Thursday, November 5, 2009

उल्फाः किताब और जंगल के बीच का फासला

वह भी कोई देश है महाराज, भाग-10
गौहाटी के जनता होटल में डेरा डाले कोई पचीसेक दिन हो चुके थे, शहर का ताप और भद्रलोक की सीमाएं हम लोग महसूस कर रहे थे। अब सीधे किसी अल्फाई से मिलने की जरूरत थी ताकि आईएसआई के प्रचार और हिंदी भाषियों को मारने के प्रति नजरिए को बिना किसी मध्यस्थ के समझा जा सके। मैने मोहनन दादा-आं से इसका जिक्र किया। मोहनन पैदाइशी पत्रकार थे और अखबार में नौकरी की तलाश करते हुए केरल से यहां आ टपके थे और इन दिनों एक इलेक्ट्रानिक चैनल के लिए काम करते थे। सुदूर दक्षिण के होने के बावजूद काफी चलता पुर्जा माने जाते थे। उन्होंने कहा, "इन्टरनेट पर अल्फा का वेबसाइट खुला है। जाओ परेश बरूआ से चैट करो। लेकिन मिल नहीं सकते। उन लोगों को जब तुमसे मिलना होगा तो, तरीका यह है कि, जहां भी रहोगे उठा लिए जाओगे। बात हो जाएगी।" लेकिन यह इतना जटिल काम नहीं था। बस रास्ते हम लोगों को नहीं पता थे। पत्रकार के रूप में किसी की विश्वसनीयता जांचने के तरीके इतने अनिश्चित और चुप्पे किस्म के थे कि पहले से पता भी नहीं चल सकता था।

एक शाम हम लोग कभी असम आंदोलन के थिंक टैंक और प्रफुल्ल महंत की सरकार में नंबर दो रहे भृगुकुमार फूकन से मिलने के लिए निकले लेकिन पहुंच गए एक मोहल्ले के कैरम क्लब में। वहां अल्फा के एनिग्मा कमांडर रमेन नाथ से मुलाकात हुई। एक महीने पहले उसने आत्मसमर्पण किया था। क्लब के गेट पर असम पुलिस के दो जवान उसकी सुरक्षा में खड़े थे और बाहर एक सरकारी जिप्सी पर तीन-चार सल्फाई एके-47 राइफलों के साथ मुस्तैद थे। रमेन नाथ अपने दोस्तो के साथ कैरम खेल रहा था। वहां का माहौल देखकर यही लगा कि एक महीने के भीतर रमेन नाथ जंगल में रहने वाले गोरिल्ला से मोहल्ले के एक दबंग लड़के में काफी तेजी से परिवर्तित हुआ था। मैने दुलू भराली का खुद से पूछा गया सवाल, जस का तस उस तक पहुंचा दिया, "आल्फा लोक केमन बीर मानुस, गरीब मारि आसे?" रमेन नाथ ने सहज ढंग से कहा, अल्फा तो अब कुछ भी कर सकता है। अल्फा को असमिया नहीं जोनेर बाई देश (चांद-तारा वाला देश, पाकिस्तान) के पठान चला रहे हैं। दो साल से संगठन की एक्जीक्यूटिव कमिटी की मीटिंग तक नहीं हुई है। लीडर बांग्लादेश में अपना बिजनेस कर रहे हैं। अब असली काम आतंक फैलाना, वसूली करना और नकली करेन्सी चलाना रह गया है।

सरकारी संरक्षण में वह बेहद आश्वस्त और संतुलित ढंग से बोल रहा था, हम लोग स्वाधीन असम बनाने के लिए किताब पढ़कर जंगल में गया था लेकिन जब देखा कि पठानों (आईएसआई के अफसरों) के कहने पर हमारे नेता असमिया मानू को भी जान से मरवा सकते हैं तो सरेन्डर कर दिया।
"अब गद्दारी के आरोप में अल्फा सजा दे तो?"
"तो हम लोग बिहारी, भूटानी थोड़े है जो इतना आसानी से मार देगा। उसने बाहर खड़ी जिप्सी की तरफ हाथ उठाते हुए कहा, हम लोगों ने चूड़ियां तो पहन नहीं रखी हैं। ऐसा तो है नही कि हमारी बंदूकों से लेमनचूस निकलेगा।"
"भूटानी। भूटानी लोग को अल्फा क्यों मारेगा?"
उस समय तो रमेन नाथ इस सवाल को टाल गया लेकिन जनवरी में ही निचले असम में भूटानी फेरीवालों की हत्याएं होने लगीं। ये हर साल जाड़ों में गरम कपड़े बेचने आते थे, इस साल भी आए थे। इस अवधि के दौरान बड़ा फर्क यह आया था कि भारत सरकार के दबाव में भूटान की राजशाही ने असेम्बली में प्रस्ताव पास कर, अल्फा को देश की सीमा के भीतर से अपने कैंपों को हटा लेने का फरमान जारी कर दिया था। अब भूटिया फेरीवालों को मारकर अल्फा, भूटान के राजा को धमका रहा था कि वे कैम्प हटाने के लिए दबाव न डालें।

इस अप्रत्याशित मुलाकात के बाद मैने उग्रवाद पर अपनी पहली स्टोरी "हरियाली में बिखरी खुरदुरी हथेलियों वाली लाशें" दिल्ली भेजी जो कभी किसी अखबार में नहीं छपी। एक राष्ट्रीय दैनिक के प्रधान संपादक से तय हुआ था कि वे पूर्वोत्तर से भेजे हमारे डिस्पैच छापेंगे। उस दिन मैने छह बार फैक्स किया, दो सौ साठ रूपये का बिल आया। आखिरकार जब स्पष्ट एवं पठनीय कापी पहुंची तब प्रधान संपादक घर जा चुके थे और दफ्तर में कोई और ऐसा नहीं बचा था जो उसे छापने न छापने का फैसला कर सके। हुआ यह था कि प्रधान संपादक हम लोगों के यात्रा-रिपोर्टिंग प्रस्ताव से इतने उत्साहित हुए थे कि उन्होंने एक स्टोरी पर ढाई हजार रूपए पारिश्रमिक या रिमूनरेशन देना तय कर दिया लेकिन अपने अखबार के एकाउंट सेक्शन से इस काम के लिए पांच सौ रूपया भी स्वीकृत नहीं करा पाए। जब पैसा नहीं, तो स्टोरी नहीं। चूंकि वे पैसा दे नहीं सकते थे, इसलिए स्टोरी भी नहीं छापी। प्रधान संपादक ने बाद के दिनों में बताया कि व्यावहारिक तथ्य यह था कि हम लोगों को अपने काम के मार्केटिंग की तकनीक नहीं आती थी और इससे भी बड़ा तथ्य यह था कि उनके अखबार की उत्तर-पूर्व के उग्रवाद में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन दिनों वे यूपी और बिहार में हिन्दी का नया पसरता रेवेन्यू मार्केट पकड़ने के लिए अपने अखबार के क्षेत्रीय संस्करण खोलने में व्यस्त थे। ये प्रधान संपादक हिंदुस्तान के श्री अजय उपाध्याय थे, जिन्होंने बाद में अपने अखबार में नौकरी तो दे दी लेकिन उत्तर-पूर्व की रपटें नहीं छाप सके।

उनसे निराश होकर हम लोग दिल्ली के दूसरे संपादकों को पटाने, टटोलने में लगे थे तभी मोहनन दादा-आं ने अचानक शिलांग चलने का न्यौता दिया। उनके चैनल का क्रू शिलांग के आदिवासी राजा का दरबार कवर करने जा रहा था।

6 comments:

मुनीश ( munish ) said...

Investigative reports focussed on terrorism filed by some daring journos still appear in some English dailies ,but Hindi paper has been deliberately reduced to the toilet-paper . In Hindi this surely seems the first in recent years.

Anil Pusadkar said...

ये है पत्रकारिता और इसे कहते हैं खबर और जैसे अलगाववादी,नक्सलवादी समान है वैसे ही खबरों के मरने के किस्से भी समान है।आपके हौसले,आपकी लगन को नमन।खबर को ज़िंदा रखने के लिये तमाम खतरे उठाये,नौकरी भी कई बार गवांई मगर फ़िर भी वो सब नही कर पाये जो आपने किया,आज लगा कि ऊंट आ गया है पहाड के नीचे।

परमजीत सिहँ बाली said...

रोचक लगा पढ़ कर।साथ ही पत्रकारो की मेहनत और लगन की जानकारी भी।

संजय बेंगाणी said...

मैं असम में तब था जब उल्फा का विस्तार हो रहा था. फिर इसका पतन भी देखा और अब तो यह भ्रष्ट भी हो गया है.

Ek ziddi dhun said...

har post ke bad naye sawal paida ho jate hain. nateeje par pahunchne se behtar agli post ka intjar hi hota hai.

RM Tiwari said...

anil ji.bahut confusion ho raha hai aj ke zamane mein.koi surrender karta hai to uski baat mein kitna jhoot hai,kitna such.hum sub delusion ke shikar lagte hai.