Sunday, November 8, 2009

रहस्मय चांदनी रात के सहयात्री

वह भी कोई देश है महाराज, भाग-13रात को गौहाटी लौटते हुए रास्ते में नान्गपो से पांच किलोमीटर पहले हम लोगों की जीप खराब हो गई। कोई दस किलोमीटर पहले से ही वह धुंआ फेंकते हुए वह पहाड़ी रास्ते पर घोंघे की तरह रेंग रही थी लेकिन हममें से ज्यादातर नशे की उच्चतर अवस्था में लगातार चहक रहे थे इसलिए पता जरा देर से चला। असम और मेघालय दोनों राज्यों में उग्रवादी जितने सक्रिय थे उससे हजार गुना भयग्रस्त आती-जाती गाड़ियों के ड्राइवरों के दिमाग थे इसलिए अलग-अलग आकार प्रकार के बैग, कैमरे और स्टैंड टांगे आठ-नौ युवा लोगों के गिरोह को लिफ्ट मिलने का कोई सवाल ही नहीं था।
आधी रात को भी सड़कों के किनारे अनानास, संतरे और केले की दुकानें खुलीं थीं। इक्का दुक्का ढाबों में ड्राइवर खाना खा रहे थे। वे अपने आर्डर नेपाली किशोरियों के हाथ पकड़ कर देते थे और उनके गालों पर चिकोटी काटना भोजन के बीच का विराम था। घनघोर जाड़े में सिर्फ टी-शर्ट पहने, लुंगी की तरह शाल लपेटे ये लड़कियां जिस सहजता से खिलखिला रही थीं, वह उनके कुछ और होने की संभावना के बारे में सोचने को उकसाता था। मैने एक लड़की से जान पहचान बढ़ाने की कोशिश की तो नशे में गाफिल मोहनन दादा-आं अचानक चैतन्य होकर चिल्ला पड़े और मुझे खींच कर ढाबे से बाहर ले आए, "बाहरी लोगों से वो लोग प्रोभोक हो जाएगा।"
"नेपाली लोग तो खुद बाहरी है, बाहरी से कैसे प्रोभोक होगा?"
"माई डियर तुमको सिर्फ नेपालिन दिखाई दे रहा है। हम लोकल ड्राइवर लोग का बात कर रहा है।"
सामान पीठ पर लादकर अंधेरे में पैदल चलने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। पहाड़ियों की गझिन हरियाली के ऊपर फीका सा चांद बेहद रहस्यमय लग रहा था। केले, नारियल, सुपारी और बांस के जंगल की सिर्फ ऊपरी पत्तियां चांदनी में चमक रही थी, नीचे गाढ़ा अंधेरा था। इस चांदनी का असर असामान्य था, रह-रह कर आधी रात की पैदल चढ़ाई की मुश्किल के उस पार ले जाने वाला। नान्गपो में एक टैक्सी वाला बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ। हम लोग गौहाटी पहुंचे तो सूरज निकल रहा था।
अगले दिन और उसके बाद अचरज था। अनिश्चय पर उतराता भय था और एक नई यात्रा थी। बाहर नहीं अपने भीतर, स्मृति की यात्रा।
शिलांग से लौटने की सुबह पूर्वोत्तर के इकलौते बडे़ हिन्दी अखबार पूर्वांचल प्रहरी में मैने अपनी रपट छपी देखी जबकि मैने वहां अपना लिखा हुआ कुछ नहीं भेजा था। उसके संपादक सत्यानन्द पाठक से मुलाकात जरूर हुई थी। यह जंगलात महकमें के असम के सबसे बड़े ठेकेदारों में से एक और समाज सेवी जी एल अग्रवाला का अखबार था जो अपने मालिक की ठसक से अपने ही अंदाज में चलता था। मैं कयास लगा रहा था कि आखिर मेरी लिखी रपट पूर्वांचल प्रहरी के दफ्तर में कौन ले गया होगा तभी दोपहर में दीघाली पुखुरी के किनारे टहलते हुए शाश्वत ने बुदबुदा कर कहा, "पैसा खत्म हो गया है, अब एकदम नहीं है।"

5 comments:

Ek ziddi dhun said...

sabak:daru theek hai, isse aage laplapana theek nahi hai.

विजय प्रताप said...

"पैसा खत्म हो गया है, अब एकदम नहीं है।" यहीं छोडा दिया. आगे क्या हुआ.....

मुनीश ( munish ) said...

No Probhokeshan pls !

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif said...

देखा दारु के बाद क्या-क्या होता है

Asha Joglekar said...

क्या पैसे के जुगाड के लिये रपट बेच दी ? पहाडों की रहस्यमयी चांदनी का वर्णन सुंदर है ।