Monday, May 31, 2010

मनुष्यों के गिरने के कोई नियम नहीं होते

कल आपने नरेश सक्सेना जी की एक कविता पढ़ी थी. नरेश जी के यहां विज्ञान की मूल धारणाएं अद्भुत काव्य-आयाम ग्रहण कर लेती हैं और साधारण से साधारण लगने वाली चीज़ें और प्रक्रियाएं एकबारगी किसी नए अर्थ के साथ हमारे सामने उद्घाटित होती हैं. आज इसी क्रम में पढ़िये उनकी एक तनिक लम्बी लेकिन विचारोत्तेजक कविता.



गिरना

चीज़ों के गिरने के नियम होते हैं. मनुष्यों के गिरने के
कोई नियम नहीं होते.
लेकिन चीज़ें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं

बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफ़ाफ़े में बचे रहो, यानी
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो
अर्थों में गिरो

यही सोच कर गिरा भीतर
कि औसत क़द का मैं
साढ़े पाँच फ़ीट से ज्यादा क्या गिरूंगा
लेकिन कितनी ऊँचाई थी वह
कि गिरना मेरा ख़त्म ही नहीं हो रहा

चीज़ों के गिरने की असलियत का पर्दाफ़ाश हुआ
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,
जहाँ, पीसा की टेढ़ी मीनार की आख़री सीढ़ी
चढ़ता है गैलीलियो, और चिल्ला कर कहता है
इटली के लोगो,
अरस्तू का कथन है कि, भारी चीज़ें तेज़ी से गिरती हैं
और हल्की चीज़ें धीरे-धीरे
लेकिन अभी आप अरस्तू के इस सिद्धांत को
गिरता हुआ देखेंगे
गिरते हुए देखेंगे, लोहे के भारी गोलों
और चिड़ियों के हल्के पंखों, और काग़ज़ों और
कपड़ों की कतरनों को
एक साथ, एक गति से, एक दिशा में
गिरते हुए देखेंगे
लेकिन सावधान
हमें इन्हें हवा के हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा,
और फिर ऐसा उसने कर दिखाया

चार सौ बरस बाद
किसी को कुतुबमीनार से चिल्ला कर कहने की ज़रूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप
कि चीज़ों के गिरने के नियम
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए है

और लोग
हर कद और हर वज़न के लोग
खाये पिए और अघाए लोग
हम लोग और तुम लोग
एक साथ
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नज़र आ रहे हैं

इसीलिए कहता हूँ कि ग़ौर से देखो, अपने चारों तरफ़
चीज़ों का गिरना
और गिरो

गिरो जैसे गिरती है बर्फ़
ऊँची चोटियों पर
जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ

गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए
गिरो आँसू की एक बूंद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिये जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ वसंत नहीं आता'
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए

गिरो जलप्रपात की तरह
टरबाइन के पंखे घुमाते हुए
अंधेरे पर रोशनी की तरह गिरो

गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
इंद्रधनुष रचते हुए

लेकिन रुको
आज तक सिर्फ इंद्रधनुष ही रचे गए हैं
उसका कोई तीर नहीं रचा गया
तो गिरो, उससे छूटे तीर की तरह
बंजर ज़मीन को
वनस्पतियों और फूलों से रंगीन बनाते हुए
बारिश की तरह गिरो, सूखी धरती पर
पके हुए फल की तरह
धरती को अपने बीज सौंपते हुए
गिरो

गिर गए बाल
दाँत गिर गए
गिर गई नज़र और
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीख़ें, और शहर और चेहरे ...
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है ख़ून में मिकदार हीमोग्लोबीन की

खड़े क्या हो बिजूके से नरेश
इससे पहले कि गिर जाये समूचा वजूद
एकबारगी
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही वज़ह और वक़्त
और गिरो किसी दुश्मन पर

गाज की तरह गिरो
उल्कापात की तरह गिरो
वज्रपात की तरह गिरो
मैं कहता हूँ
गिरो

(चित्र: आधुनिक चीनी पेन्टर और शिल्पकार कियांग ली लियांग का कांस्य-शिल्प Falling)

7 comments:

दिलीप said...

waah girne par aisi kavita aapki soch ko salaam

माधव( Madhav) said...

सच कहा

पवन धीमान said...

इससे पहले कि गिर जाये समूचा वजूद एकबारगी
तय करो अपना गिरना ...awesome.

Ashok Kumar pandey said...

जिस समय यह कविता ताज़ा लिखी गयी थी मै लखनऊ गया हुआ था और नरेश जी के घर पर उनसे पूरी कविता सुनी थी…ग़ज़ब की स्मृति है उनकी…पूरी कविता याद थी…बाद में इसे तद्भव में पढ़ा और अब यहां…हर बार वही आनंद!!!

Pratibha Katiyar said...

यह शानदार कविता नरेश जी जब सुनाते हैं तो और भी अच्छी लगती है...

प्रीतीश बारहठ said...

अशोक जी से सहमत
नरेश जी से यह दोनों और अन्य कई कवितायें एक सम्मेलन में सुनी हैं। वे श्रोता को चित्रलिखा सा कर देते हैं।

krantikariroshan said...

es kavita me naresh ji ne vivek ko chod diya hai. her baar girate samay vivek vyakti ko girane se rokta hai, vyakti vivek ko nazarandaz karake girata hai. vivek ko naresh ji kavita me jagah dete to baat he kuch aur hoti.
-roshan premyogi
http://roshanpremyogi09.blogspot.com