Saturday, July 4, 2009

एक अलग क़िस्म की तीर्थ यात्रा

तुंगनाथ से लौटते हुए हम एक अद्वितीय जंगल को देखने गए. रुद्रप्रयाग से कर्णप्रयाग जाने वाले रास्ते में नगरासू से थोड़ा आगे जाने पर दाईं तरफ़ को कोटमल्ला नाम की जगह के लिए एक संकरा रास्ता कटता है। यहीं है वह जंगल.

इस जंगल में मैं दो बार पहले भी जा चुका हूं. पिछले तीन सालों में वहां जाने वाली कच्ची सड़क बाकायदा बन चुकी है और वहां पहुंचने में अब पहले से आधा समय लगता है. पिछली दफ़ा वहां जाने के बाद मैंने एक दूसरे ब्लॉग के लिए एक पोस्ट लिखी थी. थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ उसी को आगे पढ़िये.

उत्तराखण्ड के गढ़वाल इलाके में रूद्रप्रयाग जिले के एक छोटे से गांव में रहते हैं जगत सिंह चौधरी और ‘जंगली’ के नाम से जाने जाते हैं। ‘जंगली’ के जंगल तक पहुंचने के लिए रूद्रप्रयाग से कर्णप्रयाग की तरफ जाने पर कोटमल्ला नाम की जगह के लिए एक संकरा रास्ता कटता है. आगे जाकर यह रास्ता कच्चा और पथरीला हो जाता है। करीब बीस किलोमीटर तक चलने के बाद हरियाली देवी का मंदिर आता है। एक तरह से यह नाम बहुत विडंबनापूर्ण है। पूरा इलाका एकदम सूखा हुआ है और बंजर से लगते पहाड़ों पर चीड़ के सिवा कुछ नज़र नहीं आता।

इसी मन्दिर से करीब एक किलोमीटर दूर पथरीली सड़क पर लगा एक विनम्र सा साइनबोर्ड आपका स्वागत करता है : ‘जंगली का जंगल’। इस जंगल में घुसते ही ठंडक महसूस होती है और आप अपने को तमाम तरह के पेड़ों के बीच पाते हैं। जंगली जी से मिलने को आपको बहुत इंतज़ार नहीं करना पड़ता। वे अपने जंगल में ही कहीं होते हैं।

पिछली यात्रा के दौरान ली गई जगतसिंह 'जंगली' की तस्वीर


करीब पचपन साल के इस शख्स की आंखों की आग को पहचानने के लिए पहले आप को इस दुर्लभ जंगल की दास्तान सुननी होगी। 1967 में कुल सत्रह की उम्र में जगतसिंह फौज में चले गए। फिर शादी परिवार वगैरह। गांव की स्त्रियों का जीवन बहुत कष्टप्रद था : घर से दो मील नीचे से पानी लाना, फिर दिन भर चारे और ईंधन की खोज में रूखे जंगलों में भटकना।

जगत सिंह को अपना पूरा बचपन याद था जिसमें दिन रात खटती रहने वाली एक मां होती थी : बच्चों के लिए उसके पास ज़रा भी वक्त नहीं होता था। अब शादी के बाद वे देख रहे थे कि उनकी पत्नी भी वैसा ही जीवन बिताने को अभिशप्त है।

इसी दौरान 1974 में मृत्युशैया पर पड़े जगतसिंह के दादाजी ने उनसे वचन लिया कि वे गांव के ऊपर स्थित उनकी साठ नाली यानी करीब पौने दो एकड़ ज़मीन की देखभाल करेंगे। इस पूरी बंजर ज़मीन पर सिर्फ एक पेड़ था। इस इकलौते पेड़ को उसकी उम्र के कारण आज भी सबसे अलग पहचाना जा सकता है।

जगत सिंह ने बरसातों में कुछ पौधे रोपे और जाड़ों में छुट्टी लेकर घर आए और बच गए पौधों की देखभाल में जुट गए। अगली बरसातों में उन्होंने कुछ और पौधे रोपे और यह क्रम चल पड़ा। चार पांच साल में उस बंजर में इतनी हरियाली हो गई कि घर की औरतों को चारे और ईंधन की समस्या नहीं के बराबर रह गई।

इधर जगत सिंह का स्वाध्याय जारी था और 1980 में उन्होंने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लिया। फौज की नौकरी छोड़कर उन्होंने निश्चय किया कि वे अपना पूरा समय अपने जंगल को देंगे। रिटायरमेन्ट के बाद मिली फंड की रकम का ज्यादातर पैसा उन्होंने तमाम प्रजातियों के पेड़ों की पौध वगैरह में झोंक दिया। पच्चीस सालों की अथक मेहनत और फौलादी इरादों का परिणाम यह हुआ कि उनके जंजल में करीब सौ प्रजातियों के तकरीबन बीस हजार पेड़ हैं। यह फकत जंगल नहीं है : यह जगतसिंह चौधरी का जीवन है और उनकी प्रयोगशाला भी जिसमें उन्होंने तमाम हैरतअंगेज कारनामों को अंजाम दिया।

वे मानते हैं कि किसी पेड़ को लगा देने के बाद उसे काटने का हमारा कोई अधिकार नहीं। लेकिन इसके बदले वे उस पेड़ से विनम्रतापूर्वक मांग करते हैं कि वह भी उन्हें कुछ दे। सो आप देखते हैं कि चीड़ के पेड़ों पर सोयाबीन की लताएं चढ़ी हुई हैं और बांज के पेड़ों पर बारहमासा हरे चारे की। अपने जंगल से वे साल में दो कुन्तल सोयाबीन उगा लेते हैं।

इस जंगल में खेती करने का उनका ढंग निराला है : वे ‘गड्ढा यंत्र’ का इस्तेमाल करते हैं। करीब छह फीट, लम्बे तीन फीट चौड़े और डेढ़ फीट गहरे गडढे कई स्थानों पर खोदे गए हैं। इन गड्ढों में मिट्टी को समानान्तर मेड़ों की शक्ल में बिछाया गया है। दो मेड़ों के बीच खरपतवार गिरती रहती है। मेड़ों के ऊपर मूली, प्याज, आलू और टमाटर वगैरह उगाए जाते हैं। फसल कटने के बाद मेड़ों के बीच इकठ्ठा खरपतवार खाद में बदल चुकी होती है। अगली फसल के लिए अब मेड़ों को खाली जगह में खिसका दिया जाता है। तीखी ढलान वाले पहाड़ी इलाके में पानी को बहने से बचाने और ज़मीन को लगातर उपजाऊ बनाते जाने का यह तरीका नायाब है।

तीस साल पहले जिस धरती की कोई कीमत नहीं थी चौधरी साहब की लगन और मेहनत ने उस ज़मीन पर कुछ इंच की उपजाऊ मिट्टी की परत बिछा दी। अपने घर के लिए अन्न और सब्जी इसी जंगल से उगा लेने वाले जगत सिंह चौधरी ने कई अनूठे प्रयोग किए। सबसे पहले तो उन्होंने तमाम स्थापित ‘वैज्ञानिक’ सत्यों को गलत साबित किया। करीब ढाई हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित इस जंगल में उन्होंने ऐसी ऐसी प्रजातियां उगाई हैं कि एकबारगी यकीन नहीं होता। आम, पपीता, असमी बांस के साथ साथ वे देवदार और बांज भी उगा चुके हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस ऊंचाई पर इन पेड़ों का उगना असंभव है। आप उनसे इसका रहस्य पूछेंगे तो वे किंचित गर्व से आपसे कहेंगे कि वे अपने जंगल में कुछ भी पैदा कर सकते हैं। आप पूछेंगे ‘कैसे’ तो एक निश्छल ठहाका गूंजेगा “क्योंकि जंगली पागल है।”

तो आप देखते हैं कि एक चट्टान पर आंवले का पेड़ फलों से लदा हुआ है। एक जगह पानी के तालाब के पास हजारों की तादाद में मगही पान की बेलें हैं। छोटी और बड़ी इलायची की झाड़ियों पर बौर आ रहे हैं। कहीं बादाम उग रहा है और कहीं पर हंगेरियन गुलाबों की क्यारियां हैं। अपने इस्तेमाल की चाय भी वे यहीं उगाते हैं। तमाम तरह के पहाड़ी फलों के पेड़ भी हैं। जंगल का एक हिस्सा बेहद आश्चर्यजनक है : जंगली जी यहां दुर्लभ हिमालयी जड़ी बूटिया उगाते हैं। वजदन्ती, हत्थाजड़ी और सालमपंजा जो दस हजार फीट से ऊपर ही पाई जाने वाली औषधीय प्रजातियां हैं यहां बाकायदा क्यारियों में उगाई जाती हैं। यह उनका नवीनतम प्रयोग है जिसमें वे भारत के गरीब पहाड़ी कृषक वर्ग के लिए चमकीले भविष्य का सपना संजोए हैं। वे चाहते हैं कि पहाड़ के किसान अपनी ज़मीन पर जड़ी बूटियां उगाएं। “एक नाली ज़मीन से साल में एक लाख रूपए तक कमा पाना संभव है” वे बहुत विश्वास से कहते हैं।

पिछले दशक में उनकी मेहनत का नतीजा यह निकला कि उनके जंगल में पानी के दो स्रोत फूट पड़े जिनसे अब उनके गांव भर की पानी की दिक्कत दूर हो गई है। मुझे अपना गांव याद आता है जहां बहने वाली गगास नदी पिछले तीन सालों से गर्मियां आते ही सूख जाती है। सरकार की तुगलकी योजना यह है कि बागेश्वर में बहने वाली पिंडर का पानी गगास तक लेकर आया जाए। पेड़ उगा कर पानी के स्रोतों को जिन्दा करने की कोई नहीं सोचता। शुरू शुरू में जगतसिंह चौधरी को पागल और सनकी कहा जाता था। वन विभाग के अफसरों ने उनका मजाक उड़ाया। सरकार ने उनके जंगल के बिल्कुल नजदीक एक कृषि प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए लाखों की रकम एक इमारत बनाने पर फूंकी। उसमें कोई काम नहीं हुआ और वह खंडहर में तब्दील होती जा रही थी जब बबालटलाई की नीयत से इस इमारत को गढ़वाल मंडल विकास निगम को सौंप दिया गया। फ़िलहाल उसमें हरियाली देवी के मन्दिर आने वाले यात्री-श्रद्धालुओं के ठहरने हेतु गैस्ट हाउस बना दिया गया है।

आठ-नौ साल पहले तत्कालीन उत्तरांचल के राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला इस जंगल को देखने आए और उनकी अनुशंसा पर जगतसिंह चौधरी को प्रतिष्ठित वृक्षमित्र सम्मान मिला। गढ़वाल विश्वविद्यालय ने उन पर एक संक्षिप्त आलेख छापा। रूद्रप्रयाग के तत्कालीन जिलाधिकारी रमेश कुमार सुधांशु ने अपने स्तर से भरसक जंगली जी की सहायता की। लेकिन जगतसिंह चौधरी के जंगल को बतौर मॉडल देखे और प्रचारित किए जाने की आवश्यकता पर कोई गौर नहीं किया गया।

दरअसल ‘जंगली’ को शायद इस सब की अब उतनी दरकार भी नहीं रह गई लगती। रोज सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक अपने जंगल और अपने पौधों के बीच काम में लगे रहने वाले जगतसिंह चौधरी का बेटा और भतीजा उनके साथ रहकर प्रकृति के तमाम रहस्यों को सीख रहे हैं। मेहनत करना उनमें सबसे बड़ा रहस्य है।

पिछले एकाध दशक से इस देश में आई पर्यावरण चेतना के परिप्रेक्ष्य में यह कदाचित संभव है कि ‘जंगली’ का जंगल आने वाले दशकों में किसी तीर्थ का रूप ले ले। यह बिल्कुल संभव है। इंशाअल्लाह।

जसोली स्थित हरियालीदेवी का मन्दिर

जंगल का बोर्ड अब भी वैसा ही है

जंगली का संकल्प

आमतौर पर पहाड़ में नहीं उगता यह बांस

पहले यहां सिर्फ़ धूल थी और प्यास

जय भोले बाबा की

चारा देता है चीड़ का यह पेड़

ये सारी जड़ी बूटियां उगाते हैं जगतसिंह यहां

च्यूरा का पौधा

22 comments:

दीपा पाठक said...

बहुत शानदार और जरूरी पोस्ट। जंगली जैसे लोगों के बारे में जानकारी ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच पहुंचनी चाहिए जिससे ऐसे लोगों का मनोबल बढ़े जो अपने-अपने स्तर पर कुछ बेहतर करने की कोशिश कर रहे हैं। एक बार फिर धन्यवाद।

Unknown said...

जंगली जी अब छात्रों को धरती-पर्यावरण पढ़ाते भी है। मैने मिलने की कोशिश की थी लेकिन वे उस वक्त श्रीनगर विवि में लेक्चर देने गए हुए थे।

Ek ziddi dhun said...

सिस्टम में बैठे हरामखोर कुछ करने के बजे बिल्डिंग बना देते हैं. हर फील्ड में यही हाल है. जो कुछ करते हैं, उन्हें पागल और सनकी कहा ही जाता है और वो फिर भी अपने सपने को अंजाम दे दे तो कोई पुरस्कार-वुरस्कार देकर मामला ख़त्म. हकीकत यही है कि ऐसे आदमी के काम को हरामखोर प्रजाति अपमान और खतरे के लिए देखती है.
पिछली कई पोस्ट पढ़ डालीं यहाँ बनारस में एक साईबर कैफे पर बैठकर, सुशोभित की कविताएँ भीं. सबसे बड़ी बात वीरेन जी सका लिखवाना है. उस घटिया अखबारी नौकरी में जो काम रुका रहा, अब वो हो रहा है.
अभी यहाँ पहली बार दस्तक के दर्शन हुए और आपका `मेरा बचपन` स्तम्भ मय आपकी फोटू के मौजूद है. रवींद्र भाई का हबीब तनवीर वाला टुकडा भी

मुनीश ( munish ) said...

In my opinion the man is Civilized in real terms and the rest are Junglee.
Sab Bhole ka!

batkahi said...

apni dhun me jangali ji jo kar rahe hain ispar vaigyanik baatchit bhi honi chahiye ki jis prajati ko ek khas unchai me hi hone layak man liya gaya hai to jangali ji ne us vaigyanik seema ko sarvajanik chunauti di...udaharan samne rakh ke....aise dhuni bhagirath ko fir se salam...par unke kiye ko sabke saamne le aaneke liye aapka bhi salam ashok bhai....jaldi hi jaane ki koshish karunga main bhi

yadvendra

batkahi said...

apni dhun me jangali ji jo kar rahe hain ispar vaigyanik baatchit bhi honi chahiye ki jis prajati ko ek khas unchai me hi hone layak man liya gaya hai to jangali ji ne us vaigyanik seema ko sarvajanik chunauti di...udaharan samne rakh ke....aise dhuni bhagirath ko fir se salam...par unke kiye ko sabke saamne le aaneke liye aapka bhi salam ashok bhai....jaldi hi jaane ki koshish karunga main bhi

yadvendra

kk pandey said...

kisko chinta hai jangal aur nadi aur phaad ki.aise me tumhara blog alag alag tareeke se manushy ki mehnat aur uski srijan ki takat ke dheron roop khoj lata hai aur hum jaise logon ko aur asthawan bna deta hai.badhai bhai aur jangli ji ko salam. janmt fir se suru ho saka to aisi jankari ke liy aapka intjar karega.

अभिषेक मिश्रा said...

ashok ji jangli ji to achcha kam kar rahen hain ismen koi shak nahin.lekin aap jo apni peerhi ko bahut krantikari mante the aur aaj ki yuva peerhi ko gali dene se nahi chukte the ki uske koi samajik sarokar nahin hai. aap aajkal rajnaitik muddon par kyon nahin likhte. kya aapka sattar ke dashak ka rajnaitik rumaan khatm ho gaya hai.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

jaankaari pradaan karne ke liye dhanyawaaad.......

मुनीश ( munish ) said...

Dear Ashok bhai ,
Neither i know Abhishek Mishra nor am i aware of the commitments he is referring to . Still, i must join him to instigate u to write something on contemporary scene,especially India in its global context. Today ,Times of India is carrying an article titled 'Why are Indians Targetted?' Its observations match your analysis word for word .U have travelled far and wide, met different people and possess gift of gab as well , but u never speak up on contemporary issues very frequently. May be you are doing so in magazines ,but we would love to see u write on topical issues here as well.

Rangnath Singh said...

अशोक जी
जंगली जी जैसी शख्सियत से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद। जो चीजें पाप्यूलर मीडिया में देखन-सुनने को नहीं मिलती उनको सामने ला कर सराहनीय काम कर रहे हैं। मेरे लिए तो आपकी लगायी पोस्ट को देखना एक कल्चरल टूअर जैसा होता है।

Rangnath Singh said...

मुनीश जी
मुझे यकीन नहीं हो रहा है कि संडे टाइम्स में भारतियों के बारे मे जो लिखा है वो सही है। मुझे तो उसकी फीचर के विश्वसीयता पर शक है। टाइम्स किसी मुद्दे को कैश कराने में माहिर है। आस्टेªलिया का मुद्दा ऐसा है जो किसी पाठक को आकर्षित करेगा। इसलिए टाइम्स नए-नए एंगल दे का मुद्दे के सेलिंग वैल्यु को कैश करा रहा है।
मुझे तो लगता है कि लेखिका इंद्राणी राजखोवा ने अति-सरलीकरण का सहारा लिया है। अगर उनकी बात में कुछ आधार है तो दूसरे यूरोपिय मुल्कों में भारतीयों के संग ऐसे हादसे क्यों नहीं हो रहे ??

अभिषेक मिश्रा said...

rangnath ji, aap kainse kah rahen hain ki popular media men jangli jike bare men sunne ke bare men nahin milta.

मुनीश ( munish ) said...

Dear Rang as i have said these observations are similar to Ashok bhai's . He has travelled the world more than me so i feel compelled to believe him . I may not have believed
the article if i had not heard these things from Ashok bhai. U should read it again and u will find mention of several other parts of world where Indians face humiliation inspite of their success in academics and business.
What Bihar is to India, India is to world.

Rangnath Singh said...

अभिषेक जी
मैं दिल्ली में जनसत्ता और टाइम्स अॅाफ इण्डिया पढ़ता हूँ। यथासंभव दूसरे अखबार भी देखता रहता हूँ। जहाँ तक मुझे याद है मैंने उन्हें इन पेपर में नहीं देखा। किसी टी वी प्रोग्राम में वो आए हों तो भी मुझे नहीं पता।
आप कहते हैं तो मैं मान लूँगा कि जंगली जी पाप्लूयर मीडिया में भी बराबर सम्मान पाते रहे हैं। हाँ ये सच है, मैंने उन्हें नहीं देखा था।
इस संदर्भ में आप ज्यादा जानकारी दे ंतो मुझे सुविधा होगी। कब और कहाँ उनका कवरेज था यह बताएं जिससे मैं उनके बारे में और ज्यादा जान सकूँ। मैं पर्यावरण से जुड़ा काम नहीं करता लेकिन किसी भी दिशा में लीक से हटकर चलने वालों की जिजीविषा मेरे लिए प्रेरणादायक होती है।

Rangnath Singh said...
This comment has been removed by the author.
Rangnath Singh said...

Munish ji
I am not contradicting you. I am just putting my doubts before all of you. As you have said that Ashok ji’s view is somehow similar to Indrani Rajkhowa‘s view then Ashok ji should come forward with his view officially.
And,
India has same reputation in the western world as Bihar has in India!!
Shocking!!

I don’t have passport so..... i cnt say more ...

July 6, 2009 11:54 AM

Ashok Pande said...

Dear Munish Bhai, Rangnath Bhai and Abhishek Ji,

One cannot begin a debate on any of the issues taken up by you as part of this post. This issue would soon be discussed in a separate post.

And Dear Abhshek Ji, I was merely three years old when the seventies arrived. Seems you have some old bone to pick.

Anyway, I wont put up any comment on any issue that goes beyond the domain of this post.

अभिषेक मिश्रा said...

ashok pande ji,
mujhe sabdasah mat lijiye sattar ke dashak se mera matalab sattar ke dashak men ubhri ek khas rajnaitik pravritti se tha jiska asar baad ke dashkon men bhi reha. khas kar chatra yuva aandolan par. sattar ke dashak kahne se vah rajnaitik pravitti poori tarah moort ho jati hai.

baaki is par alag se post likhna chahte hain iska swagat hai. maine aapko provoke karne ke liye hi comment kiya tha. kyonki nai peedhi ko araajneetik hone ke liye gali dene se kuch nahin hoga. pichli peedhi kyon thak haar kar baith gai hai aur gair rajnaitik gair vivadaspad vishyon par shuddh kaljai sahitya rachna chahti hai is par bhi sochna jaruri hai.

Ashok Pande said...

I hope you have heard all of Beatles and of course ElviS and Neil Diamond and neil Young and The Doors, Dear Abhishek!

I hope you read all of Kafka and Camus too in that light.

Hope you saw all of Monty Pythons.

Apart of course from a zillion things that happened everywhere. These names anyway are not representative but since you mention ... and yes Ella Fitzerald !

...
...
...

I am not here to entertain you. this is my corner. DONT DEMAND BITTE. POR FAVOR!

Hope

Hope is a big word saar!

Kindly be a bit considerate Sir!

अभिषेक मिश्रा said...

ashok pande ji
aapki yah baat to samajh men aai ki yah aapki apni jagah hai aur aap kya likhten hain yah aapka apna nirnay aur chunav hai.
par is puri baatcheet ka kafka kamu ya beetalon se kya sambandh hai nahin samajh paya.

anil said...

bahut sundar alekh hai jangali ji ke pagalpan ka, sristi unka asamman kar ke gauravnit hogi

unki jevan gatha bachho ko school mein padhai jayey to kitn aanad ho

anil
anilg@sristi.org