Thursday, October 29, 2009

मिलेरपा के साथ चलेंगे आप ?






(मिलेरपा ग्यारहवीं सदी के बौद्ध भिक्षु थे। नेपाल और तिब्बत के बीच रहे इस पशु-प्रकृति प्रेमी भिक्षु का चित्र और कवितानुमा उपदेश/आदेश गंगटोक के एक होटेल में लगा था। सो उतार लाया आपके लिये।)

बर्फ, पत्थर और मिट्टी के पहाड़ मेरी कुटिया है
पेयजल है मेरी बर्फ़ीली और हिमानी नदियाँ
मेरे पालतू जानवर हैं हिरन, चिंकारे और नीली भेड़े
बनबिलाव, जंगली कुत्ते और लोमडियां मेरे रक्षक
लंगूर,बंदर और भूरे भालू मेरे संगतिया
सारिका, जंगली कौए और ग्रिफ़ान मेरी बगिया की मुनिया
भाये अगर यह आपको
आईये मेरे साथ

6 comments:

Asha Joglekar said...

वाह प्रकृति के कितने करीब होंगे मिलेरपा । उनकी ये कविता हमारे साथ बांटने का आभार ।

मनीषा पांडे said...

अपनी मशीनी दुनिया से निकलकर हमने कब संसार को ऐसे देखा, ऐसे सोचा। शायद कभी नहीं।

सागर said...

तकलीफ दिखा कर बुलाने की कला सच्चे योगी में ही होती है... उसका नमूना है यह... पर ऐसे दिन शायद लद गए...

Chandan Kumar Jha said...

प्रकृति के बिल्कुल करीब ।

neera said...

प्रक्रति जीव-जंतु और जंगल तो क्या होटल को भी अपना लेती है..

अजेय said...

मिला रेपा वज्रयानी परंपरा के अनूठे कवि थे. यह अधूरी कविता है. सैलानियों को आकर्षित करने के लिए किसी शातिर व्यवसायी ने लटका दिया होगा.पूरी कविता सहन करने लायक नहीं है. एक सैलानी के लिए तो बिल्कुल नहीं. आप ने ज़रूर पढ़ी होगी अशोक जी.
# सागर, हिमालय में अभी वे दिन नहीं लदे. अभी कई मिलारेपा यहाँ गाते हैं, पुकारते हैं. तुम सुनने की कोशिश करो.......