येहूदा आमीखाई की ये कविता पहले भी लगा चुका हूं. आज पुनः लगा रहा हूं. इसलिए लगा रहा हूं कि इसकी प्रासंगिकता कभी ख़त्म नहीं होती:
येहूदा आमीखाई (१९२४-२०००) इज़राइल में पैदा हुए बीसवीं सदी के बहुत बड़े कवि थे. तीस से अधिक भाषाओं में अनूदित हो चुके येहूदा की कविता युद्ध और नफ़रत से जूझ रहे संसार की ख़ामोश पुकार है. उनके बग़ैर बीसवीं सदी की विश्व कविता ने अधूरा रह जाना था. ज़्यादा लिखने से बेहतर है उनकी आख़िरी रचनाओं में से एक आप के सम्मुख रख दी जाए.
मेरे समय की अस्थाई कविता
हिब्रू और अरबी भाषाएं लिखी जाती हैं पूर्व से पश्चिम की तरफ़
लैटिन लिखी जाती है पश्चिम से पूर्व की तरफ़
बिल्लियों जैसी होती हैं भाषाएं
आपको चाहिये उन्हें ग़लत तरीके से न सहलाएं
बादल आते हैं समुद्र से
रेगिस्तान से गर्म हवा
पेड़ झुकते हैं हवा में
और चारों हवाओं से पत्थर उड़ते हैं
चारों हवाओं तलक. वे पत्थर फेंकते हैं
इस धरती को फेंकते हैं एक दूसरे पर
लेकिन धरती वापस गिरती है धरती पर.
इसके पत्थर, इसकी मिट्टी -
आप इससे छुटकारा पा ही नहीं सकते.
वे मुझ पर पत्थर फेंकते हैं
पत्थर फेंकते हैं
सन १९३६ में १९३८ में १९४८ में १९८८ में
सेमाइट* पत्थर फेंकते हैं सेमाइटों पर
और एन्टी सेमाइट पत्थर फेंकते हैं
एन्टी सेमाइटों पर
दुष्ट पत्थर फेंकते हैं और उदारजन
पापी लोग पत्थर फेंकते हैं और फुसलाने वाले
भूगर्भवेत्ता पत्थर फेंकते हैं और दार्शनिकगण
गुर्दे और पित्ताशय पत्थर फेंकते हैं
सिरों के पत्थर
माथों के पत्थर और दिलों के पत्थर
पुरातत्ववेत्ता पत्थर फेंकते हैं और महाशैतान
चीखते मुंह के आकार के पत्थर
आपकी आंख की नाप के पत्थर
चश्मे की जोड़ी जैसे
बीता हुआ वक्त पत्थर फेंकता है भविष्य पर
और वे सारे के सारे गिरते हैं वर्तमान के ऊपर.
रोते हुए पत्थर और हंसते हुए कंकड़
यहां तक कि ईश्वर ने भी पत्थर फेंके थे बाइबिल के मुताबिक
यूरिम और तूमिम को भी फेंका गया था
और वे जा चिपके थे न्याय की तश्तरी पर
और हैरड ने फेंके थे
उसके बाद जो निकल कर सामने आया वह एक मन्दिर था
उफ़, पत्थरों की उदासी की कविता!
उफ़, पत्थरों पर फेंकी गई कविता!
उफ़, फेंके ग पत्थरों की कविता!
क्या इस धरती पर एक भी ऐसा पत्थर है
जिसे कभी फेंका न गया हो
न बनाया गया हो न पलटा गया हो
जो कभी किसी दीवार पर से न चीखा हो
और जिसे किसी भवन निर्माता ने अस्वीकार न किया हो
जिसे कभी न धरा गया हो किसी कब्र के ऊपर
जिसके ऊपर कभी न लेटे हों प्रेमीजन
और जिसे कभी किसी बुनियाद में तब्दील न किया गया हो
कृपा करके अब और पत्थर मत फेंको
तुम धरती को हटा रहे हो
इस पवित्र
सम्पूर्ण खुली धरती को
तुम उसे समुद्र में डाल रहे हो
जबकि समुद्र उसे नहीं चाहता
समुद्र कहता है "ना मेरे भीतर नहीं"
मेहरबानी करके नन्हे पत्थर फेंको
सीपियों के जीवाश्म फेंको
कंकड़ फेंको
मिगदाल त्सादेक की खदानों से न्याय और अन्याय को फेंको
मुलायम पत्थर फेंको
मीठे ढेले फेंको
चूने के पत्थर फेंको
मिट्टी फेंको
समुद्रतट की रेत फेंको
लोहे की जंग फेंको
मिट्टी फेंको
हवा फेंको
कुछ मत फेंको
जब तक कि तुम्हारे हाथ थक न जाएं
और युद्ध भी थक जाए
और यह भी हो कि शान्ति थक जाए
और बनी रहे.
*सेमाइट: मध्यपूर्व और उत्तरी अफ़्रीका में सेमाइटिक भाषा बोलने वालों का समूह
8 comments:
Kya kavia lagayee hai yaar, Panda ji... kavita kitni shaktishaali ho sakti hai... kitni dhaardaar aur kitni nam aur udaar...
yaar bahut bahut shukriya...
बहुत-बहुत धन्यवाद
आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
bahut khoob he ye kavita. prasangik bhi aour hame sochane par vivash karti hui.., और यह भी हो कि शान्ति थक जाए
और बनी रहे...
shanti....shayad yah bani hi nahi he, ise to udaarvaadiyo ne banaayaa he..mithyaa aour svapn..shanti hoti to kyaa is srashti ka nirmaan hota?? kher.., bahut se vichaar gholati he rachna.
सचमुच शानदार कविता और वैसा ही अनुवाद भी। कभी-कभी लगता है कि अगर ब्लॉग्स न पढ़ते तो मुझ जैसे लोग काफ़ी नेमतों से महरूम रह गए होते। बस बने रहें आप जैसे लोग।
बस इतनी प्रार्थाना है की आप पत्थर ढेलों कंकड़ ओलों से बच कर निकलें
यह कविता वाकई अनन्त बार पढी जा सकती है।
बीता हुआ वक्त पत्थर फेंकते हैं भविष्य पर
इसमें व्याकरण दोष है भाई--- सुधार दें।
ठीक कर दिया अशोक भाई! शुभ २०१०!!
गजब की कविता है। बार बार पढ़ी जाने लायक।
शुक्रिया। नये साल की शुभकामनाएं।
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