Tuesday, August 11, 2009
हमारे आंसू जो नमक बनते थे हमारी रोटी के लिए : यारोस्लाव साइफ़र्त की कविताएं - १
यारोस्लाव साइफ़र्त (१९०१-१९८६) साहित्य का नोबेल सम्मान पाने वाले पहले चेकोस्लावाकियाई बने. उनकी कविताएं इस तथ्य का प्रमाण हैं कि उन्होंने अपने शहर प्राग और प्रकृति को अथाह प्रेम किया. साधारण भाषा का प्रयोग उनकी विशेषता है, और उनकी कविताओं में पाठकों को चमत्कृत कर देने की ताकत है. उनके अपने देश ने उन्हें कितना सम्मान दिया यह मशहूर उपन्यासकार मिलान कुन्देरा के इस वक्तव्य से जाहिर है: "१९६९ में जब हमारा नन्हा देश रूसी आतंक के ख़िलाफ़ लड़ रहा था और हार रहा था, हमें अपने अस्तित्व को न्यायोचित ठहराने के लिए तर्कों की ज़रूरत थी. ... सबसे बड़ा तर्क हमारे सामने था - अपनी मेज़ पर बेचैन झुका बैठा हमारा महाकवि साइफ़र्त - हमारे देश की महाप्रतिभा को अभिव्यक्ति देता हुआ.
कबाड़खाने पर आज और आने वाले कुछ दिनों में इस बड़े कवि की कविताओं की बानगी देखिये.
उन्नीस सौ चौंतीस
भला लगता है
युवावस्था की ख़ुशियों को याद करना.
बस नदियां ही नहीं होतीं बूढ़ी.
ढह चुकी पनचक्की
मनमानी हवाएं
निर्विकार बजाती हैं सीटियां.
सड़क के किनारे बची रह गई है एक मार्मिक सलीब
ईसामसीह के कन्धों पर पड़ा है
मकई का हार - बग़ैर चिड़ियों वाले घोंसले जैसा
और झाड़ियों में से ईश्वर को भला-बुरा कहता है एक मेढक
रहम करो हम पर
बहुत बुरा समय उतरा है नदियों के तट पर
दो साल से ख़ाली पड़े हैं कारख़ाने
और अपनी माताओं के घुटनों से लगे बच्चे
भूख की ज़बान सीख रहे हैं
तब भी
चांदी रंग वाले उदास पेड़ों के तले
गूंजती ही है उनकी किलकारी
शायद वे ही दे सकेंगे हमें उससे बेहतर बुढ़ापा
जैसा बचपन हम दे रहे हैं उन्हें.
दर्शनशास्त्र
याद हैं न वे अक्लमन्द दार्शनिक:
जीवन होता है एक पल जितना फ़क़त
और तब भी जब हम प्रतीक्षा किया करते थे प्रेमिकाओं की
वह होता था -
अनन्त!
प्राग के लिए
कितना प्यार किया तुझे मैंने, हालांकि सिर्फ़ शब्दों में ही!
मेरे सबसे प्यारे शहर - तुम्हारी पोशाक खुलने से
उघड़ गया था तुम्हारा हल्का बैंगनी सौन्दर्य
- उन लोगों ने बहुत अधिक कहा तुम्हारे बारे में जिनके पास हथियार थे.
हां बहुत अधिक थे रोज़ बहने वाले हमारे आंसू
जो नमक बनते थे हमारी रोटी के लिए
हमारे मृतकों की आवाज़ें गूंजती हैं हमारे कानों में
न्याय से भरे, धिक्कारते हुए हमारे मृतकों की आवाज़ें
वे पड़े हुए थे गलियों के फ़ुटपाथों पर
- मरते समय तक शर्म महसुस होती रहेगी मुझे
कि उस दिन नहीं था मैं उनके साथ.
तुम, बहादुर शहर! बहादुरों में सबसे बहादुर
स्थापित किये जा चुके तुम मानव-सभ्यता की कथा में:
उस दिन पाई पूर्णता
तुम्हारे सौन्दर्य और तुम्हारी गरिमा ने.
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5 comments:
गजब की कवितायें है ये.....अद्भुत. आभार.
अशोक भाई बेहतरीन कवितायें बेहतरीन अनुवाद के साथ ,पढ़्कर अब सोने जा रहा हूँ लेकिन "हमारे मृतकों की आवाज़ें गूंजती हैं हमारे कानों में
न्याय से भरे, धिक्कारते हुए हमारे मृतकों की आवाज़ें "प्राग के लिये कविता की यह पंक्तियाँ क्या सोने देंगी ?
शानदार कवितायेँ ..!!
umdaa! maza aa gaya!!
o what a city , this Prague !
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