अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की कवितायें आप 'कबाड़ख़ाना' पर पहले कई बार पढ़ चुके हैं. अन्ना की कविताओं के अनुवादों का सिलसिला जारी है जो जल्द ही किताब की शक्ल में सामने होगा. फिलहाल बिना किसी नोट / टिप्पणी के लीजिए आज पढ़िए इस महान कवयित्री की दो और छोटी कवितायें.....
आखिरी जाम
मैं पीती हूँ -
अपने ढहा दिए गए घर के लिए
तमाम -तमाम दुष्टताओं के लिए
तुम्हारे लिए
संगी - साथी की तरह हिलगे अकेलेपन के लिए...
हाँ....इन्हीं सबके लिए
उठाती हूँ अपना प्याला.
मुर्दनी आँखों के लिए
उस झूठ के लिए जिसने धोखा ही दिया है लगातार
इस भदेस , क्रूर , जालिम दुनिया के लिए
उस प्रभु , उस ईश्वर के लिए
जिसने नहीं की कोई कोशिश
और बचाने से बचता रहा हर बार. .
सपने में
यह अँधियारा
और सहन किए जा सकने लायक बिछोह
तुम्हारे साथ बाँटती हूँ बराबर - एकसार
रुदन किसलिए ?
लाओ बढ़ाओ अपना हाथ
और वचन दो कि आओगे फिर एक बार .
ऊँचे पहाड़ों के मानिन्द हैं
तुम और मैं
जो कभी नहीं आ सकते हैं नजदीक - पासपास.
बस इतना करो
सितारों को बनाकर कासिद
भेजो अपना संदेश
उस वक्त
जब गुजर चुकी हो आधी रात.
5 comments:
अन्ना अख्मातोवा मेरी प्रिय कवियत्री हैं। उनकी मेरी प्रिय लेखिका की कविता पढ़वाने के लिए शुक्रिया!
vaah...
kitab kab tak aayegii?
अन्ना एक रहस्य से भरे ढंग से आकर्षित करती हैं. सितारों को कासिद बनाती हैं...
bahut hi sunder!
ऊँचे पहाड़ों के मानिन्द हैं
तुम और मैं
जो कभी नहीं आ सकते हैं नजदीक - पासपास.
Laajwab!
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