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बाद के दिनों में हम लोग पचासों भद्रलोक से मिले और पूछते रहे कि मेहनत-मजूरी, खेती करने, दूध बेचने वाले हिन्दी भाषियों को क्यों मारा जा रहा है? जो ये जनरल, अफसर, पत्रकार और तमाम इंटलेक्चुअल नहीं बता पा रहे थे वह मुझे एक असमिया मछुआरे के करुण एकालाप और एक बिहारी पियक्कड़ की बकवास में मिला।
जनता होटल के गलियारों में सीलन और अंधेरा था। बालकनी में ठहरने वालों के सूखने के लिए फैलाये गये कपड़े गंधाते रहते थे। जाड़े के उन दिनों में थोड़ी धूप छत पर मिल सकती थी लेकिन वहां शराब की खाली बोतलों के पहाड़ और सड़ते कचरे के टीले थे। जिस दिन लाशों से भरे उग्रवाद के किले का वर्णन करने वाला कोई गाइड यानी इंटलेक्चुअल नहीं मिल पाता था, मैं नदी की तरफ अपना स्लीपिंग बैग लेकर निकल जाता था। किसी जर्जर सरकारी स्टीमर के डेक पर नंगे बदन धूप लेते हुए अक्षर जोड़कर असमिया का अखबार पढ़ने की कोशिश करता था, फिर वही सो जाता था।
शाश्वत उन दिनों अपने रिश्तेदार, उस समय असम के गवर्नर, रिटायर लेफ्टिनेंट जनरल एस.के. सिन्हा से मिलने के लिए जुगाड़ भिड़ा रहा था जो सभाओं में लोगों का आह्वान करते में व्यस्त थे कि वे उग्रवादियों का मुकाबला लाठी-डंडों और पत्थरों से करें। मीडिया में भी बूढ़े जनरल का पराक्रम कभी-कभार छलक आता था। मूलतः बिहारी जनरल सिन्हा से शाश्वत के बाबा, सुलतानपुर के पूर्व सांसद और मशहूर वकील बाबू गनपत सहाय के भतीजे की बहन ब्याही थीं। पहले वह अपने अपनी "हर हाईनेस बुआ" से मिलना चाहता था। उनसे मिलने के बाद "हिज एक्सीलेंसी फूफा" अपने आप मिल जाते और तब धांय-धांय के बीच हम लोगों को घूमने में सरकारी सहूलियत मिल जाती। खासतौर से ऊपरी असम के दूरदराज के अल्फा के आधर वाले पठारी इलाके में जहां, इंटलेक्चुअलों ने बताया था कि पुलिस सुरक्षा के बिना जाना खतरनाक है क्योंकि वहां दिल्ली से आये पत्रकारों को सेना की इंटेलीजेंस का आदमी समझा जाता है। "हर हाईनेस बुआ" से अप्वाइंटमेट लेने के प्रोग्राम को उसने मुझसे गुप्त रखा था। गौहाटी क्लब के पास से गुजरते हुए हम लोग जिस बिहारिन बुढ़िया की दुकान पर बेसन-प्याज की पकौड़ी खाते थे, उसे मैंने एक दिन गवर्नर की अखबार में छपी अपील पढ़ कर सुनाई थी। बुढ़िया बौखला कर सरापने लगी- ‘बहुत चूतिया लाटगवर्नर आया है भइया। अरे राम हो राम! अल्फा के आगे ढेला लेकर जाने बोलता है।’ वह मेरा रवैय जानता था। उसे लगा होगा किस इस मुलाकात के दौरान मेरे वहां रहने से बात शायद बिगड़ सकती है।
इधर दानवाकार नदी पर नया दिव्यलोक था। यह जाड़े के दिनों की गंभीर नदी थी। बाढ़ का खतरा बताने वाला स्तंभ नंगा और उपेक्षित खड़ा था। ब्रह्मपुत्र की मंझधार में खड़ा उमानन्द मंदिर का छोटा सा द्वीप कामाख्या मंदिर की पहाड़ियों की तरफ देखकर दिनभर सिर हिलाता रहता था। स्टीमरों को दिशा बताने वाला लाइट हाउस धूप में भी बेकार जलता-बुझता रहता था और सांझ होते ही फंतासियां उबलने लगती थीं। शरद के धुंधलके में नदी किनारे विसर्जित किसी देवी के कटे हाथ, विशाल नितंब, गलते कंधे, एक टक घूरती आंखें, आंधी औरत आधा पुआल- न जाने कब आपस विलीन होकर नदी किनारे लेटी अलसाई औरतें बन जाती थीं और न जाने कब अपनी मां पर बुरी नजर डालने वाले मुझ पापी को अपनी आठ भुजाओं में थामे हथियारों से धमकाने लगती थीं। सुबह उस पार से नौकरी और बाजार करने वालों के रेले स्टीमरों से आते थे, अचानक घाटों पर सजी दुकानें चैतन्य हो जाती थीं। शाम को वे उन्हीं स्टीमरों पर साइकिलों समेत तरकारी, कबूतर और रोजमर्रा के सामान लेकर वापस लौटते थे। दोपहर बिल्कुल निर्जन, शांत होती थी। तब उस पार बालू के चमकते विस्तार में क्रिकेट खेलते बच्चे झिलमिलाते और स्टीमरों में बने रेस्टोरेंट ऊंघने लगते थे।
ऐसी ही किसी दोपहर मैंने अपनी डायरी में लिखा- "ब्रह्मपुत्र में इस सूने, जर्जर, सरकारी स्टीमर की डेक पर पड़े-पड़े कहीं दूर से आते रेडियो धुंधले, चटख गाने सुनने में अजीब सा सुख है। अचानक सुरों का फौव्वारा फूट पड़ता है फिर किनारे मंडराते कौवों के शोर में न जाने कहां खो जाता है। यह सुख किसी संगीत समारोह में नहीं मिल सकता। वहां प्रतीक्षा, औपचारिकता, व्याकरण और ढेर सारी ऊब होती है। यहां संगीत अपने आप लहरों घुल मिल गया है, जिसकी लय पर यह स्टीमर हिल रहा है। दूर कहीं एक मोटर बोट का इंजन घरघरा रहा है। एक पतली सी नाव सनसनाती, सूरज में सुराख बनाती घुसी जा रही है। पहाड़ियां, पानी और क्षितिज सब नीलछौंही धुंध में गुम हैं। सामने एक बाज पानी पर उछलती मछलियों को लपक रहा है और कौवे शिकारी के अनुचरों की तरह उसके पीछे याचना भरी आवाज में किकिया रहे हैं- "हमें भी कुछ मिले, मालिक। हमें भी कुछ मिले।" सुबह पूजा के बाद प्रवाहित कनेर के फूल सूरज की किरनों में सुलग रहे हैं। बाढ़ के खंभे और उमानंद मंदिर के बीच बहते एक लट्ठे पर जलपाखियों की पंचायत जुटी है। मछुआरों की चरमर-चरमर करती डोंगियों में रखे बिस्तरे, बर्तनों और रोशनी की कुप्पियों के आसपास कोई दूसरी दुनिया है जिसके सुख और दुख दोनों के बारे में हम लगभग कुछ नहीं जानते। जैसे हम यह नहीं जानते कि रात में ब्रह्मपुत्र कैसे अल्फा और बोडो उग्रवादियों की सड़क बन जाती है। सामने के घाट पर एक बूढ़ा दुकानदार एक पर्यटक को बता रहा है कि इधर हिन्दू लोग मुर्गी नहीं कबूतर खाते हैं। उसका यह रोज का काम है जैसे वह धर्म के किसी गूढ़ रहस्य का उद्घाटन करके संतोष की सांस लेता है।"
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"...एक पतली सी नाम सनसनाते सूरज में सुराख बनाती घुसी जा रही है।" हुंह... यह उस दृश्य का कितना फर्जी वर्णन था। वहां कोई पराक्रमी मल्लाह सूरज और नदी की धार को चुनौती नहीं दे रहा था। वे गरीब मछुआरे थे जो उतरती शाम को तेजी से अपना जाल समेट रहे थे क्योंकि किनारे पर खड़े होटल वाले दैनिक ग्राहक जल्दी मछलियां पाने के लिए उन्हें चिल्ला-चिल्ला कर गालियां दे रहे थे।
6 comments:
अद्भुत।
ये अपना देश ही है महाराज...
तीनों टुकड़े अभी पढ़े हैं, लगभग सांसें रोके हुए. पूरे मंज़र का असर प्रकृति के वर्णन पर भी है. आगे के हिस्सों का इंतज़ार है..
KYA HOGA RAMA RE ?
चमत्कृत हूँ, सभी अंक सांस रोके हुए पढ़े,
इससे आगे कुछ कहना छोटा मुंह बड़ी बात होगा, उम्मीद है अगला अंक शीघ्र आएगा और कबाड़खाना पर इस तरह की और सामग्री मिलती रहेगी.
इकबाल अभिमन्यु
बहुत ही सुन्दर और सीधा अनुभव !
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