लंबे अरसे से सोचता था कि नैनीताल में कोई फिल्म फेस्टिवल किया जाए. दोस्तों के साथ मिलकर योजना बनाने की कोशिश भी की. लेकिन कभी कुछ तय नहीं हो पाया. इस बार पता चला कि अपने ही कुछ पुराने साथी वहां पर फिल्म फेस्टिवल की तैयारी कर रहे हैं तो मैं भी साथ में जुट गया. फेस्टिवल क़रीब आने पर दोस्तों से मिलने की ख़्वाहिश लिए मैं दिल्ली से नैनीताल के लिए निकल पड़ा. हमें उत्तराखंड संपर्क क्रांति से हल्द्वानी तक जाना था. साथ में भारत भी था. शाम चार बजे की ट्रेन थी लेकिन हम तीन बजे ही स्टेशन पहुंच गए. ऐसा बहुत कम हुआ है कि संपर्क क्रांति वक़्त पर चले. यही सोचकर पिछले महीने जब हल्द्वानी जाने के लिए स्टेशन पहुंचा तो ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ रही थी. तबीयत कुछ ख़राब थी. ऐसे में शारीरिक थकान तो थी ही मानसिक तौर पर भी बड़ी मुश्किल हुई. उस दिन टिकट कैंसल कर दूसरे दिन ट्रेन पकड़ी थी. इस बार पहले से ही तय कर लिया था कि निर्धारित वक़्त से पहले ही प्लेटफ़ार्म पर पहुंच जाएंगे. नतीज़ा ये हुआ कि पूरे एक घंटे प्लेटफ़ार्म पर इंतज़ार करना पड़ा.
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर छह से काठगोदाम के लिए ट्रेन चली तो रिजर्व्ड डिब्बों में भी लोग ठूंस-ठूंस कर भरे हुए थे. कुछ सोते, कुछ जागते और कुछ पढ़ते रात के ग्यारह बजे हल्द्वानी पहुंचे. ट्रेन एक घंटा लेट थी. किसी रिश्तेदार के घर जाने की बजाय पुराने दोस्त और पत्रकार जहांगीर के पास जाना मुझे ज़्यादा ठीक लगा. वहां पहुंचा तो वो अतीत की बातें करता रहा. कुछ दोस्तों के फोन नंबर उसके पास थे. उनसे बात करवाता रहा. इस बीच भरी जवानी में साथ छोड़ चुके दोस्तों को भी हम याद करते रहे. कभी जो गहरे दोस्त थे और अब अजनबी बन चुके हैं ऐसे रिश्तों की बातें भी बीच में आईं. हम सोचते रहे कि छोटे से वक़्त में कितना कुछ बदल गया है.
सुबह जहांगीर अपनी गाड़ी से टैक्सी स्टैंड तक छोड़कर गया. शेयर्ड टैक्सी जैसे ही काठगोदाम से ऊपर की ओर चली अगली सीट पर बैठा मैं बाक़ी सवारियों से बेख़बर पहाड़ों को गौर से देख रहा था. हवा, पानी, पेड़, पत्थर, ज़मीन सब जाने-पहचाने लग रहे थे. मैं पुराने दिनों को पकड़ने की कोशिश कर रहा था. अचानक लगा कि दिल्ली में रहते मैं इस मिट्टी की गंध से कितना दूर हो गया हूं. नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन साह मुझ जैसे लोगों को स्वर्ग से ठुकराए हुए लोग यूं ही नहीं कहते. ख़ैर, आधे रास्ते में पता चला कि पिछली सीट में विवेक दा भी बैठे हैं. वो कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता हैं. पिछले कई सालों से दिल्ली में थे अब उत्तराखंड में पार्टी का काम देखते हैं. उन्होंने ही पहचानते हुए पीछे से मेरा नाम पुकारा. मिलकर अच्छा लगा. फिर रास्ते में वो उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों की लूट की कहानी बताते रहे. ज़ोर देते रहे कि मैं इस बारे में ज़रूर कुछ लिखूं. उन्होंने ये भी बताया कि कैसे पूरे राज्य में माओवाद का हौव्वा खड़ा कर आंदोलनकारियों पर लगाम कसी जा रही है. पिछले साल पीयूसीएल और पीयूडीआर की तरफ़ से उत्तराखंड आयी फैक्ट फाइंडिंग कमेटी में मैं भी शामिल था. इसलिए मुझे उनकी इस बात की गंभीरता पता थी. हम लोग प्रभाष जोशी की मौत और आज की बाज़ारू पत्रकारिता पर भी बात करते रहे.
नैनीताल मुझे हमेशा से लुभाता रहा है. लेकिन इस बार जब वहां पहुंचा तो लगा कि शहर का रंग उड़ा हुआ है. ये बात मैंने विवेक दा से पूछी. उन्होंने याद दिलाया कि पतझड़ का महीना है. लेकिन मैं सोचता रहा कि आसपास सदाबहार जंगल होने के बाद भी शहर में पतझड़ का इतना असर क्यों है. शायद बाहर से लाकर ज़बरदस्ती यहां लगाए गए पेड़ों की वजह से ऐसा था. पूरे माहौल में मुझे एक नकलीपन जैसा लगा. हम तल्लीताल से रिक्शे पर मल्लीताल के लिए निकले. मुझे अतीत में यहां बिताए दिन याद आते रहे. मॉल रोड से गुजरते हुए मैं हर आदमी और दृश्य को पहचानने की कोशिश कर रहा था. लेकिन सैलानी जोड़ों और दुकानों की चमक-दमक के बीच अपना जैसा कुछ भी नहीं लगा.
शैले हॉल में पहले नैनीताल फिल्म फेस्टिवल की गहमा-गहमी थी. शहर में घुसते ही जो वीराना और अजनबीपन लगा था. यहां आकर वो पूरी तरह दूर गया. एक साथ ढेर सारे जाने-पहचाने चेहरे मिले. जिनसे मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी ऐसे साथियों से मिलने का सुख बयान नहीं किया जा सकता. तब लगा नहीं कि वक़्त ने हम सबको एक-दूसरे से कितना दूर कर दिया है. स्कूली दिनों का साथी प्रकाश इतने सालों बाद अचानक मिल गया. उसने बताया कि आजकल वो कहीं एसडीएम है.
ज़िंदगी के अलग-अलग इलाक़ों से लोग यहां पहुंचे थे. कोई आंदोलनों में सक्रिय था तो कोई रंगमंच में, कोई साहित्य में तो कोई सिनेमा में. सब से कोई न कोई पुराना रिश्ता. वे पूरी आत्मीयता से अपने-अपने विषय की बात बताते रहे. आंदोलन वाले मुझसे आंदोलनकारी की तरह बोल रहे थे तो रंगमंच वाले रंगकर्मी की तरह. साहित्य वाले और सिनेमा वालों का भी यही अंदाज़ था. मुझे लगा कि हर रास्ते में चलने की कोशिश में मैं उलझकर रह गया. मुझसे अच्छे तो वो साथी है जिन्होंने गंभीरता से कोई काम किया.
वीरेनदा हमेशा की तरह हुलसकर गले मिले. तो त्रिनेत्र जोशी ने भी सदाबहार मुस्कान के साथ स्वागत किया. इलाहाबाद से प्रणय कृष्ण, कानपुर से पंकज चतुर्वेदी और दिल्ली से अजय भारद्वाज चंद्रशेखर पर बनाई फिल्म एक मिनट का मौन के साथ पहुंचे थे. ज़हूर दा में आज भी वही पुरानी सक्रियता दिख रही थी. शेखर पाठक दोनों दिन डटे रहे. उन्होंने बताया कि वो इन दिनों हिमालयी इलाक़ों में औपनिवेशिक घुसपैठ के ऐतिहासिक अध्ययन को पूरा करने में जुटे हैं. इसके लिए उन्होंने फिर से पूरे हिमालयी इलाक़ों की खाक छान मारी है. बटरोही और गिर्दा भी प्यार से मिले. राजा बहुगुणा, गिरिजा पाठक, कैलाश, केके से मिलकर भी अच्छा लगा. त्रिभुवन फर्त्याल और अनिल रजबार भी बीच-बीच में चेहरा दिखाते रहे. गिरिजा पांडे, प्रदीप पांडे और हरीश पंत भी आते-जाते रहे. गढ़वाल से आए मदन मोहन चमोली अपने फकीरी ठाठ में दिखे. और भी ढेर सारे जाने-पहचाने चेहरे मौजूद थे. पिछले अस्कोट-आराकोट अभियान के अमेरिकी साथी डेन डेंटजन और फ्रांस की पेंटर और फिल्ममेकर कैथरीन से भी मिलकर अच्छा लगा. फेस्टिवल की रीढ़ और फिल्म मेकर संजय जोशी हर वक़्त सही स्क्रीनिंग की व्यवस्था करने में जुटे नज़र आए.
दोनों दिन पूरी गहमा-गहमी रही. फेस्टिवल की ज़्यादातर फिल्में पहले से देखी हुई थीं. इसलिए मैं कभी फिल्म देखता रहा तो कभी हॉल के बाहर दोस्तों से बात करता रहा. वहां चार्ली चैप्लिन की मॉडर्न टाइम्स, वित्तोरियो दे सिका की बाइसिकल थीव्स, माजिद मजीदी की चिल्ड्रन ऑफ़ हैवन और एमएस सथ्यू की गर्म हवा जैसी फिल्में दिखाई गईं. इनके अलावा नेत्र सिंह रावत की माघ मेला और एनएस थापा की एवरेस्ट भी दिखाई गई. प्रतिरोध के सिनेमा का ये पहला फेस्टिवल भी इन्हीं को समर्पित था. इनके अलावा और भी कई डॉक्यूमेंटरीज वहां दिखाई गईं. हैरत की बात ये थी कि फेस्टिवल के दौरान वहां लगातार ख़ुफिया विभाग वाले अड्डा ज़माए रहे. पता चला कि पहले दिन दैनिक जागरण ने छापा था कि फेस्टिवल की आड़ में नैनीताल में नक्सली जुटने जा रहे हैं. इसलिए इंटैलीजेंस वालों के वीडियो कैमरों की नज़र हम पर लगातार लगी रही.
फेस्टिवल फिल्मों के अलावा भी बहुत कुछ था. वहां अवस्थी मास्साब के बनाए पोस्टरों के डॉक्यूमेंटेशन को देखना एक अद्बुत अनुभव था. मास्साब अब दुनिया में नहीं है. वो अपने हाथों से जनआंदोलनों के पक्ष में और सामाजिक विरूपताओं पर चोट करने वाले पोस्टर बनाते थे और उन्हें गले में आगे-पीछे लटका कर शहर में घूमते थे. नैनीताल के लोग इस अद्भुत व्यक्तित्व को कभी भुला नहीं पाएंगे. जब नैनीताल में था तो ज़हूर दा के इंतख़ाब में उनसे अक्सर मुलाक़ात होती थी. विनीता यशस्वी ने उनके पोस्टरों को सहेज कर बहुत बड़ा काम किया है. इस मौक़े पर बीरेन डंगवाल के कविता संग्रह स्याही ताल और दिवाकर भट्ट के संपादन में निकलने वाली पत्रिका आधारशिला के त्रिलोचन विशेषांक का भी विमोचन हुआ.
फेस्टिवल का सबसे यादगार और महत्वपूर्ण अनुभव रहा भारतीय चित्रकला पर अशोक भौमिक का प्रभावशाली व्याख्यान. सालों से सोचता रहा हूं कि जिसकी पेंटिंग्स जितनी महंगी बिकती हैं वो उतना बड़ा कलाकार कैसे मान लिया जाता है. अशोक दा की बातों में मुझे इस सवाल का जवाब मिल गया. उन्होंने रज़ा, सूजा और हुसैन के मुक़ाबले चित्त प्रसाद, जैनुअल आबीदीन और सोमनाथ होड़ की जनपक्षधर कला से रू-ब-रू कराया. थैंक्यू अशोक दा! फिल्म फेस्टिवल के दौरान ही शहर में सरकारी शरदोत्सव भी चल रहा था. वहां दिखाए जा रहे बाज़ारू कार्यक्रमों की वजह से ज़्यादातर साथी नाराज़ दिखे.
नैनीताल में शाम होते-होते पड़ने वाली हाड़ कंपा देने वाली ठंड का भी अपना ही एडवेंचर था. कुंडल ने ठंड भगाने की कुछ व्यवस्था तो की लेकिन सबकी ठंड दूर कर पाना इतना आसान नहीं था. इसलिए शायद बाहर से आए कुछ साथी निराश भी हुए. रात हमने अभिनेता इदरीश मलिक के होटल में बिताई. आजकल वो पारिवारिक वजहों से शहर में ही रहते हैं. फेस्टिवल के दौरान उनसे मुलाक़ात हो चुकी थी. हां, टीवी कलाकार हेमंत पांडे से भी मिला था. मैंने हैलो किया तो भाई की नज़र हवा में टिक गई. मैं समझ नहीं पाया कि मुझे सचमुछ नहीं पहचाना गया या बात कुछ और थी.
इतनी जल्दी शहर छोड़ने की इच्छा बिल्कुल भी नहीं थी लेकिन जल्दी लौटने की मज़बूरी थी. सुबह साढ़े पांच बजे जागकर हमने होटल छोड़ दिया. सुबह मैं और भारत वॉक करते हुए मल्लीताल से तल्लीताल पहुंचे. नैना देवी के मंदिर में घंटियां बज रही थीं, मैंने घंटियों की आवाज़ की तरफ़ ध्यान दिलाया तो उसने जोड़ा कि इससे पहले आरती और अजान भी सुनाई दे रहे थे. न जाने क्यों नास्तिक होने के बाद भी मुझे आरती और अजान में एक अद्भुत क़िस्म के संगीत का अहसास होता है. वो मेरे लिए म्यूजिक विद्आउट लिरिक जैसा कुछ है. पौ फट चुकी थी. धीरे-धीरे अंधेरा छंट रहा था. तल्लीताल कोर्ट के आसपास के भवन चांदी की तरह चमक रहे थे. ठंडी सड़क की तरफ़ अब भी अंधेरा था. झील में रोशनियों के प्रतिबिम्ब धीरे-धीरे तैरते हुए ख़त्म हो रहे थे. अंग्रेजों के बनाए गोथिक स्टाइल के आर्किटेक्चर में नैनीताल बहुत ख़ूबसूरत लग रहा था.
वो नौ नवंबर का दिन था. यानी उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस. तल्लीताल पहुंचने पर देखा कि उमा भट्ट की अगुवाई में महिला मंच की कार्यकर्ता बसों में भरकर गैरसैंण जा रही थीं. राज्य बनने के नौ साल बीत जाने के बाद भी लोग पहाड़ में राजधानी पाने के लिए लड़ रहे थे. सत्ताधारियों को जनता की ये मांग बेवकूफी लगती है. पहाड़ मुझे वहीं नज़र आया. जहां मैंने सालों पहले छोड़ा था. आंदोलन अब भी जारी हैं और प्रतिरोध की कलाएं उनके साथ खड़ी हैं. नैनीताल के लौटते वक़्त बस की अगली सीट पर बैठे मैंने देखा कि कहीं दूर नेपाल की पहाड़ियों में उग रहे लाल सूरज की किरणें यात्रियों की आंखों को चुंधिया रही थीं. हर मोड पर ये रोशनी और ज़्यादा तेज़ महसूस हो रही थी. ताज्जुब की बात ये कि मैंने आज तक पहाड़ी सफ़र में कभी इस तरह का सूरज नहीं देखा था. बस पटवाडांगर, ज्योलीकोट होते हुए आगे बढ़ रही थी. पतझड़ पीछे छूट चुका था. चारों तरफ़ हरे-भरे पेड़ थे. भावर की ढलान के बाद आगे मैदान शुरू होने थे. फिर एक दूसरे भूगोल में आना था.
6 comments:
bhupen ji Nainital ki khabar bahut behatar dhang se ham tak pahunchi...is pratirodh ke cenema festival kaa vichaar bahut achchha laga aur aapake ateet ne hamaare ateet ko bhi zinda kar diya..sanjay joshi...yaa girda...yaa ashok bhaumick...yaa apne idrees malick sab kaa naam padh padh kar bahut bechaini bhi andar se mahasoos kar raha tha ..kash main bhi aap log ke saath Nainital chl paataa....achchhe sansamaran aur report ke liye shukriya.
Bahut bahut shukriya Bhupen. Post ne Nainital Festival mein khob sara aatmiya rang jama diya hai.
Vimal bhai Pratirodh Ke Cinema ka karvaan ab teji se chal para hai. Nainital mein na aane ka gham Bhilai (13 se 15 November) ya Patna(25 se 27 Decemnber) mein aakar door karain. Nahi to fir agle saal February 4 se 7 Gorakhpur ke 5th festival mein bhi achcha jamavara lagega. Har jagah aapka aur doston ka swagat hai.
Sanjay Joshi
भूपेन बहुत दिनो बाद तुम्हारा लिखा कुछ सामने आया, बढ़िया है। मैं खुद भी वहां होती अगर ठीक उसी दिन सुपुत्र जी की तबियत नासाज़ न होती। बहरहाल, तुम्हारे जरिए आयोजन के बारे में जानकारी मिल गई। धन्यवाद।
यह जानकर अच्छा लगा की लोग अपने आप को नक्सली कहलाने पर रोमांचित होते हैं.
प्रदीप अवस्थी
ईमेल :pcawasthi@gmail.com
बहुत ही अच्छी रिपोर्टिंग भूपेन जी। बेहद तीखा और कहीं कहीं मार्मिक अंदाज। नैनीताल में न हो पाने की कुछ कमी तो आपने जरूर दूर कर दी है। आप लोगों के अगले किसी आयोजन में जरूर आऊंगा।
Bhupen Jee,
Pl. can you send this report to Yuva Samvad at ysamvad@gmail.com for publication.
A.K.Arun, Editor- Yuva Samvad
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