ऐसे ही पुराने काग़ज़ टटोलते हुए लीलाधर जगूड़ी जी की कविता कहीं लिखी दिख गई. क्यों न आपके साथ बांटा जाए इसे:
प्रेमप्रेम ख़ुद एक भोग है जिसमें प्रेम करने वाले को भोगता है प्रेम
प्रेम ख़ुद एक रोग है जिसमें प्रेम करने वाले रहते हैं बीमार
प्रेम जो सब बंधनों से मुक्त करे, मुश्किल है
प्रेमीजनों को चाहिये कि वे किसी एक ही के प्रेम में गिरफ़्तार न हों
प्रेमी आएं और सबके प्रेम में मुब्तिला हों
नदी में डूबे पत्थर की तरह
वे लहरें नहीं
चोटें गिनते हैं
और पहले से ज़्यादा चिकने, चमकीले और हल्के हो जाते हैं
प्रेम फ़ालतू का बोझ उतार देता है,
यहां तक कि त्वचा भी
3 comments:
Ye hai kavita ! vilakshan !vah !
ये कविता बहुत सुंदर है और बहुत सच भी। सचमुच हमारे समय में जो भी, जैसा भी, जितना भी और जहां भी प्रेम नजर आता है, उसमें गरिमा और उदात्ता नहीं है। सब प्रेम के नाम पर दुखी होते हैं और आपस में लड़ते रहते हैं।
"नदी में डूबे पत्थर की तरह
वे लहरें नहीं
चोटें गिनते हैं
और पहले से ज़्यादा चिकने, चमकीले और हल्के हो जाते हैं
प्रेम फ़ालतू का बोझ उतार देता है,
यहां तक कि त्वचा भी "
PREM CHOT HAI , DUA MARHAM SAB KEHTE HAIN - KI YE BHARE NA KABHI ..
BAHUT UMDA KAVITA ..MAN PRASANNA HO GAYA :)
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