Wednesday, May 5, 2010
हिमालय में प्लूटोनियम - सी आई ए का एक और अपराध -2
(पिछली किस्त से जारी)
दर असल सी आई ए के पस्त पड़ जाने का मुख्य कारण कुछ और थी - आर टी जी के भीतर धरे प्लूटोनियम की नैसर्गिक ऊष्मा के कारण आर टी जी सीधे सीधे बर्फ़ को गलाता हुआ किसी ग्लेशियर के बीचोबीच पहुंच चुका था.
इस पूरे किस्से के दो पहलू हैं. अच्छा तो यह होगा कि आर टी जी किसी चट्टान पर जा कर टिक गया हो. लेकिन इसका बुरा पहलू यह है कि बर्फ़ और चट्टान के किसी पिण्ड ने आर टी जी की कठोर परत को तोड़ दिया हो और प्लूटोनियम बहता हुआ गंगा में न पहुंच गया हो.
१९७८ में जब आउटसाइड पत्रिका में हावर्ड कोन नामक पत्रकार ने द नन्दा देवी केपर शीर्षक अपने लेख में इस बात का पर्दाफ़ाश किया तो जाकर भारत की सरकार चेती.
भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने देश को आश्वस्त किया कि सब कुछ ठीकठाक था और इसे लेकर मामला रफ़ादफ़ा करने वाले कुछ सरकारी दस्तावेज़ पेश किये. जब मैंने खुद इस मिशन से सम्बन्धित अमरीकी अधिकारियों से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि ताकेदा की किताब को साइन्स फ़िक्शन से अधिक कुछ नहीं माना जाना चाहिये. अमरीकी सरकार के किसी दफ़्तर में इस अभियान को अधिकृत रूप से रेकॉर्ड नहीं किया गया है.
जैसा कि भारत सरकार की रिपोर्ट ने संकेत किया था आर टी जी से यदि प्लूटोनियम निकला भी होगा तो आबादी वाले हिस्सों तक पहुंचने से पहले ही वह गंगा के किनारे रेत-कंकड़ में धंस गया होगा. और यदि वह मैदानी इलाके में प्रवेश कर भी गया होगा तो उसकी शक्ति नदी के अपार जल के कारण बेहद क्षीण हो गई होगी और उस के कारण किसी भी किस्म का स्वास्थ्य संकट नहीं हो सकता.
तो सिद्धान्ततः कोई बड़ी दिक्कत नहीं थी. लेकिन प्लूटोनियम को लेकर वास्तविकता में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता - खास तौर पर १९६० के दशक में आर टी जी में बतौर ईंधन इस्तेमाल किये जाने वाले प्लूटोनियम को लेकर. १९४१ में ग्लेन सीबोर्ग और उसकी टीम द्वारा बनाए गए प्लूटोनियम के बारे में कहा जाता है कि यह इस पृथ्वी को बिलॉन्ग नहीं करता और उसका व्यवहार ऐसा होता है जैसे उसे यहां रहना कतई नापसन्द है.
परमाणु विज्ञान के हिसाब से देखा जाए तो प्लूटोनियम अपने करीब बीस आइसोटोप्स के ऐसे उबलते लौंदे की तरह अस्तित्वमान रहता है जो लगातार टूटते और बनते रहते हैं और लगातार रेडियेशन छोड़ते रहते हैं.
भौतिकविज्ञान और रसायनविज्ञान की दृष्टि से भी यह तत्व बेहद खतरनाक माना जाता है - खासतौर पर मानव जीवन के लिए. इसका एक माइक्रोग्राम मनुष्य के लिये जानलेवा हो सकता है.
१९६० के दशक में अमरीकी सरकार द्वारा जारी किये गए दिशानिर्देशों के अनुसार किसी एक जगह पर अधिक से अधिक चार पाउन्ड प्लूटोनियम का भण्डारण किया जा सकता था. नन्दा देवी में इतना ही प्लूटोनियम रखा गया था.
अमरीका इतने से ही सन्तुष्ट नहीं हुआ. अगले ही साल एक और आर टी जी को नन्दा देवी के समीप २२,५०० फ़ीट ऊंची एक और चोटी नन्दा कोट पर सफलतापूर्वक इन्स्टॉल कर दिया गया. कुछ महीनों बाद उस से सिग्नल आना बन्द हो गए. बर्फ़ की वजह से मशीन ने काम करना बन्द कर दिया था. अच्छी बात यह थी कि आर टी जी को वापस लाया जा सकता था. अक्टूबर १९६७ में यह काम किया गया. इन तीनों अभियानों में काम करने वाले शेरपाओं को रेडियेशन से बचाने के कोई उपाय नहीं किये गए थे. फ़ौजियों और पर्वतारोहियों को भी जो एन्टी-रेडियेशन बैज दिए गए थे उनकी गुणवत्ता पर किसी तरह का यकीन नहीं किया जा सकता था.
हम शायद कभी नहीं जान पाएंगे कि असल में वहां हुआ क्या था.
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2 comments:
bahut khoob
kya khoob ! mast !
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