मुद्दा थोड़ा पुराना ज़रूर है मगर अप्रासंगिक नहीं. इसीलिए कबाड़ख़ाने के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है. नेपाल में जिन परिस्थितियों में कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहाल 'प्रचण्ड' ने इस्तीफ़ा दिया उससे एक बड़ी बहस शुरू हुई. यहाँ आनंद स्वरूप वर्मा नेपाल में माओवादियों की सफलता या असफलता की बजाए आपका ध्यान दिल्ली के हिंदी अख़बार और उनके संपादकों की विद्वता की ओर खींचना चाह रहे हैं. पढ़ा जाए.
नेपाल की घटनाओं पर भारतीय मीडिया का रुख अत्यंत शर्मनाक और हास्यास्पद रहा. अखबारों और खास तौर पर हिन्दी अखबारों की संपादकीय टिप्पणियों को देखकर हैरानी होती है और विश्वास नहीं होता कि इतने साहस के साथ कोई कैसे अपनी अज्ञानता को जनता तक पहुंचाता है. आम तौर पर इन टिप्पणियों में यह कहा गया कि प्रचण्ड अपनी जनमुक्ति सेना के ‘लड़ाकुओं’ को नेपाली सेना में भर्ती कराना चाहते थे जिसे कटवाल ने मना किया और फिर प्रचण्ड ने उन्हें बर्खास्त कर दिया.
जाहिर है कि अगर किसी पाठक को यह बात बतायी जा रही हो तो वह कटवाल के पक्ष में खड़ा होगा और प्रचण्ड की इस बात के लिए भर्त्सना करेगा. उसे राष्ट्रपति द्वारा उठाया गया कदम भी अत्यंत तर्कसंगत और न्यायोचित लगेगा. इन संपादकों ने यह बताने की जरूरत नहीं महसूस की कि जनमुक्ति सेना के सैनिकों को राष्ट्रीय सेना में शामिल किए जाने का मामला प्रचण्ड अथवा उनकी पार्टी नेकपा (माओवादी) का मामला नहीं है बल्कि यह नवंबर 2006 में सम्पन्न उस विस्तृत शांति समझौते का महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसके आधार पर राजनीतिक घटनाक्रमों का क्रमश: विकास होता गया.
कहने का अर्थ यह कि शांति प्रक्रिया का यह एक महत्वपूर्ण अवयव है. इन संपादकों ने यह भी बताने की जरूरत नहीं महसूस की कि माओवादियों और सरकार के बीच हुए इस शांति समझौते में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि न तो माओवादी और न सरकार तब तक अपनी सेनाओं में कोई नयी भर्ती नहीं करेंगे, जब तक दोनों सेनाओं का एकीकरण नहीं हो जाता. इसका उल्लंघन करते हुए कटवाल ने नेपाली सेना में 3000 लोगों की भर्ती की. दोनों सेनाओं की मॉनिटरिंग करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘अनमिन’ (यूनाइटेड नेशन्स मिशन इन नेपाल) ने प्रधानमंत्री को लिखा कि सेना में नयी भर्तियों को वह रोकें. प्रधानमंत्री ने अपने रक्षामंत्री के माध्यम से कटवाल को इस आशय का निर्देश दिया जिसे मानने से उसने साफ तौर पर मना कर दिया. इस तरह की 5-6 घटनाएं हुई जहां कटवाल ने सरकारी आदेशों की अवहेलना की.
सबसे मूर्खतापूर्ण संपादकीय ‘जनसत्ता’ में देखने को मिला. इसमें बताया गया था कि चूंकि प्रचंड अपने ‘हथियारबंद दस्ते के लोगों’को सेना में शामिल नहीं करा सके इसलिए उन्होंने कटवाल को बर्खास्त कर दिया. इसमें आगे कहा गया है कि “सेना का स्वरूप अपनी मर्जी के मुताबिक ढालने की उनकी जिद को स्वीकार नहीं किया जा सकता था. वरना कल वे यह भी कहते कि वे जो ‘जन अदालतें’ चलाते थे उनके‘न्यायाधीशों’को न्यायपालिका में जगह मिले. राज्यतंत्र के अपने उसूल, नियम और तकाजे होते हैं. कोई पार्टी या सरकार जब इनकी अनदेखी करती है तो निरंकुशता का खतरा पैदा होता है.”
‘दैनिक हिन्दुस्तान’ ने 5 मई 2009 को इस घटना पर जो संपादकीय लिखा उसका शीर्षक था– ‘प्रचंड अराजकता’. इसमें उसने लिखा – “... इस घटनाक्रम ने यह जता दिया है कि गुरिल्ला लड़ाई के लिए अपनाये गये ‘प्रचंड’ उपनाम छोड़कर सौम्य जननायक बनने की उनकी कोशिश दिखावटी थी और चीन व माओवादी दबावों के चलते वे नेपाल को सही नेतृत्व दे पाने में नाकाम रहे हैं. हिंसा और अधकचरी राजनीतिक शिक्षा के साथ महज 20 साल में माओवादी क्रान्ति की महत्वपूर्ण मंजिल पा लेने का भ्रम उन्हें अपने देश और अड़ोस पड़ोस की जमीनी हकीकत समझने नहीं दे रहा था. वे हर कीमत पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के सदस्यों को सेना में भर्ती करने पर आमादा थे.” संपादकीय में यह तो स्वीकार किया गया है कि युद्ध विराम समझौते में दोनों सेनाओं का एकीकरण शामिल था और सेनाध्यक्ष इन बातों को मानने के लिए तैयार नहीं थे. बावजूद इसके सेनाध्यक्ष की बर्खास्तगी को संपादक ने प्रचंड की ‘अराजकता’ घोषित किया.
नेपाल के संदर्भ में काफी विचार विमर्श के बाद वहां की सरकार ने और सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर माओवादियों के साथ यह समझौता किया कि दोनों सेनाओं का एकीकरण किया जाएगा.
‘दैनिक जागरण’ ने लिखा कि “कोई भी सेनाध्यक्ष यह स्वीकार नहीं करेगा कि कल तक हिंसा और उपद्रव का खेल खेल रहे लोग सेना का अंग बन जायं.”
‘दैनिक भास्कर’ ने भी माना है कि “सेनाध्यक्ष ने इसका ठीक ही विरोध किया क्योंकि यह सेना के राजनीतिकरण की निकृष्ट कोशिश थी.”
जाहिर है कि इस संपादक को भी जानकारी नहीं है कि सेनाध्यक्ष जिस बात को मानने से इनकार कर रहे थे वह एक राजनैतिक फैसला था और शांति समझौते का महत्वपूर्ण हिस्सा था. ‘राष्ट्रीय सहारा’ का मानना है कि सेना में जनमुक्ति सेना के जवानों को समायोजित कराने के जरिये प्रचंड “अपना राजनीतिक लक्ष्य साध्ने” की उम्मीद कर रहे थे. इसके बाद संपादक ने एक चेतावनी दी है-“प्रचंड सहित सभी माओवादियों को यह समझना चाहिए कि लोकशाही में और वह भी मिली जुली सरकार में अपनी इच्छा लादना संभव नहीं और यह लोकशाही के सिद्धांतों के भी विपरीत है”.
5 मई को ही ‘आज समाज’ के संपादक मधुकर उपाध्याय का ‘नेपाल फिर बेहाल’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने लिखा कि- “... सत्तारूढ़ गठबंधन के घटक दलों के विरोध के बावजूद दहाल ने अपनी पार्टी के कहने पर सेनाध्यक्ष के नाम यह आदेश जारी कर दिया कि पूर्व माओवादी लड़ाकों को सेना में भर्ती दी जाय. सेनाध्यक्ष ने, जाहिर है, इससे इनकार कर दिया और उसकी प्रतिक्रिया में दहाल ने उन्हें पद से हटा दिया...”. इसके आगे मधुकर जी ने बताया है कि किस तरह दुनिया में कहीं भी लड़ाई खत्म होने के बाद लड़ाकुओं को सेना में नहीं लिया जाता है. उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज का भी उदाहरण दिया, जिसके सैनिकों को भारतीय सेना में नहीं शामिल किया गया. अब लेखक से कोई यह पूछे कि आपको इतना रिसर्च करने की जरूरत क्यों पड़ रही है. नेपाल के संदर्भ में काफी विचार विमर्श के बाद वहां की सरकार ने और सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर माओवादियों के साथ यह समझौता किया कि दोनों सेनाओं का एकीकरण किया जाएगा. जाहिर है कि लेखक को न तो इन समझौतों की जानकारी है और न नेपाल में दो सेनाओं के अस्तित्व की संवेदनशीलता से वह वाकिफ हैं.
‘नवभारत टाइम्स’ में संपादकीय टिप्पणी लिखने वाले को यह तो जानकारी थी कि शांति समझौते के तहत विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस शर्त को मान लिया था. इसमें यह भी लिखा गया है कि कटवाल पहले की तरह अपने लिए ‘विशिष्ट अधिकार’ चाहते थे और 'इसके लिए उन्होंने सरकार से टकराव लेने में भी गुरेज नहीं किया. यह एकमात्र ऐसा संपादकीय है जिसमें स्वीकार किया गया है कि “ कटवाल की आड़ में राष्ट्रपति और सारे राजनीतिक दलों ने माओवादियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.”
अधिकांश लापरवाह संपादकों के मुकाबले कुछ ने समस्या को गंभीरता से देखने और उसकी पृष्ठभूमि के अधययन का प्रयास किया है. ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के 5 मई 2009 के संपादकीय के इस अंश को देखें-“...हालांकि माओवादियों को इस बात के लिए दोष दिया जा सकता है कि उन्होंने जल्दबाजी में और एकतरफा ढंग से काम किया लेकिन जनरल कटवाल ने आम तौर पर नागरिक नियंत्रण तथा खास तौर पर शांति प्रक्रिया के संदर्भ में जिस गैर जनतांत्रिक रवैये का प्रदर्शन किया, वह रवैया इस संकट की जड़ में है... जिस समय राजा ज्ञानेन्द्र के खिलाफ संघर्ष अपने चरम पर था सभी राजनीतिक दलों ने सैद्धांतिक तौर पर यह स्वीकार किया कि जनमुक्ति सेना को एक सुधारी और जनतांत्रिक बनायी गयी राष्ट्रीय सेना में मिला दिया जाए. लेकिन अब, जबकि गणराज्य की स्थापना हो चुकी है और नेपाल के संविधान के बनाए जाने का काम आगे बढ़ रहा है, नेपाली कांग्रेस और यहां तक कि नेकपा (एमाले) इस मुद्दे पर पीछे हटने लगी हैं. लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान जनरल कटवाल के रुख से हुआ है.”
इसी संपादकीय में उन घटनाओं का जिक्र है जब जनरल कटवाल ने लगातार सरकारी आदेशों का उल्लंघन किया. संपादकीय ने लिखा कि “कोई भी जनतांत्रिक व्यवस्था सेना प्रमुख की इस अनुशासनहीनता को बर्दाश्त नहीं कर सकती.” इसमें इस खतरे की तरफ भी इशारा किया गया कि शांति प्रक्रिया धवस्त हो सकती है. संपादकीय ने आगे लिखा- “...एमाले और नेपाली कांग्रेस के नेता माओवादियों का विरोध करने के नाम पर इतने अंधे हो गए हैं कि उन्होंने राष्ट्रपति यादव के कृत्य की प्रशंसा की जिसने नेपाल के नवजात जनतंत्र में नागरिक-सैनिक संबंधों के लिए एक खतरनाक नजीर की शुरुआत की है.”
‘दि एशियन एज’ भी अपनी अज्ञानता का परिचय देते हुए वही राग अलापता हुआ नजर आता है जो अधिकांश हिंदी अखबारों के संपादक अलापते रहे हैं. इसने राष्ट्रपति के कदम की इसलिए सराहना की है “ क्योंकि एक सिद्धांत में मजे 20 हजार माओवादियों के सेना में प्रवेश से इस संस्था के अस्थिर होने का खतरा था.”
15 comments:
हर बड़े प्रकरण पर ऐसी विस्तृत संपादकीय समीक्षा दरकार है. बहुत उपयोगी.
नेपाल की लोकशाही क्या रंग लाएगी ...हम भारतीय भी दम साधे इसी इन्तिज़ार में है ..!! हमारे लोकतंत्र का तो पूरा कचरा हो चूका !!
मार्क्सवाद को आगे की मंजिल तक विकसित करने वाले माओत्सेतुंग पर लिखकर मधुकर उपाध्याय ने साहित्यिक चोरी का आरोप लगाया है, ऐसे में यह समझा जा सकता है कि माओवादियों से उन्हें कितनी तकलीफ है। रही बात हिंदी के दूसरे दो बड़े अखबारों दैनिक जागरण और अमर उजाला की तो इनके पास अलग-अलग विषयों पर लिखने के लिए सहायक संपादकों की टीम ही नहीं है, ऐसे में दो-एक लोग जो हर दिन संपादकीय लिखने का काम करते हैं वे माओवाद विरोध के नाम पर प्रचलित रेटरिक से ही काम चलाएंगे न। इसमें कौन सी हैरत की बात है। रही बात जनसत्ता की तो ठेके के पत्रकारों की यह पहली और आखिरी ड्यूटी है कि ओम थानवी को खुश रखें। आनंद स्वरूप वर्मा क्यों भूल जाते हैं कि थानवी ने यह आरोप लगाते हुए उन्हें छापना बंद किया था कि वर्मा जी अपने लेखों में माओवादियों का प्रचार करते हैं।
बहरहाल, हमेशा की तरह सही तथ्य पहुंचाने के लिए वर्मा जी बधाई के पात्र हैं।
Thanx for the post. It is now proved that journalism in India, specially the hindi journalism is still immature. The edit in Navbharat Times was close to the facts as Chandra Bhushan wrote it, who is a learned person and still believes in reading a lot before commenting on any subject.
तो क्यों न सारे नक्सलियों को सेना/पुलिस में भर्ति कर दिया जाय। समस्या हल हो जाएगी:)
लोकतान्त्रिक धारा में सम्मिलित पक्षों के मध्य हुए समझौतों और जनादेश का सम्मान नहीं करने वाले वर्ग के प्रति मीडिया का अंधसमर्थन किसी भी तरह से जायज नहीं है !
आपकी प्रविष्टि अच्छी लगी !
सोचिये भारत का सेनाध्यक्ष अगर प्रधानमंत्री की बात ना माने तो?
फिर लोकतंत्र की बात करने वालों का नेपाल पर दोहरा दृष्टिकोण है? साफ़ है मार्क्सवाद आज सबकी साझा एलर्ज़ी है।चाहे बंगाल का संशोधनवादी वामपंथ हो या नेपाल का क्रांतिकारी…।इन अख़बारों को बस गरियाने क बहाना चाहिये।
मीडिया पर अपनी एक पोस्ट में मैंने आशंका व्यक्त की थी आजकल के पत्रकारों और संपादकों ने सोचना-समझना और यहां तक कि पढना-लिखना भी बंद कर दिया है। वर्मा जी की यह पोस्ट उसी को पुष्ट करती प्रतीत होती है। इस पोस्ट के लिए वर्माजी का धन्यवाद और उम्मीद है वे आगे भी ऐसी पोस्ट लिखते रहेंगे। ऐसी साजिशों का पर्दाफाश बेहद जरूरी है।
चूंकि मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि गलतबयानी करने वाले संपादकों को तथ्यों की जानकारी नहीं थी इसलिए मैं 'साजिश' शब्द का प्रयोग कर रहा हूं। दो राय नहीं कि यह सब एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है।
बेशक अख़बारों की दुनिया एक ख़ास किस्म के अज्ञानियों सका अंटी पड़ी है लेकिन ये मसला धूर्तता, ढिठाई और हरामखोरी का है. जानबूझकर यह सब लिखा गया. क्योंकि किसी भी प्रगतिशील और सही मायने में लोकतान्त्रिक मसलों पर यह अखबारी वर्ग फासिस्टों जैसा बर्ताव करता है.
"टपक रहा है धुंधलकों से रायता कम कम ..."
बोल बम, बोल बम...बम..बम....बम !आब -ऐ- ज़मज़म !!
oooops...galt number dial ho gya ! upar ki tippni ashok bhai (uk) kee post ke liye hai !
There is one correction. The quote which comes after 'Navbharat Times' is from 'The Hindu' (not from the Hindustan Times). Inconvenience is regretted.
Anand Swaroop Verma
उत्तम !
media ke charitra ka sandar vislesan kiya h.
हिंदी अखबारों में लाइब्रेरी या कोई रिफरेन्स सेक्शन आमतौर पर नहीं होता। संपादकीय लिखने का काम कोई रिटायर आदमी करता है जो बहुत कम पैसे लेता है, उसका मुख्य काम मालिक किंवा प्रधान संपादक के लिए बमय फोटो लेख लिखना होता है। ....और यह माना जाता है कि पचीस साल से लोगों ने संपादकीय पढ़ना बंद कर दिया है।
प्रस्तावः आनंद जी हर महीने एक विषय पर इस तरह का तुलनात्मक अध्ययन पेश करें. उसे हम लोग ब्लागों पर प्रकाशित करेंगे। यह पत्रकारिता पर बहस चलाने से कहीं बेहतर काम है।
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