Monday, July 13, 2009

वकील के कोट में शुगर-फ्री बताशा

भाई मुनीश ने तो शराब के दो नामचीन ब्रांडों के काकटेल के साथ अखंड मैत्री की कामना करते हुए अपने कंधे पर रखा, मुहावरेदार काल्पनिक गंडासा (हैचेट) जमींन में दफना दिया। फिर उस पर वह किताब भी रख दी जिसके अध्याय सदा के लिए बंद कर दिए गए हैं, परदे भी खैंच दिए। यह कुछ और नहीं मुनीश की सदाशयता है जो इस विवाद का अंत चाहती है। मैं भी यही चाहता हूं।

उदय प्रकाश के कुछ भी बकने से अशोक का कभी कुछ नहीं बिगड़ेगा। वह हमारी नजरों में जो है वही रहेगा। वे लिटरेचर के अमिताभ बच्चन होंगे लेकिन अपना अशोक इंसान है। खरा इंसान। उन्होंने बस अपने पाठकों को निराश किया है जो उन्हें कलम को पेंचकस की तरह चलाने वाले, जबान के बेहद खराब और चित्त के डांवाडोल मिस्त्री की तरह देख रहे हैं।

बात बस इतनी नहीं थी...जरा सोचिए कि इन सवालों और भावनाओं का क्या होगा जो इन दोस्तों ने उठाए हैं।

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सहिष्णु इतने कि एक हिन्दुत्ववादी गुंडे के तलवे चाटने के बाद हिंदी समाज को जातिवादी ब्राह्मणवादी और पिछड़ा होने के लिए गरियाने लगते हैं. हत्यारों से सम्मानित होने को एक वैयक्तिक और पारिवारिक जिम्मेदारी बताते हैं.

प्रश्न उठाते हैं कि हिंदी समाज में गाँधी और भगत सिंह क्यों नहीं पैदा हो पाए.

शायद इन्हें लगता है कि 'हिन्दू ह्रदय सम्राट' इसकी कमी पूरा करेंगे.

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कई साल पहले इन्हीं उदय प्रकाश ने ग़ाज़ियाबाद में सफ़दर हाशमी के साथ मारे गए मज़दूर रामबहादुर के बारे में ख़बर लिखने के लिए मुझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आदमी कहा था. उनके दस्तख़त वाला बयान आज भी मेरे निजी कबाड़ख़ाने में कही पड़ा होगा. तब उदय प्रकाश ख़ुद को व्लादिमिर इल्यीच उल्यानोव का भारतीय अवतार समझते थे. अब ख़ुद जीभ लपलपाते हत्यारों के हाथों पुरस्कार प्राप्त करने में ख़ुश हैं.

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कहीं भी आपको जानबूझकर छेड़ा या उधेड़ा जा रहा है, ऐसा मुझे तो नहीं लगा।

पर क्या कहूं, हो सकता है आप सच कह रहे हों? मैं ही मूर्ख हूं।

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उदय प्रकाश ने अपनी उस पोस्ट के नीचे बहुत ढिठाई से लिखा था कि क्योंकि मैं एक राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूँ इसलिए मेरी टिप्पणी का राजनीतिक पाठ न किया जाए !!

हमेशा हाशिए पर धकेले जाने की बात करने वाले उदय प्रकाश को हाशिए से केन्द्र तक के इस सफर की बधाई

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सख्त से सख्त, तीखी से तीखी बहस का स्वागत है, लेकिन इसके लिए मोटिव इंप्लांट करना जरूरी नहीं है। बातें खुलकर होनी चाहिए लेकिन आगे और बात होने की जगह भी बनी रहनी चाहिए।

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अपने पुरस्कार लेने को उचित ठहराने के लिए दयनीयता को ढाल बनाने की तो कोई ज़रूरत नहीं थी. और यह भी कि उदयप्रकाश जैसे समर्थ लेखक से बेहतर अभिव्यक्ति की भी उम्मीद करता था और करता हूं.

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"वो बीड़ी सुलगाता आपका पूर्ववर्ती कवि आपसे पूछ रहा है -- तुम्हारी राजनीति क्या है पार्टनर?"--

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अपनी हरकत पर अफसोस जाहिर करने की बजाए उदय जी दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगें..... दूसरों पर हमला करने लगे। ये कैसी बौद्धिकता है कैसा बड़प्पन ?

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उदय प्रकाश सदैव से ही घनघोर अवसरवादी रहे हैं. कभी अशोक वाजपेयी एंड कंपनी को 'भारत भवन के अल्शेशियंस' कहने वाले इस लेखक ने पिछले साल अशोक वाजपेयी के जन्मदिन पर अपने ब्लॉग पर उनको शुभकामना दी, कविता लगाई और इस साल अशोक वाजपेयी से वैद सम्मान ले लिया.

(--- मैंने खुद ही फ़ावड़ा उठाया और बोरियों में रेत भरने लगा। पत्नी और मंटू मदद के लिए आ गए थे। और तभी मेरा मोबाइल बजना शुरू हुआ। यह एक चमत्कार ही था क्योंकि मेरे गांव में एयरटेल नेट्वर्क काम नहीं करता। बहुत दिनों से मोबाइल गूंगा रहता था। ताज़्ज़ुब यह भी था कि उसमें थोडी-बहुत बैटरी बाकी थी। दो दिन पहले चार्ज किया था, शायद वही काम कर रहा हो। मैंने जैसे-तैसे फ़ावडे़ को घुटनों में टिका कर मोबाइल आन किया। दूसरी ओर अशोक जी की आवाज़ थी -'कैसे हैं आप? हमने इस साल कृष्ण बलदेव बैद सम्मान आपको देने का निर्णय लिया है। २७ जुलाई को कार्यक्रम रखा जा सकता है। बैद जी का जन्म दिन है। आप वैशाली में ही तो हैं ?'


मैं असमंजस में था। यह मेरे लिए बिल्कुल अप्रत्याशित था।

मैंने उनका आभार प्रकट किया। लेकिन फिर उन्हें अपनी स्थिति बतायी। दिल्ली से मेरा गांव एक हज़ार सत्तावन किलोमीटर दूर है। भोपाल से भी लगभग इतनी ही दूरी है।

'कोई बात नहीं। आप अपना काम पूरा करिए। आपके आने के बाद ही यह कार्यक्रम होगा।' अशोक जी ने कहा---------)

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अच्छा होता कि वो योगी से पुरस्कार ग्रहण करने को सही ठहराते और उसके पक्ष में तर्क देते. अपने सार्वजनिक विचारों से अपने निजी जीवन की राह बनाने का साहस बहुत कर लोगों में होता है, हम बिना कोई शिकायत किये मान लेते की उदयप्रकाश भी हिंदी की 'कथित' प्रगतिशील जमात के सदस्य हैं. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. योगी से पुरस्कार लेने पर चुप लग गए और उनके दोहरे चरित्र से पर्दा हटाने वाले को न सिर्फ गरियाने बल्कि परोक्ष रूप से धमकाने भी लगे.

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वे इस विषय पर कोई सीधी बात करने को तैयार नहीं हैं। प्रलाप यही कि उनके खिलाफ षड़यंत्र हो रहा है। बढ़ते-बढ़ते ये बात यहां तक पहुंचती है कि हिंदी पट्टी में कोई विभूति जन्मी ही नहीं। अब बुद्ध, महावीर की उन्हें याद दिलाना तो फिजूल है ही, कबीर की बात भी वे भूल गए। बहुत पुरानी बात है..?..तो प्रेमचंद क्या गऊपट्टी में नहीं नागपुर में पैदा हुए थे।

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मेरे लिए विस्‍मयकारी प्रसंग ये है कि जो लेखक महाराष्‍ट्र के अमरावती में दलित आंदोलनकारियों के बीच नायक की तरह सम्‍मान पाता है, वह उत्तर भारत में एक दलित और मुसलमान विरोधी खलनायक के साथ खड़ा नज़र आता है! क्‍या कुछ हज़ार किलोमीटर की यात्रा में विचार और चिंतन का भी कायांतरण हो जाता है?

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और इस घनघोर जातिवादी, बड़ी डिजाइन के पुर्जे अधम कर्मचारी का क्या होगा जिसे वे जानते भी नहीं और वो नेमड्रापिंग करके मशहूर होने की होशियारी कर रहा है। यह दीगर बात है कि मेरे घर आ चुके हैं, शिल्पी की कहानी का जर्मन अनुवाद कराने में भूमिका निभा चुके हैं और रात-रात भर एसएमएस करके हिंदी साहित्य के भेड़ियों की शिनाख्त कराया करते थे।
और उन सवालों का क्या होगा जिन्हें करीब के एक शोकग्रस्त परिवार की आकांक्षा पूरी करने के ट्रैजिक बहाने से ढका जा रहा है। अगर यह सच होता तो भूमिका के तौर पर इतनी गालियां, धमकियां और कोसने देने की क्या जरूरत थी। क्या हम सबने अपने परिजन नहीं खोए और उनके तकाजों को पूरा करने को जायज ठहराने के लिए क्या हम किसी को धूर्त, अपढ़, लंपट, गिरोहबाज, कुकर्मी....आदि बताते हैं। ऐसे मौकों पर हथेली छू देते हैं या भर आंख देख लेते हैं और बात कनवे हो जाती है।....जिनसे प्यार किया जाता है, उनके न रहने पर उनके आश्रितों को सांप्रदायिक घृणा और दलित विरोधी राजनीति करने वाले योगी जैसों के संरक्षण में छोड़ दिया जाता है क्या? अनुकूल भावनाओं का झाग पैदा करने के लिए इन्हीं आश्रितों का इस्तेमाल करना कितना उचित है?

कहना था तो सीधे अपनी बात कहते। लेकिन पहले एक वकील का साथ जरूरी था जिसे कभी भारत भवन अल्शेसियन आप कहा करते थे और मेरे एक दोस्त की राय हैः

मुर्दों के साथ मरा नहीं जाता - अशोक वाजपेयी के बारे में मुझे और कुछ याद क्यों नहीं आता। भोपाल गैस कांड, तड़पते मरते बच्चे-परिवार, भारत भवन में कविता का सुंदर संसार और भारत भवन के कर्ताधर्ता और परम संवेदनशील कवि का वो बयान। उफ कितना घिनौना था वो सब। श्मशान के शोक में कविता का आस्वादन। वैसे अशोक जी अफसर न होते तो भी क्या इतने बड़े कवि होते। उनके लंबे सुखद स्वस्थ जीवन की कामना है।

बातचीत की शुरूआत तभी हो सकती है जब उदय प्रकाश कबाड़ी की हैसियत से कबाड़खाने पर अपना पक्ष रखें। तब समझा जाएगा कि इसे वे धूर्तों का पाखाना नहीं मानते। ये बताएं कि वो सरगना अशोक नहीं तो कौन है जो इलाकाई-जातिवादी नेक्सस का वह कुत्सित नाम है, जिसने देश और समाज की सारी नैतिकताओं के धुर्रे बिखेरते हुए अपनी कई हवसों को पूरा किया है।

सबसे ऊपर यह कि वे योगी की राजनीति और मुसलमानों, दलितों, औरतों के बारे में क्या सोचते हैं?

उन्हें हम किसी खास फर्मे में रख कर नहीं देखना चाहते। बस न्यूनतम साहस की अपेक्षा है जो खुद को ईमानदारी से व्यक्त करने के लिए जरूरी होता है।

अगर इतना भी नहीं है तो मैं इतनी गालियां खाकर भी मूर्खों की तरह अकारण उदय प्रकाश से माफी मांगने के लिए तैयार हूं। अपनी वाली किताब का अध्याय भी बंद करने को तैयार हूं। उस साहस का भी तमाशा बनाने को तैयार हूं जो ये सवाल उठाकर इस सुन्न होते समाज में इतने सारे दोस्तों ने दिखाया है।

बस यही कहूंगा कि अपनी महानता से उदय प्रकाश ने बेतरह निराश किया है।

13 comments:

सुशीला पुरी said...

अशोक जी ! बधाई इतनी बेबाक बात कहने के लिए .......उदय जी ने अपनी बात रख दी है ब्लॉग पर किन्तु क्या बहस का स्थगित हो जाना यहाँ मायने नहीं रखता ?

मुनीश ( munish ) said...

आरम्भ से ही इस बहस में कूदने की मेरी वजह सिर्फ इतनी थी की मेरे एक एक सभ्य और शालीन मित्र को बैठे -ठाले फालतू फंड में गरिआया गया . अब चूंकि उदय प्रकाश ने अपना पक्ष रखते हुए अशोक पांडे के प्रति भ्रातृवत स्नेह का इज़हार किया है तो साहित्यिक समाज में समरसता के हित में शुभ-कामना सहित मैंने व्यक्तिगत स्तर पर बहस के पटाक्षेप का निर्णय लिया है . अब ये चर्चा पूरी तरह वैचारिक प्रतिबद्धता से अनुप्राणित हो जाती है, जिसके लिए ब्लॉग का आकाश छोटा पड़ता है और ये किसी साहित्यिक गोष्ठी की दरकार रखती है ....बाकी जैसी राय पंचों की !

Nanak said...

इस प्रकार की बौद्धिक बदहज़मी, फिज़ूल की साहित्यिक जुगाली (नए शोध से पता चला है कि जुगाली के दौरान ऐसी गैस उत्सर्जित होती है जो कार्बन डाइऑक्साइड से कई गुना ज्यादा ख़तरनाक है) और रंडरोवने से कबाड़खाना ब्लॉग नहीं गोया कोई अखाड़ा हो गया है। मुनीश से कहना चाहूँगा कि वितंडावाद के इन सांढों से दूर रहो।

मुनीश ( munish ) said...

Thnx fo' ur concern Nanak. Since u r new in this blogosphere , i don't want to react on ur advice , but let it be understood that im not one of those who leave their friends in lurch. Moreover, the matter is over for me . I,however, never expected this advice from someone of ur caliber .

Nanak said...

Munish, your reaction proves age old maxim, 'garbage in, garbage out'. लेकिन सुशीला पुरीजी ने जो सलाह दी है जरा उस पर भी नज़रें घुमा लें तो ज्यादा अच्छा होगा!

प्रीतीश बारहठ said...

आप सब बडे दिलवाले है, अपने -अपने दिल को थोड़ा और बड़ा कीजिये। जो उपेक्षा के लायक है उसकी उपेक्षा कीजिये और मुस्कुराइये।

Unknown said...

अनिल भाई, आपको माफ़ी क्यों मांगनी चाहिए?

किसी सूरत नहीं. उदय प्रकाश ने एक तरह से मांग ली है. वे आत्म-दया और आत्म-प्रदर्शन के सबसे दयनीय शिकार हैं. इस मामले से भी उन्हें आत्म-दया की अच्छी खुराक मिलेगी. रही बात विचारधारा आदि की वो इस आदमी की मुश्किल कभी नहीं रही. पूरी जिन्दगी की मेहनत :) के बाद अब हिंदी की एलीट पांत में आये हैं.

अब चुप हो जाना चाहिए, और ढिठाई करेंगे तो जाने कैसे कैसे मामले सामने आ जायेंगे - इन पर पाईरेसी के भी कई आरोप रहे हैं.

अभी अशोक वाजपेयी और ओम थानवी के चरणागत हैं. कल किसी और के थे, कल किसी और के होंगे. हिंदी महानताएं चरणों में निर्मित होती हैं.

azdak said...

हिन्‍दीपौत्र सही बातें कह रहे हैं?

वैसे कबाड़खाने के ऊपर दायें चिपकायी पंक्तियां खुदी बहुत सारा खुलासा करती हैं, नहीं?

"दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है.

(विन्सेन्ट वान गॉग की जीवनी 'लस्ट फ़ॉर लाइफ़' से)
"

अजित वडनेरकर said...

प्रमोदसिंह की नजर जहां पड़ी, वहां हमने भी गौर किया। बाकी भी समझें...

मुनीश ( munish ) said...

@Nanak : I appreciate Sushila's point but this is a community blog where members discuss an issue in a democratic way.Finally, however the will of moderator reigns supreme and i think his veto is accepted by one and all. I wish u had seen some literary discussions here. So far as ur Garbage theory is concerned , i'd rather say that it is being used in production of electricity in many countries.

दीपा पाठक said...

नियमित इंटरनेट सेवा की कमी गांव में रहने का सबसे बङा नुकसान है। इसी के चलते कबाङखाना पर चल रही इस वैचारिक मुङभेङ का पता तक नहीं चला। बहरहाल मुझे लगा कि हिंदी की पाठक होने और निष्क्रिय ही सही लेकिन कबाङी होने के नाते अनिल यादव द्वारा बिल्कुल तर्कसंगत तौर मांगी गई जबावदेही पर उदयप्रकाश जी की बेहूदा प्रतिक्रिया पर अपना कङा विरोध जाहिर करना मेरी जिम्मेदारी है। मेरे ख्याल से थोङा सा भी संवेदनशील व्यक्ति जो किसी भी कार्य क्षेत्र से हो वह योगी आदित्य नाथ जैसे लोगों के हाथों सम्मान ग्रहण करने पर थोङा तो हिचकिचाएगा ही। लेकिन उदय जी ने ऐसा कर भी लिया था तो पाठकों के मन में उनके लेखन को ले कर कुछ प्रश्न उठते या उनका लेखकीय कद कम भर होता लेकिन अपनी बेतुकी प्रतिक्रिया दे कर खुद को निंदनीय साबित कर दिया है। उन्होंने पाठकों को न केवल बेहद निराश किया है बल्कि यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि अब तक हमने क्या सचमुझ इसी का लिखा पढ़ा?

इस पूरी चर्चा में अनिल यादव के साथ-साथ पंकज श्रीवास्तव, दिलीप मंडल, रंगनाथ, अविनाश की पोस्ट खासी विचारोत्तक थीं।

पुनश्च; अशोक दा आपके नाम के आगे सरगना शब्द खासा फबता है।

नई पीढ़ी said...

"योगी महिमा"......पढिए और उदय प्रकाश को बधाई दीजिये.

"हमने गोरखपुर में एक नयी परंपरा शुरु की है जहां मुस्लिम लड़कियों को हिंदू रख रहे हैं। इस तरह हम नस्ल शुद्धि कर रहे हैं जिससे हम एक नयी जाति निर्माण करेंगे। योगी आगे कहते हैं यह परंपरा आजमगढ़ में भी शुरु होगी अगर कोई एक हिंदू लड़की मुस्लिम के यहां जाती है तो हम उसके बदले सौ मुस्लिम लड़कियों को ले आएंगे। योगी यहां उपस्थित जनता को उकसा कर उनसे अपनी बात पर हामी भी भरवाते हुए कहतें हैं कि अगर वे एक हिंदू को मारेंगें,तो इसके जवाब में जनता उनके साथ दोहराती है कि वो सौ को मारेंगे। इसी भाषण में योगी बाहुबली प्रत्याशी रमाकांत यादव को हनुमान बताते हुए कहते हैं कि देश सिर्फ माला जपने से नहीं चलता इसके लिए भाला चलाने वालों की भी जरुरत है। और भाला वही चलाएगा जिसकी भुजाओं में दम होगा, शिखंडी और नपुसंक लोगों के बूते ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इस बात के बाद मुसलमानों को केंद्रित करते हुए योगी कहते हैं कि इन अरब के बकरों को काटने के लिए तैयार हो जाइए। जो काम अब तक छुप कर होता था वो अब खुलेआम होगा। इसी सभा में योगी कहते हैं कि आजमगढ़ का नाम किसी मुस्लिम के नाम पर होना शर्मनाक है, इसका नाम हमें आर्यमगढ़ करना है। योगी अपनी धार्मिक छवि की आड़ में अपने फासिस्ट एजेण्डे को शस्त्र और शास्त्र का मिश्रण बताकर इसे हिंदुओ की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति बताते हैं।
गौरतलब है कि आजमगढ़ को आतंकगढ़ कई सालों से योगी कहते आ रहे हैं जिसे बाद में मीडिया भी धड़ल्ले से इस्तेमाल करने लगी। यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि गोरखपुर ,महराजगंज, पडरौना, देवरिया में जहां लंबे समय से चल रहे फासिस्ट प्रयोंगो के तहत कई मुहल्लों के नाम जिसमें उर्दू टच दिखता है को बदल दिया गया है। मसलन, उर्दू बाजार को हिंदी बाजार, अली नगर को आर्य नगर, शेखपुर को शेषपुर, मियां बाजार को माया बाजार, अफगान हाता को पाण्डे हाता, काजी चैक को तिलक चैक समेत दर्जनों नाम हैं।"..........."योगी आदित्यनाथ के जमीनी प्रयोग एक ऐसी नस्ल तैयार करने में लगे हैं जो विशुद्ध फासिस्ट हो, जिसका इतिहासबोध हद दर्जे तक मुस्लिम विरोधी मिथकों पर टिका हो और जो किसी भी तरह के गैर हिंदू प्रतीकों को बर्दास्त न करता हो। जिसको हम उनके प्रयोग स्थलों पर साफ देख सकते हैं। जैसे महराजगंज के भेड़िया बकरुआ गांव में योगी के स्टाॅर्मट्ूपर्स हिंदू युवा वाहिनी के लोगों ने कब्रस्तानों को ट्ैक्टर्स से जुतवा दिया। 2007 में पडरौना में मुस्लिम दुकानदारों की दुकानों को जला कर उनकी जगह प्रशासन के सहयोग से रातों रात हिंदू दुकानदारों को बसा दिया। जिसे शासन प्रशासन दंगो की फेहरिस्त में भी नहीं मानता लेकिन इस पूर्व नियोजित इस दंगे की संभावना महीने भर पहले ही कोतवाली में स्वयं पुलिस द्वारा दर्ज है।....... एक अन्य सभा में बिलरियागंज आजमगढ़ में योगी ने कहा कि जो लोग हमारे हिंदुत्व के संकल्प से सहमत नहीं हैं उन्हें शाम तक आजमगढ़ छोड़ देने की तैयारी कर लेनी चाहिए।.......योगी अपने भाषणों में किसी दूर-दराज इलाके के हिंदुओं के उत्पीड़न की मनगढ़ंत कहानियां सुनाकर स्थानीय स्तर पर मुसलमानों से बदला लेने के लिए हिंदू भीड़ को उकसाते हैं। मसलन इसी सभा में वे कहते हैं कि मेरठ में हिंदुओं के साथ मुसलमान आतंकी व्यवहार करते हैं जिसके चलते हिंदू लड़कियों की पढ़ाई -लिखाई छूट गई है। अधिकतर हिंदू परिवारों ने अपनी बेटियों को रिश्तेदारों के यहां भेज दिया है क्योंकि मुसलमान उनको उठा ले जाते हैं और उनके साथ सामूहिक दुराचार करते हैं और उन पर तेजाब डाल देते हैं।"

उनकी महिमा के बारे में और जानना हो तो नई पीढी देखें http://naipirhi.blogspot.com/2009_03_01_archive.html

Ashok Kumar pandey said...

्गौ पट्टी के निवासियों में एक राहुल थेऔर् एक गोरख भी