Saturday, April 3, 2010

बर्फ पर पड़ा दर्द.........

श्रवण गुप्ता

करतार सिंह की जान हलक में अटकी है......जब वह सांस छोड़ता तो रुक – रुक कर बाहर आती....मानो किसी ने पकड़ रखी हो......सांस लेने में भी वैसा ही भारीपन.....,सांस अपने - आप ना अंदर जाती और ना बाहर आती.....और सिर्फ सांस ही क्यों.....लगता पूरे शरीर पर किसी और का कब्जा हो गया है....।

आंखें खुली रहतीं पर क्या देख रही हैं पता नहीं चलता..। पैर रखता कहीं, पड़ते कहीं । घड़ी भर को अगर आंख लग भी गयी तो लगता गांव के श्मशान वाला भूत गला दबा रहा है....सोते – जागते उसकी आत्मा छटपटाती रहती।

करतार सिंह का मन उसके काबू में नहीं है....काबू तो दूर...वह तो जैसे शरीर से ही अलग हो गया है...करतार सिंह अब सिर्फ एक शरीर है। लाचार और बेबस। करतार सिंह सोचता है- आदमी जब पागल हो जाता होगा तो ऐसे ही मन और शरीर अलग हो जाते होंगे।

करतार सिंह सोचता है- पहले मन को बस में करना पड़ेगा। अगर मन पकड़ में आ गया तो उसकी पीड़ा कम हो जाएगी । यही सोचकर वह मन को घेरने की कोशिश करता। उसे एक बच्चे की तरह अपने पास बिठाता। फुसलाता और समझाता... फिर उसके आगे अपनी विपदा रोता .....। उसे बताता कि कैसे कोई अजदहा अंदर ही अंदर उसे खाए जा रहा है। वह उससे यह भी पूछता कि क्यों एक ही बात पकड़कर वह गोल - गोल घूमे जा रहा है...वह चाहता था कि बातों में फंसाकर, मन के रुख को दूसरी तरफ मोड़ दिया जाए.........लेकिन करतार सिंह की सारी योजना धरी की धरी रह जाती । मन को पकड़ने और उसे काबू में करने की कोशिश में सुबह से शाम हो जाती लेकिन वह उसके हाथ नहीं आता। रहट में लगे बैल की तरह बस गोल – गोल घूमता जाता.. घूमता जाता।

करतार सिंह की तकलीफ वैसी की वैसी बनी रहती। उसे नहीं लगता कोई वैद्य, डॉक्टर या हकीम उसे इस तकलीफ से निजात दिला पाएगा। करतार सिंह की दिक्कत यह भी थी कि वह किसी को कुछ बता नहीं सकता था। क्या करे करतार सिंह.. कहां जाए......किसे दिखाए अपना घाव...?

पहले ऐसा नहीं था। करतार सिंह जब सुबह उठता तो मन में एक पुलक - सी रहती..
सुबह की तेज पत्ती वाली चाय। मिट्टी के चूल्हे के पास उकड़ूं बैठ कर, गड़वी
से ढालकर पीतल के गिलास से चाय पीती घर वाली, स्कूल के लिए तैयार होता बेटा...और सुबह होते ही मेरा पुत्तर - मेरा पुत्तर कह कर करतार सिंह से लाड़ जताती उसकी बूढ़ी मां, सब उसमें हौसला जगाते। चाहे कैसे भी दिन हों, मन में एक हिम्मत बनी रहती...एक उमंग होती जो इस उम्र में भी उसे बैल की तरह खटाए रखती थी।

कितने काम होते थे करतार सिंह को.....सुबह उठते ही पहले अपने खेत की ओर जाता, फिर उधर ही दिशा – मैदान। गर्मी होती तो थोड़ी दंड - बैठक और जाड़े के दिनों में तेल - मालिश और रहट वाले कुंए पर स्नान। इसके बाद ही घर लौटता करतार सिंह। कुछ खाकर, फिर खेत ही पहुंचता। बीस बीघा खेत था उसके पास। नहर किनारे।

करतार सिंह की खेतों में जान बसती। कोई क्या जाने, खेत में अपनी फसल लहलहाती देख उसका मन कैसा - कैसा करने लगता। कभी रिश्तेदारी या शादी - ब्याह में गांव से एक - दो दिन के लिए बाहर जाता तो वहां उसका मन नहीं लगता। लौटकर सबसे पहले अपने खेतों का ही रुख करता करतार सिंह। शहर भी जाता तो रास्ते से अपनी फसलों को निहारता रहता जैसे जाने की हिम्मत जुटा रहा हो।

साल में ज्यादातर दिन करतार सिंह के खेत में ही कटते। हाड़ी हो या सोअनी, करतार सिंह को सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिलती। फसल जब पकने को होती, तो सबकी बात अनसुनी कर करतार सिंह खेत में बनी अपनी झोपड़ी में ही सोता। नींद में भी वह अपने खेत - खलिहान ही देखता....कभी मेड़ पर खड़ा, कभी नहर से खेत तक पानी की नाले से घास निकालता, कभी फसलों के बीच घूमता तो कभी बैलगाड़ी से मंडी अनाज ले जाता....।

वही करतार अब अपने - आपसे लड़ रहा है, खेत-खलिहान, घर - द्वार सब जैसे उसके लिए खत्म हो गये हैं। अभी महीना भर पहले तक सब ठीक था। करतार सिंह अपनी गृहस्थी में मस्त था। ये ठीक है कि बीस बीघे में रोज कमाओ, रोज खाओ वाली हालत रहती लेकिन उसके दिन आराम से कट रहे थे। इतना तो हो ही जाता कि परिवार को पालने और उन्हें खुश रखने में किसी चीज की कमी नहीं खटकती। अपने पिंड में खुश था करतार सिंह। पुरखों का प्रताप था, वाहे गुरु की मेहर थी उस पर। शादी के बाद बेटा हो गया था और फिर दो जुड़वा बेटियां..।

बेटा स्कूल जाने लगा था और बेटियां मां के साथ लगकर बड़ी हो रही थीं। गांव में बहुत कम ही लोग बेटियों को स्कूल भेजते। करतार सिंह की बेटियां भी स्कूल नहीं जाती.. घर में गुड्डा- गुड़िया खेलती रहतीं।

बेटियों से उसे कोई शिकायत नहीं थी लेकिन उसके मन के किसी कोने में एक और बेटे की आस बैठी थी सांप की तरह फन उठाए। उसे लगता जैसे बैलगाड़ी में दो बैल लगते हैं वैसे ही जीवन की गाड़ी खींचने के लिए कम से कम दो बेटे होने चाहिए। ज्यादा हो तो क्या कहने। करतार सिंह को मालूम था एक जाट सिक्ख परिवार में एक से ज्यादा बेटे होने का क्या मतलब है।

करतार सिंह को याद है कुछ साल पहले नहर से पानी निकालने को लेकर कुछ लोगों से उसका झगड़ा हो गया था। लाठियां निकल गयी थीं गांव में और खून के घूंट पीकर उसे पंचायत की शरण में जाना पड़ा था लेकिन अगर उसके दो बेटे आजू - बाजू खड़े रहते तो फैसला वहीं के वहीं हो जाता.....।

शायद करतार सिंह की किस्मत मे तकलीफ भोगना लिखा था इसलिए एक और बेटे की हसरत ने जोर मारा और उसकी घरवाली के पैर फिर भारी हो गये। करतार सिंह बेटों का ख्वाब देखने लगा..

जैसे - जैसे करतार सिंह की घरवाली के दिन चढ़ते गये करतार सिंह बेचैन रहने लगा। उसे लगता उसने कोई परीक्षा दी है जिसका परिणाम आने वाला है। आखिर वह दिन भी आ ही गया । फागुन की एक रात का पहला पहर बीतते ही उसकी बीवी को दर्द शुरू हो गया और रात के तीसरे पहर के बीतते ना बीतते बीवी की देह खाली हो गयी। एक नवजात शिशु की आवाज पूरे घर में गूंज गई....... करतार सिंह पर मानो पहाड़ टूट पड़ा....उसका डर सचाई की शक्ल अख्तियार कर उसके सामने खड़ा हो गया...उसके मुंह से कोई आवाज नहीं निकली.......वह उसी अंधेरे में घर से निकल पड़ा.....पैर अपने आप खेतों की ओर बढ़ गए.... वह जाकर अपनी झोपड़ी में बैठ गया...जैसे जड़ हो गया हो।

सुबह हो गयी थी लेकिन करतार सिंह के जीवन में अंधेरा छा गया था। वर्षों की उसकी आस एक झटके में टूट गई ..बड़ा कमजोर, असहाय महसूस कर रहा था करतार सिंह। उसे खुद पर भी गुस्सा आ रहा था। क्यों उसने ऐसी उम्मीद पाल ली जिसे पूरा करना उसके हाथ में नहीं था? क्यों सपने देखने लगा था बेटे का ?

रात के तीसरे पहर अपनी झोपड़ी में आया करतार सिंह दिन भर वहीं बैठा रहा। पहले उसके अंदर दुख और निराशा के ज्वार उठे और फिर क्रोध और प्रतिशोध के बगूले। उसे बार – बार लग रहा था कि उसे किसी ने धोखा दिया है। आखिर करतार सिंह ने फैसला कर लिया और अपनी झोपड़ी से निकल आया। करतार सिंह अपने घर जा रहा था। दूर से देखकर लग रहा था जैसे कोई अफीमची शाम ढले अपने घर लौट रहा है........

अंधेरा घिर आया था। घरों में दिया - बत्ती जलाने का समय हो रहा था। दाई काम निपटा कर जा चुकी थी। नाते - रिश्तेदार की औरतें उसकी बीवी की तीमारदारी में लगी हुई थीं। जैसे ही मौका मिला करतार सिंह अपनी बीवी के कमरे में चला गया।

अंदर बीवी निढ़ाल पड़ी थी। चेहरा स्याह था जैसे बीमार हो। उसने करतार सिंह को कोठरी में आते देख लिया था लेकिन जब तक वह उठने की कोशिश करती करतार सिंह दूसरी तरफ से उसके सिरहाने पहुंच चुका था।

वह समझ गयी कि वह बच्ची को देखना नहीं चाहता। उसके दिल में एक हूक - सी उठी। वह करतार सिंह की तरफ घूम गई। अब उसकी पीठ बच्ची की तरफ थी।

करतार सिंह तख्त पर बैठ गया और फुसफुसाते हुए बीवी से कुछ कहा। बीवी की समझ में कुछ नहीं आया। करतार सिंह ने अब अपनी आवाज थोड़ी तेज की और कहा, ‘ देख संतो.. मैं इसे रखना नहीं चाहता, यह मुझे नहीं चाहिए। इसे जाने दे वापस, रब के पास। ऐसा कर, तू इसे अपना दूध मत पिला। यह खुद चली जाएगी ।’

करतार सिंह अपनी बात कह चुका था....उसकी बीवी को लगा जैसे किसी ने उसके सिर पर लुहार का हथौड़ा चला दिया है। करतार सिंह के सिर पर जैसे शैतान सवार था। उसने फिर कहा., ‘देख.. संतो.. हमें थोड़े दिन रोना पड़ेगा, रो लेंगे लेकिन इसे तू वापस भेज दे। जाने दे इसे...’ बीवी पथरायी आंखों से पति को देखने लगी। करतार सिंह को लगा कहीं वह मना ना कर दे।. उसने उसे कंधे से पकड़ कर कहा, ....‘ देख.. तुझे मेरी कसम है...अगर तूने मेरा कहा ना माना तो मैं तुझे छोड़ दूंगा...,’ ..इतना कहकर करतार सिंह एक झटके में कमरे से निकल गया और वापस अपने खेत चला गया वैसे ही लड़खड़ाता हुआ जैसे कोई अफीमची लड़खड़ाता है।

उसकी बीवी को जैसे लकवा मार गया.....उसके कानों में गांव की उन औरतों की सिसकियां गूंजने लगीं जिनकी बेटियों को जनमते ही मार दिया गया था.....वाहे गुरु ..कैसी परीक्षा ले रहा है मेरी.....

गांव में रात आज ऐसे उतरी थी जैसे सब कुछ खत्म करके जाएगी। संतो के कमरे में भी रात का वही घना अंधेरा पसरा था। करतार सिंह के जाने के बाद संतो ने बच्ची को एक बार भी अपना दूध नहीं पिलाया। रात भर उसकी छातियों से दूध रिसता रहा ..संतो ने अपनी बच्ची की मां का गला घोंट दिया और जो औरत बच्ची के साथ लेटी थी वह करतार सिंह की बीवी थी। भूख – प्यास से बच्ची पूरी रात अजीब - अजीब आवाजें निकालती रही लेकिन संतो मुंह फेर कर रोती रही जैसे पत्थर की हो गयी हो। दूसरा दिन भी बीत गया। संतो को लग रहा था जैसे वह पहाड़ के नीचे दबी है और उसकी जान नहीं निकल रही है।


तीसरे दिन संतों की मासूम बच्ची, भूख - प्यास और बीमारी से जूझकर मर गयी.....
संतो बेहोश हो गयी...और करतार सिंह उस बच्ची को हाथों में उठा..गांव वालों को साथ ले दूर बियाबान में जमीन में गढ्डा खोद उसे सुला आया...

रास्ते भर लोग उससे पूछते रहे.., ‘कैसे मर गयी बेटी?’ जवाब में वो कुछ नहीं कह पाया., धीरे – धीरे यही सवाल करतार सिंह खुद से भी करने लगा.... ‘क्यों मार डाला उसने अपनी बेटी ? करतार सिंह ही तो लाया था उसे इस दुनिया में...अपने घर में... और उसी करतार सिंह ने उसे ऐसी मौत दी। करतार सिंह की तकलीफ कम होने का नाम नहीं ले रही थी..।

करतार सिंह को अपनी झोपड़ी में लगभग एक महीना बीत गया था। उसकी हालत अच्छी नहीं थी। किसी पुराने अफीमची की तरह वह अपनी झोपड़ी में पड़ा रहता। घर वाले आकर किसी तरह कुछ खिला जाते।

एक दिन उसके पड़ोस में रहने वाले पंडित के दस साल के लड़के सतनाम ने झोपड़ी के बाहर से आवाज लगाई- ‘ ताऊ.! कहां हो ? ..खाना ले लो ताई ने भेजा है..’
करतार सिंह का बेटा ओमी और सतनाम दोनों दोस्त थे और सतनाम को करतार सिंह अपने बच्चे की तरह मानता था।

सतनाम की आवाज सुनकर जैसे वह नीम बेहोशी से जागा। बोला, ‘कौन..? दादा.?’...तब तक सतनाम झोपड़ी के अंदर आ गया था। उसने फिर कहा ‘..ताऊ खाना ले लो.....।’

करतार सिंह छटपटा रहा था। छूटते ही पूछा,’ दादा, तुम्हे मालूम है तुम्हारी ताई को बेटी हुई थी...? ’ सतनाम बोला, ‘..हां ताऊ, पता है लेकिन वो तो मर गयी..! ’
करतार सिंह भरभरा कर बोला, ‘नहीं बेटा, वह मरी नहीं...मैंने उसे मार दिया...’
बच्चे ने हिम्मत कर टोका, ‘तुमने उसे क्यों मारा ताऊ?

करतार सिंह बोला, ‘दादा, मुझे नहीं मालूम..मैंने उसे क्यों मारा..लेकिन आप बताओ, मैंने ठीक किया कि गलत...?’

करतार सिंह चीख रहा था लेकिन उसकी आवाज कहीं फंस गयी थी...लग रहा था उसके अंदर से उसकी आवाज नहीं....गहरा पिघला शीशा निकल रहा है...सतनाम डर गया....बिना बताए, चुपचाप वहां से चला आया ।

(साभार- नई दुनिया), संपर्क का पता- shrawan2000@rediffmail.com

3 comments:

rishi upadhyay said...

maafi chahungaa ashok bhai...par, kahaniyan chhaapne ke pahle please ek baar padh len...(yaa shayad ye anjaane me huaa hai)kabadkhanaa se ummeeden bahot oonchi ho chuki hain...

Unknown said...

lekh achha hai

मुनीश ( munish ) said...

बतौर शेयर -होल्डर कबाड़खाना अन -लिमिटेड मैं कहानी की छपाई पे धन्यवाद अता करता हूँ . उम्मीद करता हूँ कि इस विधा को आगे भी प्रोत्साहन मिलेगा .