वह भी कोई देश है महाराज, भाग-11
मुलाकात वाले ही दिन शाश्वत ने उनका नामकरण मोहनन दादा-आं कर दिया था। हम पुकारते, मोहनन दादा तो प्रतिउत्तर में एक भौंचक चिड़िया की सी महीन आवाज आती "आं।" दक्षिण में हमारा को अमारा कहना कोई अजूबा नहीं है लेकिन इस आं में कुछ खास था। ऊपर से किसी अंग्रेजी फिल्म या उपन्यास के असर के कारण उन्हीं दिनों मोहनन दादा ने "बाल्स" को अपना तकिया कलाम बना रखा था। हर बात में झटका लेकर कहते बाल्स। उनके दोस्तों कहना था कि मोहनन अब कान से ऩहीं अपनी गोलियों से सुनते और सोचते हैं। इस जटिल प्रक्रिया को हम लोगों ने इस तरह समझा कि जैसे ही कोई उनका नाम लेता है, आवाज गोलियों से टकराती है। चूंकि वह हिस्सा बेहद संवेदनशील है, इसलिए स्वाभाविक तौर पर चोट लगती होगी और मुंह से स्वगत आकुल टिटहरी की तरह "आं" निकल जाता होगा।
उनके क्रू के साथ हम लोग सुबह शिलांग के लिए निकले जहां उनके मुताबिक आज वहां के सीयेम (राजा) लोबोरियस एस. सीयेम का दरबार लगने वाला था। गौहाटी से निकलते ही जोड़ाबाट से आगे नेशनल हाई-वे पर पहली बार मिट्टी के कचनार, हरे पहाड़ दिखे जो बांस, केले और अनानास से ढके हुए थे। सड़क किनारे बांस के छोटे-छोटे घरों के आगे बेधड़क नेपाली औरतें स्तन खोले बच्चों को दूध पिला रही थीं। संतरे मिट्टी के मोल बिक रहे थे, जो आदिवासी बूढ़े-बुढ़िया अपने गांवों से बांस की लंबी टोकरियों में भरकर लाए थे। पहली नजर मे सड़क पर सुरक्षा व्यवस्था बेहद चौकस लगती थी क्योंकि बांग्लादेश से लंबी सीमा साझा करने वाले मेघालय की तरफ से आने वाली बसों में घुसपैठियों की सघन चेकिंग चल रही थीं। जरा सा गौर करने पर समझ में आ गया कि जिन्हें दिखावे के लिए बस से उतारा जाता था, वे वहीं सामने खड़ी किसी दूसरी बस या टैक्सी में आराम से बैठ कर आगे चल देते थे।
रास्ते में बहुत सुंदर, शांत और दूर तक फैली ऊमियम झील मिली जिसके किनारे एक अकेला लड़का पतले से तांत से लटकी सात किलो की कार्प मछली बेचने के लिए गाड़ियों को हाथ दे रहा था। शिलांग को झूठ ही नहीं उत्तर-पूर्व का स्काटलैंड कहा जाता है, झील से पहले की चढ़ाई आते ही ठंड ने धावा बोला और अचानक आंखों के आगे बांस, केले की जगह चीड़ के पुराने पेड़ों की कतारें गुजरने लगीं। स्काईलाइन से आभास मिलने लगा था कि अंग्रेजों ने अपनी इस प्रिय जगह को यूरोप के किसी विक्टोरिया कालीन शहर की तर्ज पर बसाया होगा।
सीयेम के घर पहुंचने पर पता चला कि दरबार तो तीन दिन पहले मोटफ्रान चौक पर लगा था। आज टीवी चैनल के लिए उसका पुनर्मंचन किया जा रहा था। पगड़ी, सीपीयों, मोतियों से सजे चिप्स कुतरते, कोक पीते राजा ने अंग्रेजी में लिखा हैंडआउट पढ़ा कि मेघालय के सभी पचीस राज्यों में जनमत बनाया जा रहा है कि भारत सरकार संविधान में संशोधन कर वहां की पुरानी राज-व्यवस्था बहाल कर दे क्योंकि वह हर लिहाज से वर्तमान भ्रष्ट और अन्यायी लोकतंत्र से काफी बेहतर पाई गई है। शिलांग शहर लोबोरियस के प्राचीन अधिपत्य वाले राज्य हिमा मिलियम की चौहद्दी में आता है और वहां स्थित पूर्वोत्तर के सबसे बड़े बाजार इयूडू का मालिकाना और प्रबंधन राजघराने के ही हाथ में है। मतलब दुकानों का किराया उनके पास जाता है। दो दिन पहले मोटफ्रान चौक पर, सत्तर सालों में पहली बार जो दरबार लगा था उसमें खासी जनजाति के लोग अपनी पारंपरिक पोशाकों मे आए थे। युद्ध के नगाड़े और योदेल बज रहे थे, बलि दी गई थी। दूरदराज पहाड़ी गांवों से आए पारंपरिक पंचायतों के पांच हजार प्रतिनिधियों ने हाथ उठाकर राजा से आग्रह किया था कि पुरानी परंपराओं की रक्षा होनी चाहिए और खासी राज्यों को संवैधानिक मान्यता दिलाने के संघर्ष किया जाना चाहिए। ...लेकिन आज मुर्गियों की बलि गौहाटी से आए पत्रकारो के लंच के लिए दी गई थी और उन्हें पारंपरिक कच्ची की जगह अंग्रेजी शराब पिलाई जा रही थी। अजीब यह था कि खासी जनजाति में महिलाएं ही परिवार की मुखिया होती है लेकिन यहां कोई महिला नहीं दिखाई दे रही थी।
दावत जीमते हुए किसी पत्रकार ने पूछा कि गारो और जयंतिया जनजाति के लोग भी अपने पुराने राज्यों की मांग करें तो क्या आप उनका समर्थन करेंगे राजा साहेब। यह सवाल वाकई चुटकुला था जिससे राजा हंसते-हंसते दोहरा हो गया। उसने कहा, गारो लोग तो अपने राज्य की मांग करेंगे नहीं क्योंकि वहां इतने बांग्लादेशी बस गए हैं कि वे खुद अल्पसंख्यक हो गए हैं। वे किसी मैमनसिंघिया को तो अपना राजा नहीं ही बनाना चाहेंगे। (जारी)
5 comments:
कहने के लिए तो यह यात्रा विवरण है लेकिन यहां पर भी लेखक की जीवन-द़ष्टि और दुनिया को देखने का उसका नजरिया हरेक सतर में इनबिल्ट है। हल्द्वानी वाले भाई अशोक से पुन: गुजारिश है कि संपादन और प्रूफरीडिंग को बेहतर बनायें।
लेखक से अनुरोध है कि वह राजनीति अर्थनीति का ही घनीभूत प्रतिबिंब होती है, सूत्रीकरण के बरअक्स राष्ट्रीयताओं के असमान विकास वाले पहलू को भी छुए। माल उत्पादन की अर्थव्यवस्था में किस प्रकार पूर्वोत्तर मेनलैंड से पिछड़ गया, यह भी बताते चलें तो मजा आ जाएगा।
रोचक आलेख.
@"इतने बांग्लादेशी बस गए हैं कि वे खुद अल्पसंख्यक हो गए हैं।"
Seems itz going to be the case with many areas of India tomorrow. Will India ever wake up from this slumber?
देश के लगभग सभी हिस्सों से ऐसी मांग उठ रही...क्या हम सचमुच आजाद है?
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