आज इरोम शर्मिला को अनशन करते हुए दस साल हो गए।
दस साल-- जिसमे दुधमुहा बच्चा तीसरी-चौथी में पहुंच जाता है... बच्चे जवान हो जाते हैं... एक हंसती खेलती लड़की उदास औरत में तब्दील हो जाती है...ज्यादातर धाराओं के बंदी छूटकर घर आ जाते हैं... लखपति नेता अरबपति बन जाता है और एक अनाम सा आदमी लाकर धर्मगुरु के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। लेकिन जब ठहर जाते हैं ये बरस तो ?
उसके लिए तो ठहर ही गए ये बरस। हस्पताल की उस बेड पर नाक में नालियां डाले वह ठहरे हुए समय के साथ अपनी जिद के साथ ठहरी हुई है। खामोश प्रतिरोध का उसने वही तरीका अपनाया जो इतिहास की किताबों में आदर्श के रूप में सिखाया गया था -- गांधी का रास्ता। पर वह भूल गयी कि तीस्ता का पानी नहीं ठहरा रहा इतने बरस... वे अंग्रेज़ थे जो गांधी के उपवास से दहलते थे... फिर गांधी सत्ता और प्रभु वर्ग के करीब भी तो थे... और वह एक आम औरत ... वह भी एक ऐसे इलाके की जो देश के नक्शे भर से जुडा है।
कितनी असहायता लगती है ऐसे में। क्या करें…करने को किया एक आयोजन… पर इतने से क्या होगा?
पता नहीं कितने बरस और?
पता नहीं कितनी शर्मिलायें और??
तब तक पता नहीं कितनी हत्यायें और??
कितने बलात्कार और?
और पता नहीं कितनी मांओं के सडकों पर नग्न प्रदर्शन?
किसी को क्या फर्क पडता है भाई? यह किसी हिरोईन का जन्मदिवस थोडे है!
9 comments:
अनशन के दस साल ...और कान पर जूं तक नहीं रेंगी...अंग्रेजो की तानाशाही के रिकॉर्ड तोड़ने हैं शायद ...बेहद शर्मनाक ...!!
nangee sarkaron aur `bharat mahan` ke besharmon par koii fark nahi padta
कमाल है हम किस युग में जी रहे है ?
शर्माने का वक़्त कहां है हमारे पास, बहुत कुछ है करने को::::अगर शर्म होती तो से सब किए जाने की नौबत ही क्यों आती। जहां औरतों को अपनी बात कहने के लिए नग्न परेड करनी पड़ जाए उसमें किसी भी शर्म के अस्तित्व की क्या बात करनी। सच है कि बहुत अंधेरा है, तो भी उम्मीद की एक रोशनी जलाए रखना बहुत जरूरी है, जो आज ब्लॉग पर आप की पोस्ट से जगी दिख रही है।
शर्म तो आती है, लेकिन यह शर्म भी एक अदना से आम नागरिक की है सो उससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता।
हमारे यहां की युवा शर्म तो यहां है...
तुझसे बिछुड़ कर ज़िंदा हैं..यार बहुत शर्मिंदा हैं..
शर्मिला के प्रतिरोध के साथ....एक तूती की आवाज़ हमारी भी...
जिन्हें आनी है शर्म, मगर नहीं आएगी
हमारी शर्म आखिर तो कभी कुलबुलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी...
सत्याग्रह गूंगा नहीं होता...
यह गांधी का रास्ता नहीं था, वे उपवास तो करते लेकिन इसकी खबर अखबार तक पहुंचाने में चूक नहीं करते और अगले दिन भोर होने के साथ सावधानी से पढ़ते कि कहां क्या और कितना लिखा गया है। सही कहूं तो उन्होंने काफी हद तक लोकल और इंटरनेशनल मीडिया को एज्युकेट भी किया। अगर यह मोहतरमा ऐसे ही बैठी रहीं तो जंगल में मोर नाचकर मर जाएगा किसी को पता भी नहीं चलेगा।
आज आपने बात उठाई है कल कोई नेशनल मीडिया इसके पीछे पहुंचेगा तो असली काम होगा।
कुछ लोगों को तो हाथ धोकर पीछे पड़ना होगा।
यानि इंटेलिजेंट सॉफ्ट प्रोटेस्ट : यही तो है सत्याग्रह...
shame !
किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है भाई?यह किसी हिरोईन का जन्म दिवस थोड़े ही है।कडुवा,ज़हर जैसा कडुवा सच और इससे ज्यादा शर्मनाक़ हो भी क्या हो सकता है।
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