Friday, August 21, 2009
भर लाए, कलाली दारू दाखा रो !
आशा है आप लोगों ने कल राजस्थानी लोकसंगीत का आनन्द लिया होगा. इधर मेरे हाथ बंजारों के विश्वव्यापी संगीत का छोटामोटा ख़ज़ाना हाथ लगा है सो लांगा मंगणियारों के इस शानदार संगीत पर एकाध और पोस्ट का स्कोप तो बनता ही है. लेकिन वह सम्भवतः कल.
फ़िलहाल आज राजस्थान से ही सुनिये पद्मश्री अल्लाह जिलाई बाई की आवाज़ में कुछ रचनाएं. क़रीब एक साल पहले यानी बीस अगस्त २००९ को भाई संजय पटेल ने इसी दिव्य स्वर में एक मांड सुनवाई थी. अल्लाह जिलाई बाई की आवाज़ के जादू को यूं बयान किया था संजय भाई ने:
... मुलाहिज़ा फ़रमाएँ बीकानेर राज-दरबार की बेजोड़ गायिका अल्ला-जिलाई बाई की गाई ये माँड. कैसे अनूठे सुर की मालकिन थीं ये लोक-संगीत गायिका. खनकती आवाज़ से झरते राजस्थानी अदब और रंगत के दमकते तेवर. ये आवाज़ आपको कहीं सिध्देश्वरी देवी, कहीं बेगम अख़्तर तो कहीं रेशमा की आवाज़ के टिम्बर की सैर करवाती है. आँख बंद कर सुनें, शब्द पर जाने की क्या ज़रूरत है....उस अहसास में जियें जो राजस्थान के मरूथल की रेत में दस्तेयाब है....तारीख़ और घड़ी को रोकने की ताक़त है इस आवाज़ में...
१ फ़रवरी १९०२ को जन्मी हज्जन अल्लाह जिलाई बाई (मृत्यु ३ नवम्बर १९९२) बीकानेर के एक गायक परिवार में जन्मीं. उनकी चाचियां अपने समय की लब्धप्रतिष्ठ गायिकाएं थीं. दस साल की आयु से उन्होंने उस्ताद हुसैन बख़्श ख़ां साहब से तालीम हासिल करना शुरू किया और बीकानेर के महाराजा गंगा के दरबार में गायन भी. आगामी वर्षों में उनकी प्रतिभा को संवारने में अच्छन महाराज का बड़ा हाथ रहा.
मांड, ठुमरी, ख़याल और दादरा गाने में महारत रखने वाली अल्लाह जिलाई बाई को सरकारों ने तमाम पुरुस्कारों से नवाज़ा.
आज उनकी आवाज़ में सुनिये तीन दुर्लभ रचनाएं. इनमें उनकी अतिविख्यात 'भर लाए कलाली दारू दाखा रो' शामिल है और बमय डाउनलोड लिंक के संजय भाई द्वारा सुनवाई गई उनकी ट्रेडमार्का 'केसरिया बालम' भी. और दर्द से पगी 'मूमल' भी.
कलाली
डाउनलोड लिंक
http://www.divshare.com/download/8247624-712
मूमल
डाउनलोड लिंक
http://www.divshare.com/download/8247836-781
केसरिया बालम
डाउनलोड लिंक
http://www.divshare.com/download/8247834-270
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
14 comments:
अल्लाह जिलाई बाई अद्भुत गायिका थीं . मांड ’केसरिया बालम’ कम से कम पन्द्रह से बीस अलग-अलग आवाजों में सुना होगा जिनमें मेहदी हसन और रेशमा जैसे दिग्गज भी शामिल हैं . पर जो तादात्म्य जिलाई बाई के साथ होता है वैसा और कहीं नहीं . इतना डूबकर और इतने पैशन और इतनी परिपूर्णता के साथ गाया है कि गीत और गायिका एकमेक हो गए हैं .
उनका एक और अद्भुत गीत है ’ए मां हेलो देती लाज मरूं,झालो म्हासूं दियो न जाय/बोलूं तो पोंचूं नहीं,हेलो देती लाज मरूं/घड़ी एक बालमा थांसूं एक-दो बात करूं’ . जब सुनता हूं मन तरल हो उठता है . परम्परा और पर्दा-प्रथा की अमानवीयता की पृष्ठभूमि में उठता दाम्पत्य-प्रेम का यह उत्कट स्वर -- स्वकीय प्रेम की यह करुण पुकार भला किसे द्रवित न करेगी .
ज़ुरूर सुनिएगा .
बीकानेर में अब उनके नाम से मांड गायकी के लिए एक अकादमी भी स्थापित है जो विशेष रूप से मांड गायकी के प्रशिक्षण के लिए ही जानी जाती है .
भूलाए नहीं भूलती माँ साब से सन पिच्यासी में जोधपुर में हुई मुलाक़ात. नई नई शादी करके पत्नी के साथ उसके मामा के घर गया था. माँ साब आकाशवाणी के एक कंसर्ट के लिये पधारे थे. राजस्थान पत्रिका में ख़बर पढ़ी की अल्ला जिलाई बाई आज आकाशवाणी के कंसर्ट में गाने आईं हैं.पारिवारिक कामों को तज कर जा पहुँचा. ग्रीन रूम में साज़िन्दों के साथ बिराजीं थी मरूभूमि की मलिका. चेहरे से टपकता ऐसा नूर की सामने वाला जल जाए. कठें सू आया आप ?(कहाँ से आए आप)मैंने अपने मालवा के बारे में बताया तो कहने लगीं मालावी तो राजस्थाणी की छोरी हे(मालवी तो राजस्थानी की पुत्री है)कई सुणणो चावो (क्या सुनना चाहते हो) मैंने कहा माँ साब : बाई सारा बीरा सुना दीजियेगा...बोलीं जरूर गावांगा...सारंगी,तबले और हारमोनियम पर जब सुर छेड़ा तो लगा जैसे तपता ऑडिटोरियम वातानुकूलित हो गया है. राग-रागिनियों के बारे में आपका क्या ख़याल है पूछा मैंने . जो जवाब था वह आप भी सुन लीजिये:म्हें तो खेताँ,बागाँ और घर-आँगण से सुर ताल ले आया हाँ म्हाने कई ठा कि राग-रागिनियाँ कई होवे..म्हें तो जो मन केवे ..आप जेसा सुणणे वाळा लेवे ...गा देवाँ(हम तो खेतों,बाग़-बग़ीचों और घर आँगन से सुर ताल ले आते हैं , हमें क्या मालूम राग-रागिनियाँ क्या होती हैं,जो मन कह दे या आप जैसे दर्दी कह दें गा देते हैं.)
आज तक़रीबत चौबीस बरस हो गए...माँ साब चले भी गए..लेकिन भूलाए नहीं भूलती वह मुलाक़ात जैसे अभी बतिया रहीं हो...बड़ा नेक काम किया दादा आपने इस अनसंग क्वीन को कबाड़ख़ाना पर मान देकर....मन केसरिया हो गया.
भूलाए नहीं भूलती माँ साब से सन पिच्यासी में जोधपुर में हुई मुलाक़ात. नई नई शादी करके पत्नी के साथ उसके मामा के घर गया था. माँ साब आकाशवाणी के एक कंसर्ट के लिये पधारे थे. राजस्थान पत्रिका में ख़बर पढ़ी की अल्ला जिलाई बाई आज आकाशवाणी के कंसर्ट में गाने आईं हैं.पारिवारिक कामों को तज कर जा पहुँचा. ग्रीन रूम में साज़िन्दों के साथ बिराजीं थी मरूभूमि की मलिका. चेहरे से टपकता ऐसा नूर की सामने वाला जल जाए. कठें सू आया आप ?(कहाँ से आए आप)मैंने अपने मालवा के बारे में बताया तो कहने लगीं मालावी तो राजस्थाणी की छोरी हे(मालवी तो राजस्थानी की पुत्री है)कई सुणणो चावो (क्या सुनना चाहते हो) मैंने कहा माँ साब : बाई सारा बीरा सुना दीजियेगा...बोलीं जरूर गावांगा...सारंगी,तबले और हारमोनियम पर जब सुर छेड़ा तो लगा जैसे तपता ऑडिटोरियम वातानुकूलित हो गया है. राग-रागिनियों के बारे में आपका क्या ख़याल है पूछा मैंने . जो जवाब था वह आप भी सुन लीजिये:म्हें तो खेताँ,बागाँ और घर-आँगण से सुर ताल ले आया हाँ म्हाने कई ठा कि राग-रागिनियाँ कई होवे..म्हें तो जो मन केवे ..आप जेसा सुणणे वाळा लेवे ...गा देवाँ(हम तो खेतों,बाग़-बग़ीचों और घर आँगन से सुर ताल ले आते हैं , हमें क्या मालूम राग-रागिनियाँ क्या होती हैं,जो मन कह दे या आप जैसे दर्दी कह दें गा देते हैं.)
आज तक़रीबत चौबीस बरस हो गए...माँ साब चले भी गए..लेकिन भूलाए नहीं भूलती वह मुलाक़ात जैसे अभी बतिया रहीं हो...बड़ा नेक काम किया दादा आपने इस अनसंग क्वीन को कबाड़ख़ाना पर मान देकर....मन केसरिया हो गया.
काश शब्दों से नमन् संभव हो पाता !!!
प्रियंकर जी
अल्लाह जिलाई बाई जी के बारे में जानकारी देने का शुक्रिया. जिस गीत का ज़िक्र आपने किया है वह कैसे मिलेगा? क्या आप के पास है? यदि हां तो मेल से भेजने का कष्ट कर सकते हैं? अहसान होगा.
पुनः धन्यवाद.
संजय भाई
अहसान तो आपका है कि आप ही की वजह से इस महान गायिका से पहली बार परिचय हुआ था.
कबाड़ख़ाने पर आपकी उपस्थिति का एक मुद्दत से बहुत शिद्दत से इन्तज़ार हो रहा है दादा!
सुभान अल्लाह !!!.खजाना लाये है जी आज निकालकर
अशोक जी एक बार सीकर से दिल्ली आते समय बहरोड़ मिडवे पर इस अल्बम की सी डी मिल गयी थी तब से हम तो इनके इन खनकदार गानों को सुनने के पुरे मजे ले रहे है |
शताब्दियों पहले जैसलमेर की जिस मूमल को देखकर सिंध का विवाहित राजकुमार महेन्द्रा सांसारिक मर्यादाओं को भूल कर प्रेम में बावला हो गया था और अपने ऊँट चीखल पर बाड़मेर से होकर जैसलमेर के रास्ते भटकता रहता था उस शाश्वत मूमल को अल्लाह जिलाईबाई के अमर स्वर ने इस तरह गाया कि आत्मा की लौ थरथराने लगती है.
नारियल जैसे शीश वाली जिसकी चोटी वासुकी नाग सद्रश है, ऐसी मृग लोचना भौंहों और चंपा की डाल जैसी बांहों वाली मूमल तुम जुग जुग जियो!
वाह अशोक दा!
अभी एक सुनी मज़ा आ गया...बाकी कल सुनूंगा....खजाना है ये तो वाकई
बहुत आभार !
अशोक भाई ,
अल्लाह जिलाईबाई के उस गीत का लिंक दे रहा हूं .सामूहिक सांस्कृतिक खजाने उर्फ़ कबाड़खाने के माध्यम से सभी रसिक सुनें-सराहें इसे :
http://www.youtube.com/watch?v=u1fRnQK6C24
पिछली बार इस पर ध्यान नहीं गया था। यह "भर लाए" नहीं हैं "भर ला(आदेश, आग्रह) ऐ (सम्बोधन)" है। सही है "भर ला, ऐ कलाळी!"
Post a Comment