कबाड़ख़ाने के महत्वपूर्ण सदस्य रवीन्द्र व्यास काफ़ी लम्बे समय से ब्लॉग जगत से नदारद हैं. वे जिन भी कारणों से लिख नहीं पा रहे हैं, उम्मीद करता हूं बहुत गम्भीर नहीं होंगे. उनके शानदार चित्रों और सहृदय लेखन की बानगी आप उनके ब्लॉग हरा कोना पर यहां कबाड़ख़ाने पर कई दफ़ा देख चुके हैं. आज मैं उन्हीं के ब्लॉग से उनकी लिखी एक मार्मिक और संवेदनशील पोस्ट यहां लगाने का साहस कर रहा हूं (वैसे रवीन्द्र भाई इसकी इजाज़त दे चुके हैं).
उड़ते हुए रूई के फाहे
हमारा घर बहुत छोटा था। सदस्य ज्यादा थे। घर के लोगों के हाथ-पैरों पर खरोंचों के निशान थे। हम जब भी घर में आते-जाते तो हमें घर में रखी टूटी आलमारी, कुर्सी, या डिब्बों से खरोंचे लगती थीं। मां ने डिब्बे-डाबड़ी बहुत इकट्ठे कर रखे थे। मुझे पता है, जब एक बार पिताजी खाना खाने बैठे, तो पीछे रखे आटे के टूटे डिब्बे के ढक्कन से उन्हें एक लंबी खरोंच आई थी। उनकी बांईं जांघ पर खून की एक लकीर उभर आई थी।
घर में मां ने डिब्बे एक के ऊपर एक रखे हुए थे। वह कम जगह में ज्यादा से ज्यादा डिब्बे जमा कर रखती थी। उसका मानना था कि गृहस्थी आसानी से नहीं जमाई जा सकती!
कभी-कभी ऐसा होता कि कि मां यदि हल्दी का डिब्बा निकालना चाहती तो पटली पर रखा मिर्ची का डिब्बा गिर जाता। पूरे घर में मिर्ची की धांस उड़ती। ऐसे में पिताजी बड़बड़ाते। पिता को बड़बड़ाता देख मां उन्हें धीरे से देखती। हम भाई-बहन यह देख हंसते। हमें हंसता देखा मां और पिताजी भी धीरे-धीरे हंसते। उन्हें देख हम खूब हंसते। फिर मां-पिताजी भी खूब हंसते। घर में जब कभी कोई दिक्कत आती या दुःख छाने लगता तो मां-पिताजी हंसते। वे नहीं चाहते थे कि छोटे-छोटे दुःखों को हम तक आने दें। यही कारण था कि जब वे हंसते तो हमारे घर पर छाए दुःख रूई के फाहों में बदलकर उड़ने लगते। कभी-कभी मुझे लगता हमारे घर की दीवारों और छतों पर रूई के फाहे चिपके हुए हैं। लेकिन वे हमें दिखाई नहीं देते। हमें आश्चर्य तब होता जब दीवाली-दशहरे के पहले घर में सफाई होती और कहीं भी रूई के फाहे नहीं निकलते।
रात में सोते हुए हमें मां-पिताजी की बुदबुदाहट सुनाई देती। उनमें हमारी फीस, कपड़े, कॉपी-किताबों की चिंता होती। दादी की बीमारी और काकाओं के झगड़ों की बातें होती। मां-पिताजी की आवाज बहुत धीमी होती, इतनी कि दीवारें भी न सुन सकें। मां-पिताजी की ये बातें हमें रात में की गई किसी प्रार्थना के शब्दों जैसी लगती जिन्हें घर की उखड़ती और बदरंग होती दीवारें अपने में सोख लेतीं।
बारिश का मौसम हमारे और हमारे घर के लिए यातनादायक होता था। (यह बात मुझे बहुत बाद में बड़ा होने पर पता लगी ) बारिश में हमारी छत टपकती। घर गीला न हो इसलिए मां जहां पानी टपकता, बर्तन रख देती। कहीं तपेली, कहीं बाल्टी, कहीं गिलास। घर में तब बर्तन भी ज्यादा नहीं थे। कई बार में नमक का डिब्बा खाली कर उसे कागज की पुड़िया में बांध देती और डिब्बा टपकती बूंदों के नीचे। तेज बारिश में हम भाई-बहनों की नींद खुल जाती और हमें मां-पिताजी के प्रार्थना के शब्द सुनाई पड़ते। मां-पिताजी अगली बार छत पर नए कवेलू लगवाने की बात करते। तेज बारिश में उनकी बातों से अजीब वातावरण बन जाता। बाहर पानी की बूंदें टपकती और घर में मां-पिताजी का दुःख। इसी के साथ हम भाई -बहन घर की दीवारों के पोपड़े गिरते सुनते।
दीवार में जहां -जहां से पोपड़े गिरते, सुबह उनमें मां और पिताजी का दुःख काला-भूरा दिखाई देता। मां गोबर और पीली मिट्टी से उन्हें भर देती। घर की दीवार पर ऐसा जगह-जगह था।
ज्यादा बारिश होने से घर की दीवारों में सीलन आ जाती। छत चूने से पटली पर रखी हमारी कॉपी-किताबें गीली होने लगतीं। फिर हमारे कपड़े गीले होते और फिर हमारे बिस्तर। घर कितना गीला हो गया है, यह देखने के लिए जब हम लाइट चालू करने उठते तो हमारे पैर किसी के हाथ, पैर या मुंह पर पड़ते। लाइट जलाने के बाद मां बिस्तर ओटकर हमें सुलाती। सुबह हम भाई -बहन रात वाली बात याद कर खूब हंसते। हम रूई के फाहे उड़ते हुए देखते।
लेकिन कभी-कभी मुझे लगता कि मां और पिताजी हंस नहीं रो रहे हैं, हालांकि वे हमें हंसते हुए ही दिखते।
ठंड के दिनों में खूब मजा आता! हम भाई-बहन बीच में सोने के लिए झगड़तेएक ही रजाई में हम सब सोते। बीच में सोने का फायदा था। रजाई छोटी थी इसलिए जो अगल-बगल में सोते वे रजाई की खींचातानी करते।बीच वाला मजे में रहता। इस तरह हम ठंड से लड़ते।
मुझे सपने नहीं आते। लेकिन एक दिन मुझे सपना आया। मैंने देखा कि पिताजी बर्फ के पहाड़ पर धीरे-धीरे चढ़ रहे हैं। पहले तो मैं उन्हें पहचाना ही नहीं। उनका बदन रूई के फाहों से ढंका हुआ था। ये वही रूई के फाहे थे जो हमारे घर पर छा जाते थे। ये ही दुःख मां-पिताजी के हंसने पर रूई के फाहों में बदल जाते थे। तो मैंने देखा कि पिताजी धीरे-धीरे पहाड़ पर चढ़ रहे थे। उनका बदन रुई के फाहों से ढंका है। मैंने उनकी आंखों से पहचाना कि ये तो पिताजी हैं।
धीरे-धीरे वे चढ़ रहे थे। उन्हें बहुत ऊंचाई पर जाना था। बिलकुल शिखर पर , जहां कोमल हरी पत्तियों का पेड़ था। बहुत घना और खूबसूरत पेड़ था वह, जिस पर हमारे तमाम सुख लाल सुर्ख सेबों की तरह उगे हुए थे। वे ही सेब पिता को तोड़कर लाने थे। -हमारे लिए, हमारे घर के लिए...और वे चढ़ रहे थे!
लेकिन मैंने देखा कि वे जितना ऊपर चढ़ने की कोशिश करते, उनके पैर उतने ही धंसते चले जाते। लेकिन पिताजी अपनी पूरी ऊर्जा, पूरी ताकत से धंसते पैरों को निकालकर चढ़ने की कोशिश करते।
अचानक मैंने देखा कि बर्फ का पहाड़ धीरे-धीरे रूई के फाहों के पहाड़ में बदल रहा है। और पिताजी धीरे-धीरे उसमें धंसते चले जा रहे हैं। मैंने देखा पिताजी कमर तक धंस गए हैं फिर गले तक! मैंने उनकी आंखों में चमक कम होती देखी, फिर वह चमक धीरे-धीरे बुझ गई। फिर आखिर में मैंने उनके हिलते और कांपते हुए हाथ देखे....
उसके बाद...उसके बाद घबराहट में मेरी नींद टूट गई। आंखें खोलने पर मैंने देखा कोई बाबाजी मेरे पास बैठे हैं। मैं चौकां। वे तो पिताजी थे और रजाई लपटे बैठे हुए थे। वे बुदबुदा रहे थे। रात के अंधेरे में मेरा ध्यान इस कदर पिताजी की तरफ था कि उनकी प्रार्थना के शब्द मुझे सुनाई नहीं दिए।
सुबह जब हम भाई-बहन उठे, तो मैंने उन्हें अपना सपना सुनाया। मां और पिताजी को बुलाकर भी सुनाया। और वह बात भी बताई कि पिताजी रात में रजाई लपटे कैसे बुदबुदा रहे थे। हम सब खूब हंसे। हमें हंसता देख मां और पिताजी भी खूब हंसे। खूब हंसे।
हमने देखा रुई के फाहे घर में उड़ रहे हैं! आंगन में उड़ रहे रूई के फाहे भी हमने देखे! छतों और दीवारों पर भी रूई के फाहे चिपकते हमने देखे! खूब! खूब! खूब रूई के फाहे हमने उड़ते हुए देखे!
बहुत बाद में जब हम भाई-बहन बड़े और समझदार हुए, हमें पता लगा कि वे रूई के फाहे नहीं, हमारे घर पर अक्सर छा जाने वाले दुःख थे!
4 comments:
sach likhaa hai bebaaki se.
APNI MAATI
MANIKNAAMAA
बहुत ही प्यारी पोस्ट। रविंद्र जी ने शब्दों से उड़ते फाहों की जो तस्वीर खींची है बहुत सुंदर है।
Green salute to HARA KONA n' its proud owner and creator .
घर टपकता है और घर में वो मेहमान हैं
पानी-पानी हो रही है आबरू बरसात में
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