Wednesday, November 4, 2009

दूर तक देखने वाला वह गुमनाम शराबी

वह भी कोई देश है महाराज, भाग-9
नरसंहारों को एक दूसरे के माथे मढ़कर वोटरों को अपनी पार्टी के बाड़े में खींचने में पस्तहाल इन नेताओं से अधिक दूरदर्शी वह फटेहाल शराबी था जो अक्सर आधी रात के आसपास कॉटन कालेज की सड़क पर अदृश्य धागे से बंधी किसी चिड़िया की तरह फुदकता, लहराता मिलता था। उन्माद, भ्रम, भय और नशे के बीच पता नहीं किस संतुलन से उसने वह देख लिया था जो दो साल बाद होने वाला था। उस रात वह बच्चो की तरह फूट कर रो रहा था। उसके हाथ में बिना डंडी का जंग लगा एक उस्तरा था जिसे वह उचक कर बीच-बीच में हवा में घुमाने लगता था। उस रात वह जब मिला पता नहीं कितनी गरदनें उड़ा चुका होगा। उसकी धूल भरी दाढ़ी आंसुओं से धुलकर चमक रही थी और वह फटी आवाज में चिल्ला रहा था, "ये साला असमिया लोग कौन सा यहां का रहने वाला है। ये सब बर्मा से आया है। जब हम इनको पटना मेडिकल कालेज से भगाएगा, तब क्या होगा?"

उसकी भविष्यवाणी सुनकर मैं ठिठक गया। अपनी जलती सिगरेट उसकी तरफ बढ़ाते हुए बातचीत शुरू करने के लिए मैने पूछा, कौन किसको भगा रहा है भईया ? उसने नाराज होकर हाथ मार कर सिगरेट गिरा दी और चिल्लाया, "कोई किसी को नहीं भगा सकता। सब आपस में कट कर मर जाएगा। असमिया कहता है पहले बंगाली ने दबाया अब बिहारी दबा रहा है। बोडो कहता है कि असमिया हमको दबाता है। इसी तरह बोडो के खिलाफा राभा, राभा के खिलाफ मिरी, मिरी के खिलाफ टिवा और टिवा के खिलाफ लालुंग बोलता है। सब एक दूसरे के खिलाफ लड़ने को तैयार है, ऐसे में कौन किसको भगा पाएगा।"

कई महीने बाद समझ में आया कि यह उत्तर पूर्व की राष्ट्रीयताओं और जनजातीय संस्कृतियों के संघर्ष की एक दम सच्ची तस्वीर थी। हर प्रमुख आदिवासी जाति के पास अपना एक उग्रवादी संगठन है जो अलग देश के लिए लड़ रहा है और साहित्य सभा है जो अपनी लिपि विकसित करने के काम में लगी हुई है। कार्बी के आसपास बसने वाली हमार जनजाति की आबादी सिर्फ बीस हजार है लेकिन वे असम और दिल्ली के उपनिवेशवाद के खिलाफ नेहरू के जमाने से लड़ रहे हैं।

किसी भागते हुए बिहारी से जो सवाल पूछ पाना मेरे लिए संभव नहीं था, मैने वह सवाल उस शराबी से पूछा, लेकिन बिहारियों को भगाया क्यों जा रहा है भईया? बड़ी मशक्कत से उसने सड़क पर हवा में लुढ़कती सिगरेट का पीछा कर उसे पकड़ा फिर एक लम्बा कश लेकर इत्मीनान से बताने लगा, "असमिया मानु बहुत सुकुमार होता है। बंसी बजाएगा, गाना गाएगा, थिएटर करेगा, साफ गमछा ओढ़कर दिन भर तामुल खाएगा और गप्प करेगा लेकिन खेत के कीचड़ कादो में नहीं जाएगा। नौकरी वह भी सिर्फ सरकारी करके भात टानना (खाना) चाहता है लेकिन खेती नहीं करेगा। बिहारियों ने यहां आकर अपनी मेहनत से खेत, मकान, दुकान बना लिया है तब असमिया भाई को लगने लगा है कि ये भुच्चड़ असम को हड़प कर बिहार बना डालेंगे। बांग्लादेश का मैमनसिंघिया भी बिहारियों की तरह मेहनती और जन्म से किसान आदमी होता है। जब यहां के नेता मैमनसिंघिया मुसलमान को भगाने के लिए चिल्ला रहे थे तब असमिया अपनी जमीन पर उन्हें बसा रहा था। क्योंकि मेहनत,मजूरी वाले काम के लिए उनकी जरूरत थी। बार्डर पर सिपाही को चालीस टका घूस देकर अब भी त्रिपुरा से बांग्लादेशी आता है लेकिन अब जगह कम और आदमी ज्यादा हो गए हैं। इसलिए सब ओर मारकाट मची हुई है।"

यही बात, अंग्रेजी में शालीन ढंग से इंटलेक्चुअलों को समझाने की कोशिश, थोड़े झक्की समझे जाने वाले प्रोफेसर अमलेन्दु गुहा एक सेमिनार में कर रहे थे। "असमिया लोगों की हिफाजत के संवैधानिक उपाय" विषय पर वह सेमिनार नौ दिसंबर को खानापाड़ा के इन्स्टीट्यूट आफ बैंक मैनेजमेंट के सभागार में हुआ था लेकिन मंचीय तकनीक के माहिर इंटलेक्चुअलों ने उन्हें अपनी बात ही नहीं रखने दी। "संभवतः यह असमिया बनाम अन्य संस्कृतियों का झगड़ा नहीं है। कोई यह कोई नहीं सोचता कि हमारे सीमित संसाधनों को हड़पने का युद्ध चल रहा है और इस युद्ध में संस्कृति को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। असम की संस्कृति नहीं राजनीति और अर्थव्यवस्था खतरे में है। संस्कृति सैकड़ो सालों से असम का दुखता घाव है। हर तिकड़म को संस्कृति के नीचे ढक दिया जा रहा है।-"वे बस इतना ही कह पाए थे। यह सेमिनार दिल्ली के भेजे पैसे से एक एनजीओ नार्थ-ईस्ट फाउन्डेशन के डा. ध्रुवज्योति बोरा ने आयोजित किया था। लालुंग जनजाति की जुटान


एन-ई फाउंडेशन का आफिस इंचार्ज पीकूमणि दत्ता एक सेल्फमेड रूमानी क्रांतिकारी था। वह हाल ही में सीपीआई छोड़ कर एनजीओ में अपना राजनीतिक भविष्य तलाशने आया था। वह क्यूबा की क्रांति के हीरो फिदेल कास्त्रो के साथी चे ग्वेरा की तरह एक टोपी और उस पर एक लाल सितारा लगाए रहता था। उसकी बातों का परिवेश ऐसा होता था जैसे वह गौहाटी शहर नहीं, जंगल के किसी कैम्प में रहता हो। उसके साथ कई शामें बीतीं। एक दिन उसने कहा, अल्फा का पूरी तरह पतन हो चुका है। सेना को पहले उनके बंकरों में मार्क्सवाद की किताबें मिला करती थीं लेकिन अब हिन्दी फिल्मों की हीरोइनों की तस्वीरें, कंडोम और शराब की खाली बोतलें मिलती हैं। एक दिन उसमें मेरा आईडेन्टिटी कार्ड देखा और घोषित कर दिया कि मैं आर्मी इन्टेलिजेन्स का आदमी हूं जो यहां पत्रकार का भेष बनाए घूम रहा है। (जारी)

5 comments:

मुनीश ( munish ) said...

lovely turtles ! Bangladesh is another extension of leprosy inflicted on the chest of earth by Pakistan , but who allowed them to enter India @ 40 taka ?

डा. अमर कुमार said...


Agreed with you, Munish,
who allowed them here at whatsoever cost ?

डॉ .अनुराग said...

जारी रखिये .आंखे भी खुल रही है ओर दिमाग भी

Ek ziddi dhun said...

बहुत ही भयानक और बहुत ही करुण. सांस्कृतिक अस्मिताओं के नाम पर खूनी खेल हर कहीं चलता रहता है. बांग्लादेशी भी बिहारी या दूसरे गरीब विस्थापितों जैसे हाल में ही होंगे.

मुनीश ( munish ) said...

@ "बांग्लादेशी भी बिहारी या दूसरे गरीब विस्थापितों जैसे हाल में ही होंगे." ????????????????
So ?