हत्यारे की शाल की
गुनगुनी ग़र्मी के भीतर
वे चुप हैं
वे चुप हैं
गिनते हुए पुरस्कारों के मनके
कभी-कभी आदतन
बुदबुदाते हैं एक शहीद कवि की पंक्तियाँ
उस कविता से सोखते हुए आग
वे चुप हैं
वे चुप हैं
मन ही मन लगाते आवाज़ की कीमत
संस्थाओं की गुदगुदी गद्दियों में करते केलि
सारी आवाज़ों से बाखबर
वे चुप हैं
वे चुप हैं
कि उन्हें मालूम हैं
आवाज़ के ख़तरे
वे चुप हैं
कि उन्हें मालूम हैं
चुप्पी के हासिल
वे चुप हैं
कि धूप में नहीं पके उनके बाल
अनुभवों की बर्फ़ में ढालते
विचारों की शराब
वे चुप हैं
चुप्पी ख़तरा हो तो हो
ज़िन्दा आदमी के लिए
तरक्कीराम के लिए तो
मेहर है अल्लाह की
उसके करम से अभिभूत
वे चुप हैं
9 comments:
अत्त दा भला ना बरसना ,अत्त दी भली ना धुप्प
अत्त दा भला ना बोलना , अत्त दी भली ना चुप्प
--एक लाहौरी कहावत.
behad prasangik, hamesha prasangik
kuchh kahane kaa waqt nahi hai kuchh na kaho, khamoos raho ...
tum bhi koi MANSOOR ho jo shooli pe charho,khamosh raho .....!!
एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं--
" नहीं आना चाहिए गुस्सा
नहीं आता है गुस्सा
आती है एक फीकी सी हंसी
जब आना चाहिए गुस्सा "
- कृष्ण कल्पित
हमने अपनी मुखरता और गुस्से का कितना समझदारी से अनुकूलन किया है!
चुप बचा लेती है
चुप खा जाती है चुप है ज्ञान भी चुप ही है मूर्खता पर मौन का आवरण
चुप व्यर्थ है चुप शस्त्र है
जिसका बहुत बोलना नहीं क्रांति उसकी चुप्पी में भी नहीं है धार
चुप्पी डर है चुप्पी डराती है
चुप्पी समझौता है
चुप्पी लड़ाती है
चुप्पी स्वार्थ पर सवार है चुप्पी त्याग का घर है
चुप्पी मौत है चुप्पी आस है, आस में सांस है
चुप षडयन्त्र है चुप योजना है चुप संतुष्टि है चुप बगावत है चुप छल है चुप बल है
बोलकर बता
तेरी चुप क्या है?
(घंटी बज गई थी जाना पड़ा
लेकिन इसे पूरा करने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, माफ़ करना यारों...)
पुनश्चः (क्लासिक नहीं !!)
चुप नहीं है इतनी सादा
चुप रखती है गर्भ
चुप रचती है रहस्य
चुप अभिमान है
चुप विनय है
सम्मान है चुप
चुप अपमान है
चुप क्रोध है
चुप प्रेम है
चुप सज़ा है, दण्ड है
चुप क्षमा है, दया है चुप
प्रतिशोध भी है चुप
चुप इन्क़ार है
चुप स्वीकार है
चुप बोलती है
चुप चुप ही रहती है
चुप रचती है इतिहास
चुप गढ़ती है भविष्य चुपचाप
चुप कभी नहीं होती कोई वर्तमान
चुप अपराध है, लज्ज़ा है, ग्लानि है चुप
चुप उपेक्षा है
पर चुप नहीं है कोई ध्वजा
चुप नहीं है भाईचारा
चुप नहीं है जग सारा
चुप करती है विचलित
चुप कराती है संदेह
चुप दिलाती है क्रोध
इससे पहले कि चुप खड़ा करे कोई बखेड़ा
चुपचाप बतादे तेरी चुप क्या है ?
चुप ताक़त है
इतनी कि बर्दास्त नहीं होती है
चुप !
वो हैं
जानते हैं, पहचानते हैं
चुप को
और चुप हैं लगातार !!
bahut achchhi kavitaa. anuvaad ke liye aapke prati aabhaar.
---pankaj chaturvedi
kanpur
मित्रों
दुख, आवेश और पीडा के मुश्किल क्षणों में लिखी यह कविता मैने चरणदास चोर और उदयप्रकाश प्रकरण पर ही नहीं पूरे साहित्यिक सांस्कृतिक परिवेश के लगातार पतनोन्मुख होते जाने और तमाम मठाधीशों की इस पर बेशर्म चुप्पी के ख़िलाफ़ लिखी थी। इसे मेरा प्रतिरोध ही माना जाना चाहिये।
आप सबके स्वीकार का आभार।
वे चुप हैं,
और गुनगुना रहे हैं
'समझदारों का गीत'
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