यह मेल मुझे अभी मिला है. सोने का बखत है और इसे पढ़कर नींद ग़ायब, चैन ग़ायब. ये मसला है क्या हम लोगों के साथ?
हबीब बाबा को गए अभी समय हुआ ही कितना है. मुझे पता है वे होते तो ऐसे में क्या करते. आप क्या करेंगे/कहेंगे, मुझे नही मालूम पर इस हादसे को सामने लाने के लिए सबसे पहले मैं श्री प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच का आभार व्यक्त करता हूं कि उन्होंने निम्नलिखित विरोध ईमेल की सूरत में दर्ज़ कराया. इस के लिए प्रणय जी को सलाम.
यह पोस्ट लगाता हुआ मैं सन्न हूं!
छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी छवि के अनुकूल ही आचरण करते हुए १९७४ से खेले जा रहे हबीब तनवीर के अंतर्रष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नाटक 'चरणदास चोर' पर शनिवार ८ जुलाई से प्रतिबंध लगा दिया. मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित यह नाटक श्री विजयदान देथा ने लिखा था जिसका नाम था 'फ़ितरती चोर'. हबीब साहब ने इसे छ्त्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोक नाट्य और संगीत परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक की पटकथा और अदायगी में काफ़ी परिवर्तन किये. 'चरणदास चोर' अनेक दृष्टियों से एक समकालीन क्लासिक है. एक अदना सा चोर गुरू को दिए चार वचन- कि सोने की थाली में वह खाना नहीं खाएगा, कि अपने सम्मान में हाथी पर बैठ कर जुलूस में नहीं निकलेगा, राजा नहीं बनेगा और किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा के अलावा गुरू द्वारा दिलाई गई एक और कसम कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, का पालन अंत तक करता है और इन्हीं वचनों को निभाने में उसकी जान चली जाती है. चरणदास को कानून और व्यवस्था को चकमा देने की सारी हिकमतें आती हैं. वह बड़े लोगों को चोरी का शिकार बनाता है. नाटक में चरणदास के माध्यम से सत्ता-व्यवस्था, प्रभुवर्गों और समाज के शासकवर्गीय दोहरे मानदंडों का खेल खेल मे मज़े का भंडाफ़ोड़ किया गया है. एक चोर व्यवस्था के मुकाबले ज़्यादा इंसाफ़पसंद, ईमानदार और सच्चा निकलता है. ज़ाहिर है कि यह नाटक लोककथा पर आधारित है, छ्त्तीसगढ़ मे चल रहे संघर्षों पर नहीं. फ़िर सत्ता को इस नाटक से कैसा खतरा महसूस होने लगा? यह नाटक तो १९७४ में पहली बार खेला गया जब छत्तीसगढ़ राज्य के गठन तक की संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती थीं. छ्त्तीसगढ़ के आज के तुमुल-संघर्षों की आहटें भी नहीं थीं. नाटक न जाने कितनी भाषाओं में अनुवाद कर खेला गया, देश और विदेश में खेला गया. १९७५ में श्याम बेनेगल ने इसपर फ़िल्म भी बनाई. दरअसल क्लासिक की खासियत यही है कि वह अपने ऊपरी कथ्य से कहीं ज़्यादा बड़ा अर्थ संप्रेषित करती है. अपने ऊपरी कथ्य, पात्र, देश-काल को लांघ कर बिलकुल भिन्न युग-परिवेश में प्रासंगिक हो उठती है. क्यों महाभारत के तमाम द्वंद्व अलग अलग युग-परिवेश में बारंबार प्रासंगिक हो उठते हैं? फ़िर 'चरणदास चोर' तो हबीब साहब के हाथों पूरी तरह छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति में ही ढल गया. कहीं यह नाटक छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से से ही उस राजसत्ता के चरित्र को तो ध्वनित नहीं कर रहा, जो उस प्रदेश के सारे ही प्राकृतिक संसाधनों के कार्पोरेट लुटेरॊं के पक्ष में आदिवासी जनता के खिलाफ़ युद्ध छेड़े हुए है? कहीं यह नाटक दर्शकों और पाठकों के अवचेतन में दबे व्यवस्था विरोधी मूल्यों और आकांक्षाओं को वाणी तो नहीं दे रहा? कहीं यह नाटक अपनी क्लासिकीयता के चलते एक बिलकुल अप्रत्याशित तरीके से आज के छ्त्तीसगढ़ की सता और लोक के बीच जारी संग्राम की व्यंजना तो नहीं कर करने लगा? यह सारे ही सवाल इस प्रतिबंध के साथ उठने स्वाभाविक हैं.
वे लोग भोले हैं जो छत्तीसगढ़ सरकार की इस दलील को मान बैठे हैं कि सतनामी गुरु बालदास की आपत्तियों के मद्देनज़र यह प्रतिबंध लगाया गया. बालदास जी की आपत्तियां अगर कुछ महत्व रखती हैं, तो उनपर 'नया थियेटर' के साथियों से बातचीत भी की जा सकती थी और आपत्तियों को दूर किया जा सकता था. संस्कृतिकर्मियों और सतनामी धर्मगुरुओं की पंचायत भी बैठ सकती थी, हल निकल सकता था. लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी. याद आता है कि किस तरह 'दलित अकादमी' नामक एक संस्था ने कुछ साल पहले प्रेमचंद की 'रंगभूमि' की प्रतियां जलाई थीं. बाद में बहुतेरे दलित लेखकों ने इसकी निंदा करते हुए इस बात का पर्दाफ़ाश किया कि यह सब संघ संप्रदाय द्वारा प्रायोजित था. धार्मिक और जातिगत अस्मिताओं का दमन और विद्वेष के लिए इस्तेमाल संघ-भाजपा की जानी पहचानी रणनीति है. खुद सरकार और बालदास के बयानों पर ध्यान दिया जाए तो सतनामी संप्रदाय ने इस नाटक पर २००४ से पहले कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं कराई थी, जबकि नाटक १९७४ से खेला जा रहा था और बहुधा इसके अभिनेता भी सतनामी संप्रदाय से आते थे.
छत्तीसगढ़ सरकार ज़बरदस्त तरीके से दुरंगी चालें खेल रही है. एक ओर तो 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' के ज़रिए मुख्यमंत्री और संस्कृतिमंत्री के साथ तमाम जनवादी और प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों को बैठाया और दूसरी ओर महीना खत्म होते न होते 'चरणदास चोर' को प्रतिबंधित कर दिया. ज़ाहिर है कि बालदास जी की चिट्ठी ' प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' से पहले की घटना है और प्रतिबंध का मन भी सरकार इस सम्मान समारोह से पहले ही बना चुकी थी. सम्मान समारोह का तात्कालिक उपयोग यह हुआ कि जिन हलकों से प्रतिबंध के विरोध की आवाज़ उठ सकती थी उन्हें इस आयोजन के ज़रिए 'डिफ़ेंसिव' पर डाल दिया गया. उन्हे सरकार ने इस स्थिति में ला छोड़ा है कि वे अगर इसका विरोध करें भी तो उस विरोध की कोई विश्वसनीयता लोगों की निगाह में न रह जाए.
हबीब साहब के नाटकों पर संघ-भाजपा का हमला कोई नया नहीं है. अपने जीते जी उन्होंने इसका बहादुरी से सामना किया था. महावीर अग्रवाल को दिये एक साक्षात्कार में हबीब साहब ने कहा, " 'नया थियेटर' की दुसरी चुनौतियों में प्रमुख है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के खिलाफ़ कलात्मक संग्राम. आप जानते हैं फ़ासिज़्म का ही दूसरा नाम है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'. नए छत्तीसगढ़ राज्य में २९ जून २००३ से २२ जुलाई २००३ तक 'पोंगवा पंडित' और 'जिन लहौर नई देख्या वो जन्मई नई' के २५ मंचन हुए... नाटक का केवल विरोध ही नहीं हुआ, वरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सोची समझी रणनीति के तहत हमले किए गए हैं. संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लाठी का प्रयोग संघ परिवार समय समय पर करता रहा है. ... हमले की शुरुआत १६ अगस्त २००३ को ग्वालियर में हुई. फ़िर १८ अगस्त को होशंगाबाद में, १९ अगस्त को सिवनी में, २० अगस्त को बालाघाट और २१ अगस्त को मंदला सहित अलग अलग शहरों में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और आर.एस.एस. के लोग उपद्रव करते रहे. २४ अगस्त २००३ को भोपाल के संस्कृतिकर्मियों ने भाजपा प्रदेश कार्यालय के ठीक सामने 'पोंगवा पंडित' पर संवाद करने की कोशिश की. वहां हमारे पोस्टर्स, बैनर छीनकर आग के हवाले कर दिए गए. गाली गलौज के साथ ईंट पत्थर फेंकने का काम फ़ासीवादी ताकतों ने किया.... मैनें उन्हें बारंबार समझाने की कोशिश की कि 'पोंगवा पंडित' कोई नया नाटक नहीं है. नाटक बहुत पुराना है और पिछले ७०-७५ वर्षों से लगातार खेला जा रहा है. १९३० के आसपास छ्त्तीसगढ़ के दो ग्रामीण अभिनेताओं ने इसे सबसे पहले 'जमादारिन' के नाम से प्रस्तुत किया था." (सापेक्ष-४७, पृष्ठ ३८-३९) क्या पता था हबीब साहब को कि उनकी मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद कोई अपनों में से ही गोरखपुर जाकर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के कसीदे पढ़ आएगा. 'छायानट' पत्रिका, अप्रैल,२००३ के अंक १०२ में मोनिका तनवीर ने महावीर अग्रवाल को दिए इंटरव्यू में कहा, "... १९७० में 'इंद्रलोक सभा' नाटक हमने तैयार किया तो जनसंघ के कुछ गुंडों ने हबीब पर हमला किया. और एक मुसलमान की पत्नी होने के कारण मुझे भी बहुत धमकाया गया." २६ सितम्बर, २००४ को 'दि हिंदू' को दिए एक इंटरव्यू में हबीब साहब ने एक और वाकया बयान किया है. कहा, " महज दो हफ़्ते पहले 'हरिभूमि' नामक रायपुर के एक दैनिक ने पूरे दो पन्ने 'बहादुर कलारिन' पर निकाले और मेरे खिलाफ़ तमाम तरह के आरोप लगाए. यह नाटक 'ईडिपल समस्या' पर आधारित एक लोक नाट्य है. हज़ारों छत्तीसगढ़ी नर=नारियों ने इसे दत्तचित्त होकर देखा, जबकि मुझे आशंका थी कि वे अगम्यागमन (इंसेस्ट) की थीम को ठीक समझेंगे कि नहीं. लेकिन भाजपा के दो सांसदों ने आपत्ति की कि मैनें यह थीम क्यों उठाई. ... मैनें कहा कि 'ईडिपल काम्पलेक्स' हमारे लोक ग्यान का हिस्सा है' ... वे बोले कि यदि ऎसा है भी, तो पूरी दुनिया में इसका ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रुरत है? इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था."
दरअसल 'चरणदास चोर' पर प्रतिबंध को भाजपा सरकारों की 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादी' मुहिम का ही हिस्सा समझा जाना चाहिए, बहाना चाहे जो लिया गया हो. किसी भी लोकतंत्र में ऎसे फ़र्ज़ी आधारों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने की इजाज़त नहीं दी जा सकती.
मैं व्यक्तिश: और अपने संगठन जन संस्कृति मंच की ओर से सभी जनपक्षधर ताकतों से अपील करुंगा कि 'चरणदास चोर' पर प्रतिबंध पर चौतरफ़ा विरोध दर्ज़ कराएं.
प्रणय कृष्ण,
महासचिव,
जन संस्कृति मंच
19 comments:
नाटक प्रतिबंधित करने के लिये हमारा भी विरोध दर्ज किया जाये ।
SHARMNAK, KYA Habib sahab ki maut ka hi intzar tha?
AShok bhai, I`m also shocked. Ek badi ranniti ki zarurat hai. kuchh der baad phir aunga kuchh kahne.
खैर जी,
और क्या उम्मीद की जा सकती है?
कभी-कभी तो आश्चर्य होता है, इतना अंधेरा होने के बाबजूद इन जुगनुओं को बर्दाश्त कैसे किया जाता है...
शायद इनसे खतरा महसूस नहीं करता अभी अंधेरा...
इस खबर से लगा कि...
खतरा महसूस किया जा रहा है...
अंधेरा डरा हुआ है, ख़ौफ़ खा रहा है...
वे कमजोर हो रहे हैं साथी...
आज से कई साल पहले गुडगाँव में इस नाटक का मंचन हुआ था जिसमें गुरु की भूमिका मैंने निभाई थी और इससे हुई कमाई से काफी मज़ा रहा था सो इसे बैन करने की बात तो अच्छी सी नहीं लगी ! आज अंग्रेज़ी के हिन्दुस्तान टाइम्स में इन्द्रजीत हाज़रा ने इस प्रकरण की निंदा विस्तार से की है मगर इसका दोषी वो पंथ विशेष के धर्मगुरु को बता रहे हैं और सी. एम. तथा शिक्षा मंत्री को उनके दबाव में आ जाने वाला बता रहे हैं जबकि ये लेख एक दल विशेष को ही आड़े हाथों लेता दिख रहा है . असलियत है क्या ? मेरा ख़याल है कबाड़ परिवार के एक सदस्य अनिल पुसदकर तो रहते भी छत्तीसगढ़ में हैं तो आइये उनसे पूछें के असल बवाल है क्या ? मात्र वोट की राजनीति का दबाव या कोई वैसा एजेंडा जिसका ज़िक्र यहाँ हुआ है ? उनकी बात सुनकर ही मैं इस पग का विरोध, समर्थन या मूक दर्शन करूंगा .
बात रस्मी विरोध दर्ज कराने से आगे की होनी चाहिए। क्या इतिहास को आगे की ओर गति देने वाले सर्वहारा वर्ग की पार्टी को चवन्नी मेंबरी वाली खुली पार्टी होनी चाहिए जिसे कि राज्यसत्ता जब चाहे कुचल डाले, इस सवाल पर सभी लोग सोचें। लेनिन ने तो पार्टी के ढांचे को गुप्त रखने की बात कही थी पर हमारे माकपा-भाकपा और माले के लोग तो अखाड़े का मैदान संसदीय जनतंत्र को ही मानकर चल रहे हैं। जन संस्कृति मंच जिस राजनीति का पैरोकार है उस पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या उसके बताये रास्ते पर चलकर फासीवादी ताकतों का मुकाबला किया जा सकता है। इसका स्पष्ट उत्तर है नहीं।
साथियो सवाल और भी हैं पर अभी तो रमन सरकार के इस कृत्य की हम घोर निंदा करते हैं।
हम छत्तीसगढ़ सरकार के इस कुकृत्य की घोर निंदा करते हैं। छत्तीसगढ़ सरकार के इस दमघोंटु फासीवादी हिटलरी फर्मान की हम खुली और पुरजोर मुखालफत करते हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार मुर्दाबाद
छत्तीसगढ़ सरकार मुर्दाबाद
इसमें शाक्ड होने वाली क्या बात है? क्या प्रलेस-जलेस के लोगों की तरह आप भी यह सोचते हैं कि यह व्यव्स्था और छत्तीसगढ की सरकार का विरोध बस नक्सलवाद तक सीमित है। अरे भाई खाकी कच्छे वालों से और उम्मीद क्या है?
हां अब जिन्हें वहां और मध्य प्रदेश में पुरस्कार लेने हैं तथा समितियों के ज़रिये भडैंती ज़ारी रखनी है वे तो इस पर चुप रहने के तर्क भी ढूंढ ही लेंगे।
वैसे हबीब साहब के इस नाटक को अपने राज में ख़ूब प्रदर्शित कराने वाले कांग्रेसियों से आशा बांधे लोगों के भी रुख को देखा जाना चाहिये।
रंगनाथ जी इस मुर्दाबाद में हम भी शामिल हैं पर इसके आगे …।
Pallav, shayad isi ka intezar tha.
यह कहानी मेरे एक दूर के रिश्तेदार की लिखी होने के बावजूद मैं इसे आज तक नहीं पढ़ने और नाटक नहीं देख पाने का दोषी हूँ। विरोध दर्ज हो।
फिलहाल तो सबसे पहले इसे पढने का प्रबन्ध करता हूँ।
प्रतिबंध की नंगी सच्चाई सामने आनी चाहिये। प्रतिबंध बरकरार तो रह ही नहीं सकता है।
अनुनाद पर पंकज चतुर्वेदी के खुले ख़त और बाद में प्रणय के वक्तव्य के प्रकाशन साथ ही हमने उस षड्यंत्र के खिलाफ आवाज़ उठा दी थी, जो आप सबके सामने इस रूप में नग्न होकर खड़ा है. हमें संतोष है कि हमने विरोध की एक सही शुरूआत की थी.
sarkarein aise faisle kaise le leti hain...sarkar hai kya...kaun hai sarkar...ve hum jaise hi vyakti hain...lekin ve darpok hain...magar ve hamein bhi darpok samajhate hain...hamein kiska dar? unke paas khone ko satta hai...hamare paas aisa kuch nahin...ye charandas chor par pratibandh hi nahin..humari abhivyakti ke samvedhanik adhikar par hamla hai...murdabad to hum karte hi hain...aur age kya karein...kya kar sakte hain...kitini jaldi kar sakte hain...ye hamein sochana hai...charandas ka jab tak chattisgarh mein manchan nahin hota hamein kyon chain aye!
maarmik aur vichaarottejak . turant pratirodhi action darkaar hai .
------pankaj chaturvedi
kanpur
This is not a new practice.fear compels the rulers to resort to such undemocratic activities of snatching the freedom of expression. But where are those from literary fraternity who were present in raipur extending their silent support to the chief minister's appeal for creative writing to check the naxalite activities.
It's hardly been two months when the wizard of folk wonders on stage took the final exit and these shameless politicians started playing the 'Rashtrawaad-Rashtrawaad' game in the name of national interest.The gathering of literary people at raipur has certainly supplied some latent support to the Chattisgarh Govt. to act in such manner.
I very strongly feel that there should be a strong opposition for such bans trying to snatch the freedom of expression.
We must thank Mr.Pranaya krishna for spreading the word and extend our solidarity to his efforts.
On behalf of IPTA Indian People's Theatre Association
Akhilesh dixit
Deptt.of Mass Media & Communication
MGAHV,Wardha-Maharashtra.
"चरणदास चोर" पर प्रतिबंध! इनसे यही उम्मीद थी। अब यह आशा करना कि यह किसी नाटक का मर्म समझेंगे, मूर्खता ही है। कोई इन्हें यह भी सुझाओ कि "आगरा बाज़ार", "मोर नाम दमाद" में भी इन्हीं पर व्यंग्य किया गया है, इन्हें भी बैन कर दें। मुझे "चरणदास चोर" में चोर-पुलिस की लुकाछिपी का दृश्य याद आ गया। हबीब जी मरने के बाद भी भूत बनकर सबकी नींद हराम किए हैं।
अरे रमन जी, "कामदेव का सपना..." भी बड़ा खतरनाक है...
- आनंद
चरणदास चोर पर सरकार ने लगाया प्रतिबंध
Bhaskar Correspondent Saturday, August 01, 2009 05:09 [IST]
स्व. हबीब तनवीर द्वारा लिखी चरणदास चोर नाटक की किताब पर छत्तीसगढ़ सरकार ने प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है। इसमें सतनामी समाज के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी होने की शिकायत मिली है। समाज के धर्मगुरु बालदास ने शुक्रवार को मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से मिलकर यह शिकायत की। यह किताब वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है। प्रदेश के सरकारी मिडिल स्कूलों की लाइब्रेरियों में इसकी करीब 7 हजार प्रतियां हैं। आपत्ति के बाद शिक्षा विभाग ने किताब पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया।
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संभव हो तो पूरे घटनाक्रम की खबर जुटायें।
केसव कहि न जाय का कहिए !
Tanvir accomplished the job perfectly, and passed away. A lot have changed since this "Charan Das Chor" was written. The Drama remains true to its essence, years after years and never loses its relevance,just few nudges here and there, called improvisations in theater language.
This could be purely a co-incidence that Chattisgarh govt. decided calling off the act when Tanvir just left the Stage. Now...does it imply that admn is in direct confrontation mode, feels threatened and we soon see evolution of mightier pen. Tanvir just passed it off to our times, kind of time travel, and I am very optimistic about seeing "Charan das Chor -II" by someone amongst us, someone from my neighborhood, or may be from yours.
सतनामी समाज बरसों से इस नाटक को देखता आ रहा है। इसमें कुछ सतनामी कलाकारों ने काम भी किया है। फिर अचानक आपत्ति क्यों हो गई। इसके पीछे क्या कारण हैं और कौन इसे संचालित कर रहा है, इन सब चीजों की गहराई में जाना होगा। सतनामी समाज को विश्वास में लेकर ही यह लड़ाई लडऩी चाहिए, ताकि छत्तीसगढ़ सरकार की विभाजनकारी नीति की पोल खोली जा सके। सतनामी समाज की आपत्ति की आड़ लेकर चरणदास चोर को प्रतिबंधित करना अगर जायज है तो क्या इसी तर्क का आधार पर ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताडऩा के अधिकारी जैसी चौपाई पर स्त्रियों और शूद्रों की आपत्ति के कारण रामचरित मानस पर भी प्रतिबंध लगाया जा सकता है? क्या छत्तीसगढ़ सरकार ऐसा करने की हिमाकत कर सकेगी?
2007 में एक साक्षात्कार के दौरान हबीब साहब ने कहा था-‘सवाल सिर्फ मेरे नाटकों का नहीं है। सवाल अभिव्यक्ति की आजादी का है। आप कोई फिल्म बनाते हैं, तो बवाल हो जाता है। पेंटिंग बनाएं तो बवाल। लेखक को भी लिखने से पहले दस बार सोचना पड़ता है कि इससे पता नहीं किसकी भावना आहत हो जाए और जान-आफत में। दुख की बात यह है कि सरकार इस सब पर या तो चुप है, या उन्मादियों के साथ खड़ी नजर आती है।'
उनकी बात एक बार फिर सही साबित हो गई है।
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