Monday, January 18, 2010

साल २०१०: वित्तीय साम्राज्यवादी खून-ख़राबा बढ़ेगा- त्रिनेत्र जोशी

पिछली कड़ी में वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा की बातें पढ़कर काफी हलचल मची. नीरज पासवान जी ने तो मुझे भी लपेटे में ले लिया और लिखा- 'आलोक धन्वा जी ने हिंदी के महान लेखकों की सूची गिनाई है उसमें एक भी महिला महान बनती हुई नहीं दिखी. महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर उषा प्रियंवदा और कात्यायिनी तक. लगता है पुरुष ही महान हुआ करते हैं. फिर अगर विजयशंकर चतुर्वेदी पोस्ट लिखेंगे तो स्त्री के बारे में सोच भी कौन सकता है? आप लोग महान बनाने का कारखाना चलाते रहिए और बोतल बंद द्रव सरकारी खर्चे पर पीते रहिए. ज़िंदाबाद!'

हम पासवान जी को अपने खर्चे पर धन्यवाद देते हैं और अनुरोध करते हैं कि वह सुनी-सुनायी बातों पर अपनी राय न बनाएं:)... और हाँ, अगली कड़ी इस श्रृंखला की आख़िरी कड़ी होगी.

त्रिनेत्र जोशी (वरिष्ठ कवि, अनुवादक):साल २०१० में जो राजनीति है वह एशिया और अफ्रीका केन्द्रित अधिक हो जायेगी. इसलिए कि एशिया तो अभी विकासशील राष्ट्रों की पांत में आगे है. ख़ास तौर पर भारत-चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया. अफ्रीका इस सदी के उत्तरार्द्ध में विकासशीलों की दौड़ में शामिल होगा. इससे एक क़िस्म का जो ग्लोबल बाज़ार बना है उसके चलते इन देशों में विकसित देशों का हस्तक्षेप और बढ़ेगा; यानी जिसे वित्तीय सामाज्यवाद कहते हैं. इसमें पूंजीवादी तौर-तरीकों से काम होता है, सेना भेजने की ज़रूरत नहीं पड़ती. शायद इसीलिये लेनिन ने कहा था-'साम्राज्यवाद पूंजीवाद का सर्वोत्तम मंच है.'

साल २०१० में बाज़ारों के लिए मारामारी अधिक बढ़ेगी, जिसका अर्थ यह है कि विकासमान और अल्प विकसित देशों में वित्तीय साम्राज्यवादी खून-ख़राबा बढ़ेगा और पूंजीवादी तौर-तरीके समाज पर हावी होंगे. इसमें कई विकासशील और अल्प विकसित देश साम्राज्यवादी लूट-खसोट का अड्डा बनेंगे और हो सकता है यह साम्राज्यवाद कई नए किस्म के इराक़ खड़े कर दे. लेकिन उम्मीद इस बात पर है कि एशिया और लैटिन अमेरिका के विकासमान देश इस अचानक आक्रमण से टक्कर लेंगे और इकतरफा विश्व में शक्ति संतुलन कायम कर पायेंगे. लेकिन इसमें भारत-चीन और ब्राज़ील जैसे देशों की रणनीतिक एकता, एक महत्वपूर्ण मुकाम होगी. जैसे कि आसार हैं आपसी प्रतिद्वंद्विता के बावजूद भारत और चीन एक दूसरे के निकट आने को मजबूर होंगे जिससे निश्चय ही रणनीतिक परिदृश्य बदलेगा.

जहां तक साहित्य का सवाल है, पश्चिमी हवाएं उसकी शैली पर यहाँ तक कि विषय-वस्तु पर भी अपना असर बढ़ाएंगी और साहित्य बाज़ारवाद में अपनी भूमिका निभाने को विवश सा लगेगा. इसका एकमात्र विकल्प यह है कि विकासशील देश और अल्प विकसित देशों के लेखक समाज के प्रति अपनी संवेदनात्मक प्रतिबद्धता बढ़ायें क्योंकि देश-काल के हिसाब से इस 'अग्रगामिता' के शिकार विकासशील और अल्प विकसित देशों या राष्ट्रों के समाज ही होंगे. हालांकि यह एक उम्मीद भर है. इसके बिना साहित्य अपनी बुनियादी भूमिका को सुरक्षित रख पाए, यह अनिश्चित है. लेकिन इस ओर साहित्य प्रवृत्त हो इसकी अपेक्षा करना शोषक और शोषित के बीच शोषित का पक्ष लेने की एक अनिवार्य ज़रुरत है.

यही वजह है कि साहित्यकारों के बीच संवादहीनता बढ़ रही है और मीडिया हर प्राकृतिक कोमल भाव को एक सनसनी में बदल रहा है जिसके भीतर अधिकाँश लोग सादिस्तिक आनंद पा रहे हैं. यह एक पतनशील समाज की पहली पहचान है. अगर साहित्यकार सचमुच साहित्यकार रहना चाहते हैं तो उन्हें इस संवेदनशील परिदृश्य से दो-दो हाथ करना होंगे अन्यथा जो निराशाजनक परिदृश्य है वह और भी गहन हो जाएगा.

इस सबके बावजूद कहना यह है कि न समय रुकता है, न दमन कम होता है- फिर भी यह उक्ति काफी मायने रखती है कि जहां दमन है वहां प्रतिरोध भी अवश्यम्भावी है. इसी उम्मीद के साथ हमें २०१० का आगाज़ करना चाहिए और समय रहते अपनी भूमिका तय कर लेना चाहिए.


विवेक रंजन श्रीवास्तव (कवि-व्यंग्यकार-नाटककार): सैद्धांतिक और बौद्धिक स्तर पर हम किसी से कम नहीं हैं, वैश्विक मंदी के दौर में भी भारत ने स्वयं को बचाए रखा, २००९ में जो खोया जो पाया वह सब सामने है ही. मेरी कामना है कि वर्ष 2010 में हम कुछ ऐसा कर दिखाएं जिससे मंहगाई नियंत्रित हो जिससे मेरे प्रथम व्यंग्य संग्रह का किरदार 'रामभरोसे', जो महात्मा गाँधी का अंतिम व्यक्ति है, चैन की रोटी खा सके, उसे प्यास बुझाने को पानी खरीदना न पड़े. पड़ोसी देशो की कूटनीति पर हमें विजय मिले, कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन भर नहीं बल्कि कुछ ऐसी नीतिगत खेल व्यवस्था हो कि हम पदक तालिकाओ में भी नजर आयें.

यह तो था मेरा कवि-नाटककार वाला अवतार. अब व्यंग्यकार के चोले में प्रवेश करता हूँ. एक व्यंग्यकार होने के नाते मेरी नए वर्ष से कुछ मांगें इस प्रकार हैं-

1.वात्स्यायन (कामसूत्र वाले) पुरस्कारों की स्थापना हो

जब से हमारे एक प्रदेश के ८६ वर्षीय (अब पूर्व और अभूतपूर्व हो चुके) महामहिम जी पर केंद्रित शयन शैया पर निर्मित फिल्म (पता नहीं 'असल या नकल') का प्रसारण एक टी वी चैनल पर हुआ है, जरूरत हो चली है कि वात्स्यायन पुरस्कारों की स्थापना हो ही जाए. वानप्रस्थ की जर्जर परम्परा और जरावस्था को चुनौती देते कथित प्रकरण से कई बुजुर्गों को इन सद्प्रयासों से नई उर्जा मिलेगी और उनमें साहस का संचार होगा. प्राचीन समय से हमारे ॠषि-मुनि और आज के वैज्ञानिक चिर युवा बने रहने की जिस अनंत खोज में लगे रहे हैं, उस दिशा में यह एक सार्थक, रात्रि-स्मरणीय एवं अनुकरणीय उदाहरण होगा!

2.आतंकवाद के रचनात्मक पहलू पर ध्यान दिया जाए

कभी बेचारे आतंकवादियों के दृष्टिकोण से भी तो सोचिये. कितनी मुश्किलों में रहते हैं वे! गुमनामी के अंधेरों में, संपूर्ण डेडिकेशन के साथ अपने मकसद के लिये जान हथेली पर रखकर, घर-परिवार छोड़ जंगलों में प्रशिक्षण प्राप्त कर, भारी जुगाड़ करके श्रेष्ठतम अस्त्र-शस्त्र जुटाना खाने का काम नहीं है. पल दो पल के धमाके के लिये सारा जीवन होम कर देना कोई इन जांबांजों से सीखे! आत्मघात का जो उदाहरण हमारे आतंकवादी भाई प्रस्तुत कर रहे हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है. अपने मिशन के पक्के दृढ़प्रतिज्ञ हमारे आतंकी भाई जो हरकतें कर रहे हैं वे वीरता के उदाहरण बन सकती हैं. जरूरत बस इतनी है कि कोई आपके जैसा महान लेखक या ब्लॉगर उन पर अपनी सकारात्मक कलम चला दे.

3.भ्रष्टाचार को नैतिक समर्थन मिले

सरवाइवल आफ फिटेस्ट के सिद्धांत को ध्यान में रखें, तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद जिस तरह से भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी गति से फल फूल रहा है, उसे देखते हुये मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि विश्वगुरु भारत को भ्रष्टाचार के पक्ष में खुलकर सामने आ जाना चाहिये. हमें दुनिया को भ्रष्टाचार के लाभ बताना चाहिये. पारदर्शिता का समय है, विज्ञापन बालायें और फिल्मी नायिकायें पूर्ण पारदर्शी होती जा रही हैं. पारदर्शिता के ऐसे युग में भ्रष्टाचार को स्वीकारने में ही भलाई है और हर नस्ल के भ्रष्टाचारियों की मलाई ही मलाई है.

1 comment:

Ek ziddi dhun said...

Vijayshankar vahi to likhenge bhaii jo interview dene wala bolega. ye ajeeb shikayat hai