तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि बासर लाग्यौ रहे, कृष्णचंद्र की ओर ।
अकबरी और जहांगीरी दरबार से जुड़े रहीम ( १५२६- १६२७ ) का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है। वे तो कलम के धनी होने के साथ तलवार के भी धनी थे. हिन्दी में कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा से जुड़े कई विद्यापति, सूर, मीरां, रसखान और तमाम मध्यकालीन कवियों के साथ रहीम का नाम नहीं लिया जाता है. रहीम या अब्दुर्रहीम खानखानां हालांकि कृष्ण काव्य परंपरा से उस तरह से सम्बद्ध भी नहीं माने जाते हैं जैसे ऊपर उल्लिखित अन्य कवि. हिन्दी पढ़ने - लिखने - पढ़ाने वालों के लिए वे मुख्यत: नीतिपरक दोहों व सोरठों के रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं लेकिन यह बताना (शायद) कोई नई बात नहीं होगी कि उन्होंने कई भाषाओं में लिखा है. आज उनके संस्कृत काव्य का आनंद लेते हैं ।श्रीकृष्ण की विनती में रहीम के लिखे दो श्लोक प्रस्तुत हैं-
आनीता नटवन्मया तव पुर: श्रीकृष्ण ! या भूमिका .
व्योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्त्वप्रीत्येद्यावधि ..
प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भवगन् स्वप्रार्थित देहि मे .
नीचेद ब्रूहि कदापि मानय पुनस्त्वेताद्रिशीं भूमिकाम् ..
( हे श्रीकृष्ण ! आपकी प्रीति की प्रत्याशा में मैं आज तक नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चौरासी लाख रूप धारण करता रहा हूं. हे भगवन ! यदि आप मेरी इस गति से प्रसन्न हुए हैं तो आज मैं जो कुछ भी मांगता हूं उसे दीजिये और यदि नही तो ऐसी आज्ञा दीजिये कि मैं फिर कभी इस तरह के स्वांग को धारण कर / धारण करने हेतु इस पृथ्वी पर न लाया जाऊं )
रत्नाकरोस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय .
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं,
दत्तं मया निज मनस्तदिदं गृहाण .
(हे श्रीकृष्ण ! रत्नाकर अथवा समुद्र आपका सदन या गृह या घर है और लक्ष्मी जी आपकी गृहिणी हैं. तब हे जगदीश्वर ! आप ही बताइये कि आपको देने योग्य बचा ही क्या? राधा जी ने आपके मन मन का हरण कर लिया है, यही एक वस्तु है जो आप के पास नहीं है जिसे मैं आपको देता हूं ,लीजिए कृपापूर्वक मेरे मन को ग्रहण कीजिये.)
निसि बासर लाग्यौ रहे, कृष्णचंद्र की ओर ।
अकबरी और जहांगीरी दरबार से जुड़े रहीम ( १५२६- १६२७ ) का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है। वे तो कलम के धनी होने के साथ तलवार के भी धनी थे. हिन्दी में कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा से जुड़े कई विद्यापति, सूर, मीरां, रसखान और तमाम मध्यकालीन कवियों के साथ रहीम का नाम नहीं लिया जाता है. रहीम या अब्दुर्रहीम खानखानां हालांकि कृष्ण काव्य परंपरा से उस तरह से सम्बद्ध भी नहीं माने जाते हैं जैसे ऊपर उल्लिखित अन्य कवि. हिन्दी पढ़ने - लिखने - पढ़ाने वालों के लिए वे मुख्यत: नीतिपरक दोहों व सोरठों के रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं लेकिन यह बताना (शायद) कोई नई बात नहीं होगी कि उन्होंने कई भाषाओं में लिखा है. आज उनके संस्कृत काव्य का आनंद लेते हैं ।श्रीकृष्ण की विनती में रहीम के लिखे दो श्लोक प्रस्तुत हैं-
व्योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्त्वप्रीत्येद्यावधि ..
प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भवगन् स्वप्रार्थित देहि मे .
नीचेद ब्रूहि कदापि मानय पुनस्त्वेताद्रिशीं भूमिकाम् ..
( हे श्रीकृष्ण ! आपकी प्रीति की प्रत्याशा में मैं आज तक नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चौरासी लाख रूप धारण करता रहा हूं. हे भगवन ! यदि आप मेरी इस गति से प्रसन्न हुए हैं तो आज मैं जो कुछ भी मांगता हूं उसे दीजिये और यदि नही तो ऐसी आज्ञा दीजिये कि मैं फिर कभी इस तरह के स्वांग को धारण कर / धारण करने हेतु इस पृथ्वी पर न लाया जाऊं )
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रत्नाकरोस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय .
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं,
दत्तं मया निज मनस्तदिदं गृहाण .
(हे श्रीकृष्ण ! रत्नाकर अथवा समुद्र आपका सदन या गृह या घर है और लक्ष्मी जी आपकी गृहिणी हैं. तब हे जगदीश्वर ! आप ही बताइये कि आपको देने योग्य बचा ही क्या? राधा जी ने आपके मन मन का हरण कर लिया है, यही एक वस्तु है जो आप के पास नहीं है जिसे मैं आपको देता हूं ,लीजिए कृपापूर्वक मेरे मन को ग्रहण कीजिये.)
3 comments:
एक दम नयी जानकारी
मुझे तो पता ही नहीं था की रहीम ने संस्कृत में भी लिखा है
साधुवाद..
ये बिल्कुल नयी जानकारी मिली और सूचना-स्फोट के इस ज़ालिम समय में मिल रही तमाम अंड-बंड जानकारियों के समय में ऐसी मधुर सूचनाएँ राहत देती हैं .
बिल्कुल नयी जानकारी मिली .साधुवाद..
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