Thursday, April 8, 2010

आई प्रवीर - द आदिवासी गॉड - 1

करीब छः साल पहले मुझे बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों में डेढ़ माह बिताने का मौका मिला था. आदिवासियों और जनजातियों की साधारण और निश्छल जीवनशैली मुझे हमेशा आकर्षित करती रही है. यह आकर्षण मुझे उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भी ले गया है और महाराष्ट्र के वार्ली-बहुल इलाके में भी. ख़ैर. हाल में हुए भीषण नक्सली हमले की ख़बर ने मुझे भीतर तक बेचैन कर दिया. यह एक जगजाहिर बात है कि भारत में तथाकथित विकास नामक शब्द एक ऐसी भेड़चाल का नाम है जिसमें राजधानियों में बन्द कमरों के भीतर सूट टाई धारण किए हुए लोगों के अपढ़ दस्ते सड़क, पानी, गरीबी, बिजली इत्यादि शब्दों का सतत जाप करते हुए अर्धचेतनावस्था में यदा कदा कुछ तुगलकी नियम निर्मित कर देते हैं और विकास होता जाता है.

बस्तर का ज़िक्र आया है तो मैं हैरत कर रहा हूं कि भारत के कितने गृहमन्त्रियों ने वेरियर अल्विन का नाम सुना था या है या यह जानने की कोशिश की है बस्तर आज जल रहा है तो उसकी वजह का उद्गमस्थल बस्तर से बाहर तो नहीं है. वे तो शायद यह भी नहीं जानते कि छब्बीस जनवरी की परेड में सॉंग एन्ड ड्रामा डिवीज़न की किसी इकाई द्वारा तैयार आदिवासी लोकनृत्य की झांकी के अलावा भी कोई बस्तर हो सकता है जहां उन्हीं के जैसे हाड़ मांस के लोग दिन रात रोटी के लिए खटा करते हैं.

इन भोले भाले लोगों पर जिस तरह का विकास थोपा गया, उसके पीछे न कोई सोच थी न स्थानीय आवश्यकताओं पर कोई निगाह.

अगर आज वहां नक्सलवाद अपने चरम पर पहुंचा हुआ है तो यह क़तई हैरत की बात नहीं है.

मेरे पास एक किताब है आई प्रवीर - द आदिवासी गॉड. यह किताब बस्तर के अतिलोकप्रिय महाराज प्रवीर चन्द्र भंजदेव द्वारा १९६६ में लिखी गई थी. स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जब केन्द्र और राज्य सरकारों ने विकास के नाम पर बस्तर के प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन शुरू किया तो प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने अपने लोगों को राजनैतिक नेतृत्व मुहैया कराया. कांग्रेस को प्रवीर चन्द्र भंजदेव एक बड़ा खतरा लगे. पच्चीस मार्च १९६६ को जगदलपुर में उनके महल की सीढ़ियों पर तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने उनकी नृशंस हत्या कर दी. कुल तेरह गोलियां मारी गईं उन्हें. उनके साथ सरकारी आंकड़ों के हिसाब से दर्ज़न भर लोग और मारे गए.

आप यक़ीन मानिये, प्रवीर चन्द्र भंजदेव को लोग आज भी बस्तर में किसी देवता की तरह पूजते हैं.

मैं आपको इस किताब के चन्द हिस्से आज से पढ़वाने जा रहा हूं. हो सकता है बस्तर के असन्तोष को समझने में आपको थोड़ी मदद मिले.




... बस्तर को एशिया महाद्वीप का सबसे वृहद ज़िला समझा जाता है किन्तु दुख है कि इस पूरे भारी भरकम ज़िले में वर्तमान में मात्र एक ही उपाधि महाविद्यालय है जिसे जनता से चन्दा इकठ्ठा करके खोला गया है. इस महाविद्यालय के शिक्षकों की आवश्यकताओं की पूर्ति गांव-गांव से मांग कर की जाती है. इन्हें कई-कई माह तक पारिश्रमिक भी प्राप्त नहीं होता और अन्ततः जब कुछ धनराशि कहीं किसी स्रोत से प्राप्त होती भी है तो इसे लूट के शिकार भ्रष्ट सरकारी अधिकारी वर्ग तथा घृणित कांग्रेसी नेताओं द्वारा डकार लिया जाता है. भारत में कांग्रेसी चुनावी पराजय का आज यह एक सामान्य कारण है. भारतीय प्रशासन समझता है कि बस्तर के आदिवासी क्षेत्र से हज़ारों आदिम तथा परिगणित समुदाय के युवक शिक्षित किये जा रहे हैं जिस पर बारह करोड़ की राशि हर वर्ष खर्च की जा रही है. किन्तु इस राशि का एक बड़ा हिस्सा सरकारी अधिकारी तथा कांग्रेसी नेता डकार जाते हैं. यह कितने दुख की बात है कि दण्डकारण्य परियोजना के तहत विस्थापित शरणार्थियों को मुफ़्त में ज़मीनें दी जा रही हैं किन्तु मूल्य के भुगतान के बावजूद भी इन आदिवासियों को इनकी ही ज़मीनें देने से इन्कार कर दिया जाता है. गरीब आदिवासी लोग इन ज़मीनों को अनुनय-विनय के बाद भी प्राप्त नहीं कर सकते. चिकित्सा सेवाओं की कमी बस्तर की एक महत्वपूर्ण समस्या है. यहां चिकित्सालयों की संख्या नगण्य है कांग्रेसी प्रशासन इस बात से उदासीन है. आज तक यह आदिम समुदाय मद्यपान को अपनी दूसरी आदत मानता है. एक ओर तो इन आदिवासियों के गुणात्मक सुधार के लिए उन्हें दन्तेश्वरी देवी के मन्दिर में मद्यपान त्यागने की शपथ दिलाई जा रही है दूसरी ओर शराब की नई दुकानें खोल कर उसकी खपत बढ़ाई जा रही है. शराब की नई दुकानें खोली जा रही हैं सद्भावना के नाम पर, मानवोचित परम्पराओं के नाम पर और अन्ततः दुखों को, श्रम को भूल जाने के नाम पर, किन्तु यही प्रभावित लोग किसी कानूनी जांच कार्यवाहियों पर इन्हीं आधारों पर इसका विरोध करते हैं तो यही अधिकारी उनसे सामान्य सहानुभूति भी नहीं रखते और साधनों का अभाव बताकर अपने स्वास्थ्यमन्त्री को खुश कर लेते हैं. इस शहर जगदलपुर से केवल छः मील की दूरी पर एक गांव है मालगांव. इस गांव में जब कुछ गम्भीर बीमारियों के मामले प्रकाश में आए तो इस छः मील की यात्रा के लिए कई घन्टे का समय नष्ट किया गया और इसके बाद भी चिकित्सकों और औषधियों का नितान्त अभाव था. शाय्द इस कांग्रेस की गरीब सरकार के पास उसके डाक्तरों के लिए उचित द्वाइयों का प्रबन्ध नहीं था. अन्ततः महज़ औपचारिकता भर का इलाज किया गया. परिणाम क्या हुए होंगे, सहज अनुमान लगाया जा सकता है. यह हाल है इस बस्तर के विकास का. रियासती काल में बीमार लोगों की चिकित्सा की समुचित व्यवस्था तो थी ही. रियासती प्रशासन इस बारे में हमेशा सजग रहता था. महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की स्मृति में जगदलपुर में महारानी अस्पताल बनाया गया था. आदिम तथा परिगणित समुदाय की पुश्तैनी और परम्परागत बीमारियों के सम्बन्ध में निरन्तर संरक्षण, जांच, अनुसंधान तथा निदान के लिए इस अस्पताल में अलग-अलग विभाग थे. ये विभाग रियासती समय में प्रशासनिक सेवा के महत्वपूर्ण विभाग माने जाते थे.

(जारी)

13 comments:

डॉ .अनुराग said...

सारी बाते ठीक है .ये भी सच है के आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए जिन प्रयासों की ईमानदारी से आवश्यकता थी वे नहीं हुए .....स्थानीय सरकार ने नहीं किये....सरकार का मतलब कौन है ....लोग.....सरकार अपना आदेश कागजो में देती है ..उसे पालन करने वाले कौन लोग है .....स्थाय्नीय लोग.....लोग यानी वो लोग जो वहां बसते है .वे भी शोषण में हिस्सेदार है .....आदिवासी समाज अपने अधिकारों के प्रति सचेत नहीं है सच है ..... पर उसका इस्तेमाल कौन कर रहा है ओर किनके खिलाफ ?ये भी सच है के हिन्दुस्तान की आधी आबादी को अब आदिवासी सिर्फ नक्सल वादी के रूप में प्रचारित किये जा रहे है ...पर उसके भटके हुए समूह का इस्तेमाल तो हो रहा है .......
कोई भी वाद आदर्श ओर नैतिकता के झंडे तले शुरू होता है ....फिर गुजरते वक़्त के साथ .सत्ता ओर ताक़त का स्वाद जीभ से लगते ही ...भटकने लगता है .लोग इस्तेमाल होते है ......तो बदलाव की जरुरत के लिए .....उसे लाने के लिए एक नया सामान्तर सिस्टम खड़ा करना जो गुजरते वक़्त के साथ इसी इन्फेक्शन का शिकार होने वाला है .खतरे को ओर बढा देना है ...अब जाने किसकी गयी.निर्दोष जवानो की ......
बेहद संवेदनशील प्रक्रिया है जिसमे सिर्फ सरकार को कोसने से काम नहीं चलेगा.....आम आदमी को अपने जीवन में नैतिक बिहेवियर सिखाने की अकेले जिम्मेवारी सरकार की नहीं है .....यूँ भी हिंसा से ये ओर मुख्या धारा से दूर होगे

arvind said...

जब कुछ धनराशि कहीं किसी स्रोत से प्राप्त होती भी है तो इसे लूट के शिकार भ्रष्ट सरकारी अधिकारी वर्ग तथा घृणित कांग्रेसी नेताओं द्वारा डकार लिया जाता है...........,

thank u ashok pandey ji.aapka yah lekh bahut acchaa lagaa.

अजेय said...

jari rakhen , please !

Sanjeet Tripathi said...

padh raha hu.
aaj bhi maharaj praveerchand ke pariwar ko utna hi puja jata hai. jagadlapur me shahi mahal ab bhi hai... dash-hare ke samay police pahle shahi pariwar ko salaam karti hai....

Anil Pusadkar said...

पाण्डे जी दो बातें हुई है,बस्तर को लेकर.सारा देश ये जानता है कि छत्तीसगढ मे बस्तर धूर जंगली और आदिम जाति वालों का इलाका है लेकिन ठीक उतना ही बडा और वैसा ही इलाका और है यंहा जिसे सरगुजा कहते हैं.यंहा का आदिवासी चाहे जिस वजह से हो धर्मांतरण करता चला गया और आज सारे प्रदेश मे वंहा के लोग प्रशासन मे अ़चछी जगह पर हैं.उसे कोई आदिवासी इलाका नही कहता जबकि वो छत्तीसगढ का उत्तरी और बस्तर दक्शिणी इलाका है.बस्तर मे धर्मांतरण नही हुआ साथ ही विकास भी नही हुआ.इसके लिये भी दो विचारधाराओं का द्वंद ज़िम्मेदार है.एक के अनुसार आदिवासियों को उनके मूल स्वरुप मे रखा जाना चाहिये और उनके इलाके से छॆडछाड नही की जानी चाहिये.दूसरा तबका उन्हे जंगल का माडल बनाये रखने का विरोधी रहा और उसने वंहा विकास की पैरवी की.बस्तर के ही एक इलाके अबूझमाड मे तो बिना अनुमति प्रवेश पर भी रोक थी जिसे सालो बाद अब हटाया गया है.ये बात सच है कि आदिवासियों की परंपराओं को बचाये रखने या उन्हे विकास की दौड मे शामिल करने की रस्साकशी मे आदिवासी फ़ंस कर रह गया.और जब विकास का दौर शुरू हुआ तब तेंदूपत्ते के सरकारीकरण ने वंहा ठेकेदारों की लडाई को जन्म दिया और उन्हे संरक्शण देने के नाम पर पडोस के राज्य से भटके हुये युवाओं ने कदम रखा और उसके साथ ही नक्सलवाद ने भी.अब सवाल ये उठता है की विकास जब शुरू हुआ तो फ़िर हुआ क्यों नही?इसके लिये ज़िम्मेदार सरकार तो है ही,वंहा के जनप्रतिनिधी भी है तो साथ मे नक्सली भी हैं?आप को ये जानकर आश्चर्य होगा पाण्डे जी इतने सालों मे नक्सलियों को बस्तर के शोषण के लिये सिर्फ़ पुलिस ही ज़िम्मेदार नज़र आई.जंगल मे सबसे ज्यादा शोषण तो जंगल विभाग वाले करते आये हैं मगर मजाल है कि उन्हे कभी पुलिस ने तंग किया हो.राज्स्व और लोक निर्माण के भी लोगों को कुछ नही हुआ.आज भी सडक बनाने का विरोध नक्सली ठेकेदारॊं की गाडियां और सरकारी गाडियां जलाकर ही करते हैं क्यों?क्यॊ वे उन अफ़सरों को छोड देते है?मारते क्यों नही?बहुत सी बाते हैं जिसने मिलकर नक्सल के फ़ोडॆ को नासूर बनाया.अब जब वंहा बिजली है तो नक्सली टावर गिरा कर ब्लैक आऊट कर देते हैं.ये कौन सा विकास का रास्ता है और क्या ये वंहा के लोगों का शोषण नही है?सडक क्यों नही बनने देते नक्सली?
जाने दिजीये,वैसे ये बात बिल्कुल सही है आजादी के साठ सालों मे बस्तर के लोगों को बडी मुश्किल से प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र,मिडिल स्कूल या हाईस्कूल और कंही-कंही कालेज मिले.जगदपुर मे तो खैर अब मेडिकल कालेज,यूनिवर्सिटी भी बन गई है,लेकिन गांवो मे बने स्कूल,अस्पताल सब नक्सलियों ने उडा दिये हैं.यानी फ़िर वंही के वंही.

कामता प्रसाद said...

बुनियादी विचारधारात्‍मक महत्‍व के प्रश्‍न पर अनुभववादी विमर्श। मुक्‍त इलेक्‍ट्रॉन की तरह से बिना किसी धुरी के यूं ही विचरण करते रहते हैं पांडेय जी। आलेख में उठाये प्रश्‍नों पर विचार करने से पहले जरूरी है कि प्रस्‍थान बिंदु को तय कर लिया। क्‍या ये सारी समस्‍याएं मौजूदा राजनीतिक सांचे-खांचे के भीतर हल की जा सकती हैं या फिर इस ढांचे को ध्‍वस्‍त करके।
इसके बाद फिर असल सवाल पर आने और बहस-मुबाहसे की शुरुआत होगी।
पांडेय जी के पास शानदार भाषा है और उन्‍होंने इसके लिए काफी कुछ किया भी है और एक स्‍वागत योग्‍य बात यह भी है कि अपनी रचनाओं में वे सांगीतिक भाषा को लाने के रूपवादी आग्रह से मुक्‍त दिखते हैं जैसा कि खासकर गीत चतुर्वेदी के मामले में मैंने देखा है। देश-दुनिया की खासी जानकारी रखने के बाद मनुष्‍यों से प्रेम के मामले में अनिल यादव बेजोड़ दिखते हैं और यह बात उनके एक-एक शब्‍द में दिखती है। मानव समाज का हिस्‍सा बनकर और उसके साथ रहकर उसकी अनुकंपा और साथ को महसूस करते हुए जब जिया जाता है तो रचना में दूसरा ताप होता है।
समकालीन रचना संसार के किसी और रचनाजीवी का नाम बतायें जिसे पढ़ा जा सके और जहां पर जन के साथ होने के ताप को महसूस किया जा सके।

Pratibha Katiyar said...

behad zaroori.

मुनीश ( munish ) said...

मैं तो राजशाही को कई मायनों में पसंद करता हूँ और अगर राजस्थान के राजे होटेलियर, कोनेसीयर या ड्रेस-डिजाईनर न बन कर युद्ध करते तो मैं निस्संदेह उनके समर्थन में उतर चुका होता ! राजशाही लोकतंत्र से क्यों बेहतर है इसके लिए जार्ज बर्नार्ड शा का 'एप्पल कार्ट' नामक ड्रामा पढ़ें. . ....अ.. मुझे लगता है पिछले जन्म में मैं खुद कोई राजा था !

36solutions said...

महाराज प्रवीर चंद्र भंजदेव की लेखनी को यहां प्रस्‍तुत करने के लिए धन्‍यवाद.
बस्‍तर का अतीत भी जानें ब्‍लागर साथी.

डॉ महेश सिन्हा said...

@ डॉ अनुराग
अंततोगत्वा आपकी बात सही है कि अंततः व्यक्ति स्वयं अपनी अवस्था के लिए जिम्मेदार है लेकिन सुदूर जंगलो मे रहने वाला जिसे दुनियावी भ्रम नहीं आता उसकी सुरक्षा का जिम्मेदार कौन है.
इस सारी अवस्था के जिम्मेदार कौन हैं इसे जानने के लिए यहाँ पढ़िए

Comandante Che Gurunay aka Poet Balwant Gurunay aka Guru Gurunay aka Baba Mastam Darustam. said...

Ashok bhai,
Very nice writing. True, courageous and clear. Enjoyed reading it.

अजित वडनेरकर said...

प्रवीरचंद भंजदेव का आत्मकथ्य महत्वपूर्ण है। इस पुस्तक के बारे में कई साल पहले सुना था। आभार।
अनिल पुसदकर जी की बात भी महत्वपूर्ण है।

Awasthi Sachin said...

क्या यह पुस्तक कही प्राप्त हो सकती है ?