? एक चुका हुआ साहित्यकार जो आलोचक से नेमड्रापर में बदल चुका है और पतन के इतने पडाव पार कर चुका है कि अब उसके लिखे को गंभीरताअ से बस वही लेता है जो लिखवाता है,जिसे अपनी वहां उपस्थिति छुपाने के लिये साक्षात्कार जैसा बहाना गढना है।
दूसरा जिस पर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं - एक कोल्ड ब्लडेड हत्यारा
और तीसरा- भोजपुरी का व्यापारी…संघ के प्रिय, जातिवाद के पुरोधा ब्राह्मण शिरोमणि विद्यानिवास(विनाश)मिश्र का स्वघोषित चेला,जिसका साराअ भोजपुरी धंधा ऐसे समर्पणो से ही चलता है।
कुंअर साहब को ऐसे वक़ील मिलेंगे कब सोचा था? पर अगर हमारा उदय प्रकाश दो पेग अंदर कर एक बार सच्चे दिल से सोचेगा तो उसे एहसास होगा कि इस सम्मान के बाद उसने किन्हें खोया है और किन्हें पाया है। हमारे लिये तो बस उसकी एक सच्ची सारी और उस सम्मान की वापसी चीयर्स बोलने के लिये काफ़ी है।
जिससे उम्मीद होती है उससे दुख होता है। नायक नट बन जाये तो दिल दुखता है भाई।
Mitron, Satta-pratisthanon se fayda uthane ke liye kuch samjhote karne padte hain...aap log itni si baat nahin samajh rahe. Samjhote agar na kiye jayen to rutba kaise bana rah sakta hai. Hum is galatfahmi rahe ki ek kavi aur kahanikar behad samvedansheel aur vinamra hota hai...lagta hai Muktibodh ke baad kaviyon ki aise pahchaan nahin rahi...ab kavi pratishodh lene ki baat karte hain...ve apne aalochokon ko dekhna nahin mangte aur sahishnuta ki kenchul ve kab ke utaar chuke hain...ve bahut shatir ho chuke hain aur jaante hain ki kaise ek aur pathokon ko naitikta, usoolon aur sadgi bhara nishkapat jeevan jine ko prerit karti kavitaen likhi jayen aur kaise pichle galiyaron se nikal takatwar aakaon ke charanon mein apna sabkuch nyachawar kar aayen...
Anil ki ek imandar abhivaykti ko sajish batakar aur is blog ke sargana ko uski himakat ka jawaab dene ki dhamki dekar... ...ne apne us roop se hamara parichay karvaaya hai jo unke behad ekant chanon mein sakriya hota hoga...ve ab is sajish ka jawaab dene ko manthan karte rahen aur phir ek din apna shabdon se khelne ka hunar dikhate hue ek behad karunik post laga den...kya fark padta hai...darjono aam pathak unke paksh mein khade ho jayenge...aur ve khush hokar unhe is vikat ghadi mein saath dene ko dhanyawad denge...aise hi chalta rahega...Ashok tu ab apne anuwaad ke kam pure kar...mein bhi kuch likhta-padta hoon...Anil se kahoonga ki nirash to mati hona...bahut kuch to hua hi hai...main hi ... ... bare main is tarah to nahin sochta tha...unke kiye aisa likhoonga ye baat kabhi akalpniya thi...Mitron chalo hum ab haqeekat mein jiyen.
अनिल भाई
आपके इस लेख के लिए साधुवाद। उम्मीद है भविष्य में होने वाली किसी भी आन-लाईन डिबेट के लिए यह मामला नजीर बनेगा। अपने लेख के पहले भाग में आप ने जो कहा उसके हर शब्द से सहमती है। उसके पक्ष में खड़े होने की कोई भी कीमत चुकाई जा सकती है।
लेकिन आप ने एक ऐसी बात की है जिसके आप से उम्मीद न थी। आप हमेशा ही बोल्ड तरीक से लिखते रहे हैं लेकिन इस बार आपने अजीब सी गोल-गोल भाषा में सरल अमूर्तीकरण करके कुछ लोगों से सवाल पूछे हैं। मुझे लगता है कि हमारे सवाल साझा हैं इसलिए आप मुखर हो कर सवाल पूछिए और लोग जवाब दें।
भाई एक दूसरी जरूरी बात,
आप को योगी की कही एक बात, कि उसने उदय प्रकाश को मना किया था.......ब्ला....ब्ला....ब्ला..... पर यकीन है तो उसके पीछे जरूर कोई ठोस वजह होगी ?!!
लेकिन मैं योगी की कही दूसरी बात,
जो उसने वामपंथ के बारे में बका है,
उसके सख्त खिलाफ हूँ, यहाँ पर ढेरांे सीनियर वामपंथी मौजूद हैं इसलिए उनसे उम्मीद है योगी जैसों के इस खटराग को एक मुक्कमल और ठोस जवाब देंगें।
मैं भी योगी या ब्लाग में सक्रिय उनके भेदियों से जरूर पूछना चाहुंगा कि वो कौन सी अच्छी बात है जिस पर वो वामपंथियों का समर्थन चाहते हैं। गुजरात या मऊ दंगा या कोई और गुप्त और खास मिशन ??
खैर धर्म के दुर्गम किले में छिप कर बैठे योगियों से मेरा ताउम्र साबका रहने को है.....क्या करिएगा....रोजी रोटी का सवाल है भाई........
भारतीया कल्चर क्या है और कौन कितना फालो करता है.....योगी जीवित रहे तो इसका जवाब जरूर ही पाएंगे..............
योगी नेट सर्फिंग या ब्लागिंग करते है कि नहीं नहीं पता !!
करते हों तो ठीक गर नहीं करते हों ता उनके चेले उन तक यह सूचना पहुँचा दे कि,
दुनिया भर में रिलीजियस स्टडी में काम कर रहे अध्ययनकर्ता पवहारी बाबा,रमन महर्षि, योगी अरविन्द, विवेकानन्द, योगानन्द, स्वामी रामतीर्थ या स्वामी शिवानन्द के बजाए भारतीय योगियों को समझने के लिए इन महंत आदित्य नाथ (या जो भी नाथ हों मुझे ठीक से नाम नहीं पता) के ऊपर रिसर्च करने लगे तो भारत और इसके विश्वविख्यात योग और योगियों की बड़ी सी नाक कटने में उतना वक्त भी नहीं लगेगा जितने वक्त में महंत ने योगसिद्ध जहरबुझी जबान हिला कर वामपंथियों को कोसा है। महंत अब भी संभल जाए और अपनी चित्तशुद्धि के उपाय कर लें तो भारत की इज्जत बच जाएगी। जो जा चुकी है उसके तो अब जाने ही दीजिए !!
महंत को वामपंथ के नाम से परहेज है तो वो मैंने जिन योगियों का ऊपर नाम लिया है उन्हीं को पढ़ लें। कुछ विचारशुद्धि तो हो ही जाएगी। आखिरकार, उम्मीद पर ही दुनिया टिकी है....
अनिल यादव जी ने इस प्रकरण पर जो पहली पोस्ट लिखी थी और अब उनकी यह पोस्ट------इस बाबत जो कुछ भी अब तक लिखा गया है ; उसके सर्वश्रेष्ठ , यादगार और दुर्लभ हिस्सों में-से है . यह साबित करता है कि उनकी राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धता , उनके कलात्मक और सौन्दर्यात्मक बोध , जोखिम उठाने और सही वक़्त पर सच कहने की उनकी निष्ठा , साहस और युयुत्सा का कोई सानी नहीं है . इसीलिए वह जो कुछ भी लिखते हैं ; वह एक साथ वस्तुनिष्ठ, सुन्दर , मार्मिक , प्रभावशाली और अमूल्य होता है . उनके साथ-साथ अशोक पांडे , पंकज श्रीवास्तव , सुंदरचंद ठाकुर और अशोक कुमार पांडे (ग्वालियर ) को मैं इस मामले में लगातार सार्थक , प्रतिबद्ध और साहसिक वैचारिक स्टैंड लिये रहने की बधाई देता हूँ . राजेश जोशी जी ने जो बात कही है , वह सबसे मानीखेज़ है कि 'मार्क्सवाद के ड्रॉप-आउट्स------जिनका नया शग़ल उत्तर-आधुनिकता है'--------किसी से भी सम्मान या पुरस्कार ले सकते हैं और अपने इस कृत्य को जायज़ भी ठहरा सकते हैं . प्रसंगवश, यही बात प्रणय कृष्ण ने भी इसी सन्दर्भ में 'अमर उजाला ' के इलाहाबाद
संस्करण में प्रकाशित अपने आलेख में कही है .
----------पंकज चतुर्वेदी
कानपुर
योगी का बयान आने के बाद `महान` लेखक और उसके समर्थकों के पास शायद कुछ भी कहने को बचा नहीं हो. लेकिन ऐसा नहीं है. हकीकत तो पहले दिन से ही साफ़ है और मूर्ख, धूर्त व् साम्प्रदायिक टोले ही `महान`लेखक की आरती में जुटे रहे हैं. ये सही ही है कि योगी इस `महान`लेखक से कहीं ज्यादा स्मार्ट और `ईमानदार` साबित हुआ.
- `महान लेखक` अपनी यंत्रणा और सो न पाने का रोना तो अब भी रो सकता है. हालाँकि
जीवित लोगों पर सनसनीखेज कहानी लिखकर उन्हें यंत्रणा देना उसका खुद का शगल रहा है.
-बीच का एक पैरा बेहतरीन लिखा होने के बावजूद इस जगह मुझे गैरजरूरी लग रहा है. यह सच होने के बावजूद लगभग इसी तर्क के साथ `महान` लेखक और उसके प्यादे अपनी करतूत को जायज या बहस को बेमानी और साजिश करार देने की कोशिश कर रहे थे.
-बीमारी पुरानी है और अब खासी ताकतवर हो गई है, इससे लड़ाई तो जारी रहेगी ही.
अनिल यादव जी ने इस प्रकरण पर जो पहली पोस्ट लिखी थी और अब उनकी यह पोस्ट------इस बाबत जो कुछ भी अब तक लिखा गया है ; उसके सर्वश्रेष्ठ , यादगार और दुर्लभ हिस्सों में-से है . यह साबित करता है कि उनकी राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धता , उनके कलात्मक और सौन्दर्यात्मक बोध , जोखिम उठाने और सही वक़्त पर सच कहने की उनकी निष्ठा , साहस और युयुत्सा का कोई सानी नहीं है . इसीलिए वह जो कुछ भी लिखते हैं ; वह एक साथ वस्तुनिष्ठ , सुन्दर , मार्मिक , प्रभावशाली और अमूल्य होता है . उनके साथ-साथ अशोक पांडे , पंकज श्रीवास्तव , सुंदरचंद ठाकुर और अशोक कुमार पांडे (ग्वालियर ) को मैं इस मामले में लगातार सार्थक , प्रतिबद्ध और साहसिक वैचारिक स्टैंड लिये रहने की बधाई देता हूँ . राजेश जोशी जी ने जो बात कही है , वह सबसे मानीखेज़ है कि 'मार्क्सवाद के ड्रॉप-आउट्स------जिनका नया शग़ल उत्तर-आधुनिकता है '--------किसी से भी सम्मान या पुरस्कार ले सकते हैं और अपने इस कृत्य को जायज़ भी ठहरा सकते हैं . प्रसंगवश, यही बात प्रणय कृष्ण ने भी इसी सन्दर्भ में ' अमर उजाला ' के इलाहाबाद
संस्करण में प्रकाशित अपने आलेख में कही है .
----------पंकज चतुर्वेदी
कानपुर
उदयप्रकाश प्रकरण ने यथार्थ, राजनीति, प्रतिबद्धता और साहित्य के सवाल को एक बार फिर बहस्तलब बना दिया है. क्या आपकी साहित्यिक सँवेदनाऐँ कुछ और कहती हैँ तथा आपके व्यवहारिक क्रियाकलाप कुछ दूसरी दिशा की और इशारा करते है. यदि आपके साहित्य की सँवेदनाऐँ आपके आचरण मेँ परिवर्तन नही ला सकती है तो भला पाठकोँ मे क्या बदलाव ला पायेंगी..क्या आप भी साहित्य को मात्र शव्दो की कारीगरी मानते है..क्या आज़ का हर साहित्यकार सिज़ोफ्रेनिया से पीडित है? या हम जैसे पाठक ही साहित्य को कुछ ज़्यादा गम्भीरता से लेने लगे है.
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