वह भी कोई देश है महाराज, भाग-14
मैंने हैरत से उसकी ओर देखा। हर तरफ खून, लाशों और आशंकाओं की गंध से भरी हवा में एक इतने दिन घूम लेने के बाद अब जाकर मुझे पहली बार डर लगा। एक क्षण के लिए लगा सांस को भीतर ले जाने के लिए कोशिश करनी पड़ रही है। पचीस दिनों का होटल का किराया और खाने का बिल बाकी था। दो पीसीओ वालों के धुंआधार फोन और फैक्स का उधार था। हम लोगों की जेब में कुल जोड़कर पचीस-तीस रुपये बचे थे। शाश्वत के क्रेडिट कार्ड की सीमा से ज्यादा पैसा हम लोग निकाल चुके थे। उसके बड़े भाई को इलाहाबाद से पंद्रह दिन पहले ही पैसा उसके बैंक खाते से निकाल कर भेज देना चाहिए था। किसी तकनीकी या कागजी दिक्कत के कारण ऐसा नहीं हो पाया था। मेरा चिल्ला पड़ने का मन हुआ कि उसने पहले क्यों नहीं बताया। सारी खिचड़ी अकेले पका रहे थे, ससुर अब बता रहे हैं जब इतने पैसे भी नहीं बचे हैं कि यहां से हिल भी सकें। मैंने लपक कर से कहा, "तो क्या हुआ, तुम अपने फूफा, हिज हाइनेस गवर्नर से मांग लो, अभी मिलने का जुगाड़ बैठा कि नहीं?"
अपनी गोपनीय योजना के बारे में मेरी जानकारी पर चकित हुए बिना लाचारी में कई बार "हद हो गयी.... हद हो गयी" बुदबुदाने के बाद उसने बेहद शरीफ आदमी की तरह कहा, कमाल चूतिया हो। इतने दिन बाद किसी रिश्तेदार से मिलेंगे तो तुरंत पैसा मांगने लगेंगे? क्या समझेंगे वो, कि साले दरिद्र अब जगह-जगह मांग कर गुजारा कर रहे हैं।’
इसके बाद उस दिन हम लोगों ने आपस में बात नहीं की, आशंकाओं में अकेले-अकेले डूबते-उतराते रहे।
रात में होटल लौटने पर पहली बार धीमी लाल रोशनी वाले गलियारों में आते-जाते बेयरों की तेरफ मेरा ध्यान गया। उन सभी की बाहों में मछलियां उभरी हुई थीं। पूर्वोत्तर के किसी भी राज्य में जाने के लिए गौहाटी में चार-छह घंटे रुककर बस का इंतजार करना पड़ता है। ऐसे यात्रियों के कारण ही यह सबसे पुराना सबसे सस्ता जनता होटल एक सौ तीस साल से गुलजार था। एक ही कमरा चैबीस घंटे में तीन-चार बार किराये पर दिया जाता था। रात में जिन कमरों में महिलाएं होती थीं, बेयरे उनके रोशनदानों पर चमगादड़ों की तरह लटकते रहते थे। हर आधे घंटे बाद गैलरी में किसी संगठित टीम के खिलाड़ियों की तरह सिर जोड़कर, वे कमरों के बुलेटिन एक दूसरे को सुनाते थे और कमरे बदल लेते थे। भोर तक चलने वाले इस कठिन एवं सम्मोहक व्यायाम के कारण उनकी बाहें पुष्ट और शक्तिशाली हो गयी थीं। शाश्वत को हताशा का निम्न रक्त चाप का हल्का दौरा पड़ा, वह बिस्तर पर पड़ा बारी-बारी से अपनी हथेलियां निहारने लगा। अनुभव से मैं जानता था कि यह दौरे का प्रमुख लक्षण था। मैंने अपने और उसके बैग और सारे कपड़ों की जेबों को छानने के बाद उसके पास पड़े तेरह रुपये मांगे। उन आखिरी पैसों से मैं रम का एक पौवा खरीद कर लाया और इत्मीनान से बैठकर आचमन करने लगा। इसी दौरान तय किया गया कि कल शाश्वत की दोनों अंगूठियां और जरूरत पड़ी तो उसकी अटैची में पड़े उसकी मां के अटेहरू सर्राफा बाजार में गिरवी रखकर पैसों का इंतजाम किया जाएगा। अटेहरू एक कश्मीरी गहना होता है जिसे वहां की औरतें झुमके की तरह पहनती हैं। इस गहने को पहले भी एक बार लखनऊ में समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सदस्य रामनारायन साहू की दुकान पर हम लोग गिरवी रख चुके थे।
सर्राफा में अजनबी होने के कारण कोई उन्हें गिरवी रखने को तैयार ही नहीं था। जो तैयार भी हुए, वे हजार- पांच सौ से ज्यादा नहीं दे रहे थे। दरअसल हमें संदिग्ध समझकर कुछ खेल रहे थे, कुछ टरका रहे थे। दोपहर बाद हम उन्हें बेचने के लिए मोलभाव करने लगे। जिन दो-एक सुनारों ने खरीदने में दिलचस्पी दिखाई, वे ढाई-तीन हजार ही दाम लगा रहे थे जबकि सिर्फ अंगूठियां ही कम से कम, पन्द्रह हजार की थीं। ख्याल आया कि क्यों न इन्हें होटल मालिक के पास ही गिरवी रख दिया जाये। साथ ही यह भी विचार किया गया कि अगर उसने भांप लिया कि हम लोगों की जेब एकदम खाली है तो वह अपना किराया और खाने का बिल काटकर हमें चलता कर देगा, फिर क्या होगा। उसके बाद गिरवी रखने के लिए भी कुछ नहीं बचेगा। शाम को एक मारवाड़ी सुनार ने सलाह दी कि हम स्टेशन के पिछवाड़े जायें, जहां पूर्वोत्तर में सुअर बेचने वाले ठेकेदार रहते हैं। वे पुरबिया होने के नाते हमारी मदद कर देंगे। तपाक से वहां पहुंचे तो पाया कि झुंड के झुंड किकियाते सुअरों के बीच चौकियों पर ठेकेदारों की गद्दियां थीं जहां कुप्पियां जल रही थीं। वे सुअरों की गुर्राहट व जीवन के आखिरी क्षणों में की जा रही मंत्रणा के बीच मच्छरदानियों में सोने की तैयारी कर रहे थे। पूर्वोत्तर में सबसे अधिक सुअर पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार से जाते हैं। ये ठेकेदार नहीं, उनके नौकर थे जो सुअरों की रखवाली के लिए रात में वहां टिके हुए थे। उनसे बात की तो पता चला कि उन्हें दिहाड़ी और खुराकी मिलती है लिहाजा वे अंगूठी गिरवी रखने की हालत में नहीं थे। हम लोग वापस लौट आये।
अगले दिन पीसीओ में बैठने वाला एक लड़का हम लोगों को स्टेशन के पास बच्चा प्रसाद सोनार के पास ले गया। बच्चा प्रसाद ने भी लाचारी जता दी। वे एक छोटी सी कोठरी में बैठककर निम्न मध्यवर्ग की गरीब स्त्रियों के चांदी का काम करने वाले सुनार थे। जो पायल, बिछिया, झुमके बनाते, बेचते और हजार-दो हजार तक की रकम देकर गिरवी रखते थे। उन्होंने हम लोगों को चाय पिलाते हुए बताया कि वे कभी कविताएं लिखा करते थे और जमशेदपुर में जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से एक रहे हैं। फिर उन्होंने दिल्ली से छपने वाला "राष्ट्रीय सहारा" दिखाया जिसमें मेरी रपट छपी थी। ...तो मेरी पहली रपट पूर्वांचल प्रहरी या दिल्ली के किसी तथाकथित बौद्धिक दिखने वाले संपादक ने नहीं, एक पैराबैंकिंग कंपनी के अखबार ने छापी थी और वहीं से उठाकर असम के एक बड़े ठेकेदार के अखबार ने छाप दी। कई साझा परिचय वाले हिंदी लेखकों की लनतनरानियों पर वार्ता के बाद बच्चा प्रसाद ने अपनी तरफ से प्रस्ताव किया कि वे अंगूठी तो गिरवी नहीं रख सकते लेकिन हजार रुपये उधार दे सकते हैं और हमारी रपटें जहां भी छपेंगी, उन्हें वे काटकर रखते जाएंगे। जब हम लोग पूर्वोत्तर से वापस लौटने लगेंगे तो पैसे देकर अपना सामान यानि रपटों की "क्लिंपिंग" ले जाएंगे। विलक्षण सुनार थे बच्चा प्रसाद, जिनकी नजर में हमारा गहना वे अखबार में छपने वाली रपटें थीं।
मैं वहां से उठकर सीधे पूर्वांचल प्रहरी के दफ्तर गया और उसके मालिक जीएल अग्रवाल से भिड़ गया कि मेरी अनुमति लिए बगैर मेरी रपटें वे कैसे छाप रहे हैं? मैंने सोचा था कि उन्हें दबाव में लेकर कुछ रुपये एडवान्स में ले लूंगा और आगे भी छपने के लिए बात कर ली जाएगी। तामुल के पसीने से छलछलाते भीमकाय जीएल अग्रवाला ने बड़े इम्मीनान से कहा कि वे रपट के लिए किसी को पैसे नहीं देते, इसलिए मुझे भी नहीं देंगे। उनके अखबार में लिखने के एवज में मैं पूर्वोत्तर में उनके ब्यूरो कार्यालयों में रुक सकता हूं और संवाददाताओं का गाइड की तरह इस्तेमाल कर सकता हूं। यह नकद पैसे मिलने से भी बड़ी चीज थी जो अनायास मुझे मिल रही थी। मैं उन्हें तत्काल सहमति देकर निकल आया क्योंकि होटल वाले के बिल की समस्या जब भी ज्यों की त्यों थी। उधर शाश्वत निम्न रक्त चाप की समस्या से बाहर आकर दिल्ली में अपने एक सहपाठी पत्रकार को फोन किया। सहपाठी ने अरुणाचल के एक सांसद लाटा अंब्रे से कहा। सांसद ने गौहाटी के एक ट्रैवल एजेंट और अपने समर्थक को हमें दस हजार रुपये देने को कहा। तीन घंटे बाद एजेंट ने होटल आकर हम लोगों को पैसे दे दिये। न पहले न बाद में, सांसद लाटा अंब्रे से हमारी कभी मुलाकात नहीं हुई लेकिन उन्होंने सहृदय, सदाशय आत्मा की तरह हम लोगों को मुश्किल से निकाल लिया।
कभी उनको धन्यवाद कहने का भी मौका हाथ नहीं लग पाया।
7 comments:
जियो राजा, बचे इसलिए कि पुरुषार्थ के साथ-साथ एक दोस्त भी था।
सोचो, लिखना नहीं आता होता तो। और अकेले होते तो, आखिर शाश्वत भी थे न भाई।
निष्कर्ष पुरुषार्थी बनो और अकेले मत रहो किसी न किसी संगी को साथ ले जाओ और अगर ऐसा न कर सके तो वहीं किसी को साथी बनाओ।
मजा आ रहा है। पर प्रूफ की गलती बनी हुई है।
पांड़े महाराज काहे इतनी अलसई कर रहे हैं।
टिप्पणी- दुर्भिक्ष देखकर तो यही लग रहा है कि उस दिन इस ब्लाग के पाठकों में से कोई आप दोनों मिला होता तो एक धेला न देता। ....हाहाहाहा
"जब हम लोग पूर्वोत्तर से वापस लौटने लगेंगे तो पैसे देकर अपना सामान यानि रपटों की "क्लिंपिंग" ले जाएंगे। विलक्षण सुनार थे बच्चा प्रसाद, जिनकी नजर में हमारा गहना वे अखबार में छपने वाली रपटें थीं। "......
दुनिया में ऐसे भी लोग हैं. विलक्षण!
अगला एपिसोड लिखे तो कृपया यह भी साफ़ करे की यह यात्रा आप लोगों ने कब की थी. बहुत रोमांचक है.
इस अद्भुत यात्रा विवरण पर कैसी विकट खामोशी है ये ..बोलो-बोलो कुछ तो बोलो...क्या कहा, तुमसे क्या मतलब...भाड़ में जाओ.. अनिल भाई बंद करो बकवास, लगाओ एलबम, सुनाओ गाना..झकास...
shandaar chal raha hai. filmi jaisa aslee. par ye jo hotel ke karindo.n kee baho.n kee machhlee kee kahanee man shayad atishyokti hai...
Bachha Prasad apko milne hi chahiyen the. ap bhi to hain vilakshan
is episode ke sath tasveer badi sundar hai. apko apne chaha ki kavita ka suar ka bachha yaad aya ki nahi
lovely piglets !
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