Tuesday, February 2, 2010

चोक लेती जिन्दगी



कुछ न कर पाने की शर्मिंदगी के साथ भी मानना पड़ेगा कि सारे कबाड़ी लंबी ताने सो रहे हों या "हाईबरनेसनिया" रहे हों तो भी एक वाचमैन है जो "आल ईज वेल" की पुकार लगाते हुए फेरे लगाता रहता है। अकेले दम पर पूरे मजमे को थामे रह सकता है। क्या आप बता सकते हैं कि यह पासबां कौन है। अल्लामा इकबाल उसका जिक्र अपनी एक नज्म में हमसाया-ए-आसमां के तौर पर कर गए हैं। अभी सोच रहा हूं कि किसी दिन वह भी बिगड़ गया या कबाड़खाने की चौकीदारी छोड़ कर कुछ और करने लगा तो....। ब्लागिंग को मजमा कहने से बिदकें नहीं जरा इसकी प्रवृत्तियों पर गौर फरमाएं।

बहरहाल भाई काफ्का ने कबाड़खाने पर ध्वनियों, दृश्यों का ऐसा सिलसिला बांध रखा है कि अनुभूतियों के उस बीहड़ में जाते हुए डर लगता है। वह ऐसी दुनिया का दरवाजा खोलता है जिससे छूट कर हम भाग चुके हैं।

वैसे हमारी इंद्रियों की हद में कई सतत उपस्थित आवाजें हैं जिन्हें हम नहीं सुनते। वे सदा हमारे आसपास हैं फिर भी नहीं सुनाई पड़तीं, ढेरों दृश्य हैं जो हर मिनट बदल रहे हैं लेकिन नहीं दिखाई देते, स्पर्श, गंध और स्वाद हैं जो नहीं महसूस होते। आप गौर करें तो पाएंगे कि ट्यूबलाइट गुनगुनाती है। लता मंगेशकर की तरह नहीं, झरती रोशनी के प्रवाह की तरह। उसकी गुनगुन में व्यवधान तब पड़ता है जब ट्यूबलाइट झपकती है। इसीसे या शायद बाईक या लुप्त प्राय स्कूटर में तेल खत्म हो जाने के बाद की संकटपूर्ण परिस्थिति से चोक लेने का मुहावरा ईजाद हुआ है जिसे मनुष्यों पर पूरी तरह फिट पाया गया है। वाहनों से गति सम्मोहित आदमी का गहरा रिश्ता है, शायद इसी कारण छोटे कद की लड़कियों को मेरे शहर में "नैनो" कहा जाने लगा है।

खैर कहीं भी रहें झींगुर बोलते हैं और कुत्ते रातों को रोते हैं। ट्रेन गुजरती है और सीटी भी बजाती है। घड़ी टिक टिक करती है, मदारी अपने काजल लगाए बंदरों के साथ फिजूल घूमते रहते हैं। कौए कराहते हैं। हर हाथ स्पर्श अलग होता है लेकिन हमारा ध्यान तभी झटका खाता है जब मिलाते समय कोई अपना हाथ अहसान के भाव बस छुला भर देता है या हमारे हाथ में रख कर बस भूल ही जाता है। हम जानते बूझते कहीं और भूले रहते हैं। एक दिन हम यह भी भूल जाते हैं कि हम कभी क्या करने की सोचते थे। हमें क्या करना सबसे अच्छा लगता है। हम सबसे बेहतर क्या कर सकते हैं। क्या करते हुए हम खो कर देश-काल की सीमा लांघ जाते हैं और एक अपरिमित ऊर्जा से आप्लावित हो जाते हैं। लेकिन उस ऊर्जा के बजाए हमें किसी मानवाकार मशीन का पुर्जा होना भाता है।

....यह किसकी जिंदगी हो जो हम जी रहे हैं ?

4 comments:

Udan Tashtari said...

इतना भी कहाँ सोचते, बस जिये जा रहे हैं.


’नैनो’ नया जुमला मालूम हुआ अलग संदर्भ में!! :)

कामता प्रसाद said...

भाई जो सर्जक हैं रचें, निरंतर रचते रहें। सामूहिक सर्जनात्‍मकता के मंच की जिम्‍मेदारी-जवाबदेही किसी एक पर ही क्‍यों यह पूछने से पहले सभी कबाड़ी सहित यह पूछें कि मैं क्‍यों नहीं, निष्क्रिय कब तक रहेंगे।
दायित्‍वबोध और सहज रचनाधर्म का संगम जरूरी है, अब भी संभलें आप सभी और इंद्रधनुषी छटा बिखेरें।
आमीन

संजय भास्‍कर said...

good...

Unknown said...

ye ek jaroori post thee.
vaise akela kabadi hi dale hue langar shandaar dhang se.