Saturday, February 13, 2010

मेरी जिंदगी में किताबें

कुछ दिन हुए किताबों के महामेले से लौटी हूं। पुस्‍तक मेले में जाना मेरे लिए किसी उत्‍सव की तरह होता है, हालांकि जानती हूं कि वहां से मनों निराशा और टनों उदासी के साथ वापस लौटूंगी। हिंदी किताबों का संसार हजार-हजार फांस बनकर आंखों में चुभता रहता है। छुटपन से इसी सपने के साथ बड़ी हुई थी कि बड़ी होकर लेखक बनूंगी, पर जैसे-जैसे बड़ी होती जाती हूं, लेखक बनने का सपना किसी बीहड़ बियाबान में गुम होता जाता है। पत्रकार बनूंगी, सोचा भी नहीं था, पर वक्‍त के साथ पत्रकारिता की दुनिया में तथाकथित नाम कमाने और पैसा पीट लेने के सपने न सिर्फ सिर उगाते हैं, बल्कि थोड़ी सी तिकड़मों के साथ उन्‍हें पूरा करने की राहें भी हर दिन खुलती नजर आती हैं।

पर मुझे अखबार से ज्‍यादा किताबों से प्‍यार है।

होश संभालने के साथ ही मैंने पाया था कि किताबें झाडू और कलछी की तरह ही एक कमरे के हमारे मामूली से घर का हिस्‍सा थीं। मुश्किल से 12 बाई 12 के एक कमरे में मेरे मां-पापा की समूची गृहस्‍थी थी, जिसका एक बड़ा हिस्‍सा किताबों से पटा हुआ था। ऊपर टाण पर, मेज पर, कमरे के कोने में ईंटों पर लकड़ी के पटरे रखकर बनाई हुई शेल्‍फ पर किताबें सजी रहती थीं। लकड़ी पर अखबार बिछाकर पापा करीने से मार्क्‍सवाद, दर्शन और इतिहास की किताबें रखते थे। जब भी वो घर पर होते तो या किताब पढ़ रहे होते थे या किसी दोस्‍त के साथ उन किताबों पर कुछ ऐसी उलझी बहसें कर रहे होते, जिसका सिर-पैर भी मेरी समझ में नहीं आता था। मां चुपचाप उसी कमरे के एक कोने में, जहां रखा एक स्‍टोप, कुछ डिब्‍बे और बर्तन उसे रसोई जैसा आभास देते थे, में सिर झुकाए चाय बनाती या सब्‍जी छौंक रही होतीं। मां को वो बातें कितनी समझ में आती थीं, पता नहीं। लेकिन उन्‍हीं में से कुछ किताबों के अंदर पिता से छिपाकर वक्‍त-जरूरत के लिए कुछ पैसे रखने के सिवा मां को उनकी कोई खास सार्थकता समझ में आती थी, मुझे पता नहीं। वो अकसर किताबों के इस कबाड़ को लेकर नाराज होती रहती थीं, जिसे दिल्‍ली, खुर्जा, गाजियाबाद से लेकर अब इलाहाबाद तक पापा साथ-साथ ढोते रहे थे। पापा जिस भी दिन कोई नई किताब खरीद लाते, मां बहुत चिक-चिक करतीं। एक ढंग का पंखा भी नहीं है, सड़ी गर्मियों में भी इस टुटहे टेबल फैन से काम चलाना पड़ता है। ये नहीं कि एक तखत खरीद लें, एक गैस का चूल्‍हा। स्‍टोप के धुएं में आंखें फोड़ती हूं। पर इन्‍हें अपनी किताबों में आंखें फोड़ने से फुरसत नहीं। मां झींकती, पर उन किताबों की देखभाल वही करती थीं। एक-एक किताब कपड़े से साफ करके करीने से रखतीं, उनकी धूल झाड़ती, दीमक और फफूंद से बचाने के लिए धूप दिखातीं। लेकिन शाम को पापा फ़िर कोई नई किताब ले आते और मां की झकबक शुरू हो जाती।

ऐसे आदमी से ब्‍याह करके उनकी किस्‍मत फूट गई है, जिसे इन मरी किताबों के अलावा जीती-जागती मां की कोई परवाह नहीं है। शादी के दस सालों में पापा ने उन्‍हें एक साड़ी भी नहीं दिलाई। जो कुछ भी है, उनकी मुंबईया मां का दिया हुआ है वरना पापा तो निरे फो‍कटिया ठहरे। मैं सचमुच इस बात पर यकीन करती कि मां पापा को फोकटिया ही समझती हैं, अगर एक बार मैंने मुंबई में नानी के यहां, नानी के ये कहने पर कि तुम्‍हारा पति तो बिलकुल निठल्‍ला है, खास कमाता नहीं और जो कमाता है, सब किताबों पर फूंक देता है, मां ने जवाब में ये न कहा होता कि उन्‍हें अपने पति पर बहुत गर्व है। मां ने उनमें से कुछ किताबें पढ़ी हैं और वो सचमुच ज्ञान का भंडार हैं। तब मेरी उम्र कुछ पांच बरस रही होगी। मैंने बाद में चुपके से पापा से कहा था कि मां नानी से कह रही थीं कि उन्‍हें आप पर बड़ा गर्व है।

गर्व मुझे भी था। बड़ी मामूली सी उम्र में ही मैंने जिंदगी में किताबों की जरूरत और उसकी कीमत को समझ लिया था। उनमें लिखी बातें मैंने बहुत बाद में पढ़ीं, लेकिन ये हमेशा से जानती थी कि ये किताबें हमारे घर और हमारे होने का निहायत जरूरी हिस्‍सा थीं। आस-पड़ोस और मुंबई में हमारे रिश्‍तेदारों में से किसी के यहां गीता प्रेस, गोरखपुर वाला गुटका रामायण, हनुमान चालीसा, तुलसी उवाच या कबीर के दोहे छोड़कर कुछ खास किताबें नहीं थीं। कोर्स की किताब भी अगली क्‍लास में जाने के साथ ही बेच दी जाती और अगले क्‍लास की सेकेंड हैंड किताबें खरीद ली जातीं। सभी रिश्‍तेदार आपस में सामानों और गहनों की तुलना करते हुए एक-दूसरे से आगे निकल जाने की फिराक में रहते थे। मौसी की नींद इसी बात से तबाह हो सकती थी कि मामी ने पांच तोले का सोने का हार बनवा लिया है और वो अभी तक ब्‍याह की पतरकी चेन से ही गुजरा कर रही हैं।

लेकिन पापा उस दुनिया का हिस्‍सा नहीं थे। वो अपने तख्‍ते, लकड़ी के पटरे वाली शेल्‍फ, टुटहे टेबल फैन और किताबों में संतुष्‍ट रहने वाले जीव थे। मैं भी मुंबईया खचर-पचर वाली दुनिया को देखकर चकित-भ्रमित होती थी, लेकिन फिर इलाहाबाद लौटकर पापा की किताबें देखकर खुश भी हो जाया करती थी।

लेकिन जब वक्‍त गुजरने और आर्थिक तंगियां बढ़ते जाने के बाद भी पापा के किताबें खरीदने पर लगाम नहीं लगी तो मां की जबान पर भी लगाम नहीं रही। वो नाराज होतीं और दुखी भी। जब बोलने पर आतीं तो बोलती चली जातीं। अपनी नहीं तो कम से कम दो-दो लड़कियों की तो सोचो। उनके ब्‍याह के लिए कुछ जोड़ो। लड़कियां कुंवारी बैठी रहेंगी और ये किताबों में सिर दिए रहेंगे।

मुझे समझ में नहीं आया कि पापा के किताब पढ़ने की वजह से कैसे हमारी शादी नहीं हो पाएगी। जो भी हो, शादी से मुझे वैसे भी चिढ़ थी। बैहराना में महिला सेवा सदन इंटर कॉलेज वाली जिस गली में हमारा एक कमरे का घर था, उसके मुहाने पर एक लॉरी वाला रोज दारू पीकर अपनी बीवी की कुटम्‍मस करता था। मकान मालिक चौरसिया बात-बात पर अपनी बीवी पर चिल्‍लाता रहता था, कुतिया के कान में खूंट पड़ी है। हरामजादन सुनती ही नहीं। बगल के कमरे का किराएदार पूर्णमासी यादव बीवी के घर से जाते ही मुझे बुलाकर गोदी में बिठाने के लिए चुमकारने लगता था। इसलिए मुझे शादी और आदमी के नाम से ही घिन आती थी। अच्‍छा ही है शादी न हो। इन किताबों के बहाने ही सही।

जारी

4 comments:

संजय @ मो सम कौन... said...

रोचक, अगले भाग का इंतजार रहेगा।

Randhir Singh Suman said...

nice

मुनीश ( munish ) said...

'Vyasane Vidya Vyasanam'. To study too much has been counted among the vices albeit the best one among vices in old Sanskrit teachings.Today net is replacing the books and it is a source of woes for many women in urban India. Thanx for a moving piece of memoir' any way !

प्रज्ञा पांडेय said...

kitaabon ka nashaa jo na karaaye kam hai ..vaise kitaabon ke nashe se achchha koi nasha nahin hai ..