इस कबाड़ी ने अबके लंबा गोता मार लिया । लेकिन 'ग़ालिबे खस्त: के बगैर कौन - से काम बन्द हैं'। दुनिया अपनी चाल से चल रही है , चलती रहेगी। आज से होली की शुरुआत और नज़ीर अकबराबादी की शायरी से ! साथ है छाया गांगुली का सधा हुआ स्वर: यह रचना ( शब्द और स्वर दोनो ) ब्लॊग पर कई जगह , 'कबाड़ख़ाना' पर भी हाजिर है फिर भी आज आइए इसे नए सिरे से सुनते हैं:
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और डफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
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गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
( चित्र : भारती प्रजापति की कलाकृति , साभार )
8 comments:
Nazeer rocks !ppl. talk of Rumi and no nothing of Nazeer.Nazeer admirers must unite and organise a memorial night. Im with them .
Wah kaya baat hai, bahut shaandaar shuruaat karwai hai aapne Holi ki. Holi Mubarak.
Excellent !!!
नज़ीर भैय्या...तुम भी ब्रिज-वासी हो,
तुम्को सुन -सुन मन बोले,
आज फिर जम के
मस्ती-मार ऐयाशी हो !!
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
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सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
सब मिल जै बोलो ब्रिज-वासी ,कन्हैय्या नन्दन की !!
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Execellent !!!
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की .. आपने तो होली में भिगो ही दिया ... बधाई
बेहतरीन !
excellent !!
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