जीवन का सबसे बड़ा सदमा
जब मैं छात्रावास में ही था, अगस्त १९३८ के पहले हफ़्ते में मुझे एक हरकारे द्वारा छः पन्ने का पत्र प्राप्त हुआ जिसमें बाबू द्वारा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सचिव का पद छोड़कर अपने गुरू की इच्छानुसार सन्यासी जीवन अपनाने की सूचना दी गई थी. ऐसा करने के उन्होंने कारण गिनाए थे और इसका सारा ज़िम्मा मौसी पर लगाया था. चिट्ठी में उन्होंने मुझे दिन में दो दफ़ा भगवान की पूजा करने की सलाह दी थी ताकि मुझे सद्बुद्धि प्राप्त हो. उन्होंने मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने पर ज़ोर दिया था और यह भी लिखा था कि मैं लखनऊ जाकर ओवरसीयर का कोर्स करूं. उन्होंने मुझे सूचित किया था कि उन्होंने मेरी छोटी सौतेली बहन (बड़ी मां से), जो मुझसे डेढ़ साल छोटी थी, के विवाह और मेरे सौतेले छोटे भाई (बड़ी मां से ही), जो मुझसे आठ साल छोटा था, की पढ़ाई के लिए आर्थिक बन्दोबस्त कर दिए हैं. इस पैसे का प्रबन्धन उनके चार मित्रों की देखरेख में किया जाना था. जाहिर है मेरे गालों पर आंसुओं की धाराएं बह रही होंगी. अपनी स्थिति को जानकर मैं हैरत कर रहा था कि किसी भी तरह के नैतिक सहारे के बगैर मैं इतनी बड़ी दुनिया का सामना अकेला कैसे कर सकूंगा. चिठ्ठी को बार बार पढते हुए मैं बुरी तरह रो रहा होऊंगा, मुझे अपनी मानसिक और शारीरिक हालत के बारे में इतना याद है कि मुझे अहसास हो रहा था जैसे किसी ने मेरे दिल में एक बर्छी चुभो दी हो. बाद में मेरे वार्डन और छात्रावास के साथियों ने मेरा ढाढ़स बंधाया होगा. मैं कुल तेरह साल का था. कक्षा आठ में पढ़ रहा था और इस लड़कपन में मेरे जीवन में ऐसा धुंधुआया समय आ चुका था.
मुझे बाद में पता लगा कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की मीटिंग में बाबू की शानदार सेवाओं को याद करते हुए उनके इस्तीफ़े को स्वीकार करते हुए यह भी तय पाया गया कि यदि वे अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करना चाहें तो उन्हें पुनः उसी पद पर नियुक्त करने में बोर्ड को कोई आपत्ति नहीं होगी. यह भी कहा गया कि मेरे हाईस्कूल पास करते ही पहली खाली जगह पर मुझे नौकरी मुहैया कराई जाएगी. एक तरह से काफ़ी छोटी उम्र में मैं अपनी नियति और अपने भविष्य का स्वामी बन गया था. सर्दी की अगली छुट्टियां मैंने हल्द्वानी में ठाकुर बच्ची सिंह के घर पर बिताईं. वे भी बाबू के गुरु-भाई थे और नैनीताल/हल्द्वानी के विशेष जंगलात दफ़्तर में स्टोर-क्लर्क का काम किया करते थे. द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले जीवनयापन खासा सस्ता था. मेरी कक्षा और छात्रावास का एक साथी उसी जंगलात कॉलोनी में रहा करता था. हम दोनों ने छुट्टियों में साइकिल चलाना सीखा.
फ़रवरी १९३९ में हमारा स्कूल खुला. छात्रावास के अन्य साथियों से साथ सिनेमा देखने जाने की मेरी हरकतें चालू रहीं.
छात्रावास से निष्कासन
मई १९३९ की एक दुर्भाग्यपूर्ण रात मैं अपने छात्रावास के एक साथी के साथ, जो उम्र में मुझसे बड़ा था पर स्कूल में जूनियर, "हीरो नं. 1" फ़िल्म देखने भाग निकले. छात्रावास के चौकीदार के माध्यम से हमारे वार्डन पं. पी. सी. उप्रेती को, जो कट्टर अनुशासन के हामी थे, इस बारे में पता चल गया. हमारा कमरा बाहर से बन्द था. लौटने पर ही हमें इस बारे में पता चला. अगली सुबह हमारे हैडमास्टर को इस बारे में बता दिया गया और बहुत अशालीन आचरण के आरोप लगाकर हमें छात्रावास से निष्कासित कर दिया गया. सो काफ़ी कम आयु में ही मैंने कुख्याति अर्जित कर ली थी.
हमारे सहपाठियों ने हमें फ़िल्म के नाम की तर्ज़ पर हीरो पुकारना शुरू कर दिया. एक बार फिर मैं नैनीताल में बच्ची सिंह चाचा के घर रहने लगा. गर्मियों में नैनीताल में ऑल इन्डिया ट्रेड्स कप हॉकी टूर्नामेन्ट का आयोजन किया जाता था. उत्तर भारत की सबसे प्रख्यात टीमें इसमें हिस्सा लिया करतीं. मुझे पहली बार उसे देखने में आनन्द आने लगा. बच्ची सिंह चाचा का दफ़्तर हल्द्वानी शिफ़्ट हो गया था सो मैंने बिड़ला विद्यामन्दिर के निकट ठाकुर जी. एस. बिष्ट के साथ रहना शुरू कर दिया, जो बाबू के एक और गुरु भाई थे. चूंकि वे उम्र में कहीं छोटे थे मैं उन्हें भाईसाहब और उनकी पत्नी को भाभी जी कहा करता था. उनके साथ में दिसम्बर १९३९ तक रहा. फ़रवरी १९४० में सर्दियों की छुट्टियां खत्म होने के बाद में वापस उनके साथ रहने चला गया और अक्टूबर १९४० तक उनके ही साथ रहा. चूंकि वह मेरे हाईस्कूल का साल था, मैंने नवम्बर, दिसम्बर और मार्च १९४१ में अपने पिता के एक मित्र ठाकुर बी.एस. भोज के रहने को तरजीह दी जो इम्पीरियल बैंक में एक मिनिस्टीरियल एक्ज़ीक्यूटिव थे. हमेशा की तरह सर्दियों की छुट्टियां हल्द्वानी में बच्ची सिंह चाचा के यहां बीतीं.
पैतृक गांव हड़बाड़ जाना
हाईस्कूल के हमारे इम्तहान २ अप्रैल १९४१ को खत्म हुए. अपने सोलहवें साल में मैंने अपने पैतृक गांव हड़बाड़ जाने का मन बना लिया था. मैं नैनीताल से गरुड़ के लिए रवाना हुआ जहां तक मोटर जाती थी. मैं ४ अप्रैल को शाम के कोई छः बजे वहां पहुंचा. बागेश्वर से आगे पिण्डारी ग्लेशियर को जाने वाला रास्ता पैदल पार किया जाना था. रात मैं गरुड़ में ठहरा. अगली सुबह मैं बागेश्वर से होता हुआ हड़बाड़ के लिए पैदल रवाना हुआ और दोपहर तीन बजे वहां पहुंच गया.
मैंने पहली बार तेईस किलोमीटर का रास्ता पैदल पार किया था. मुझे हड़बाड़ के भूगोल की वह झलक नज़र आई जो मेरी याददाश्त में धुंधली सी बची थी जब मैं पांच साल की उम्र में वहां गया था. मुझे ग्रामीण परिवेश की खुली हवा पसन्द आने लगी थी क्योंकि मुझे अपने स्कूल की पढ़ाई के बारे में नहीं सोचना था - किताबें, गणित के सवाल वगैरह.
मैंने अपने चाचा गजे सिंह के साथ गांव की बारह किलोमीटर की परिधि में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के साथ मिलने का कार्यक्रम बना लिया. जाने वाली जगहों की सूची बनाते हुए मेरी तीन बुआओं का ज़िक्र आया जिनमें से एक काण्डा में रहती थी और जिनके साथ मेरी मां ने करीब छः महीने बिताकर अपनी अन्तिम सांसें ली थीं. उसके बाद हम चाचा के ससुराल गए, वहां से बाबू के चचेरे भाई के गांव फल्यांठी जो बागेश्वर से तीन किलोमीटर दूर था. आखिर में हम बागेश्वर के नज़दीक मेरी चचेरी बहन के गांव खोली पहुंचे. ये सभी मुलाकातें सौहार्दपूर्ण रहीं - कुछ से मैं पहले मिला था कुछ से कभी नहीं. मेरे चाचा एक शौकीन शिकारी थे और मैं जब-तब उनके साथ जाया करता.
(जारी)
7 comments:
बड़ी जुझारु आत्मकथा है. पढ़ाते रहिए. धन्यवाद .
जैसे जैसे पढ़ते जा रहे हैं, रोचकता बढ़ती जा रही है।
thanks
dilchasp!!
हमारे प्यारे, दुलारे और अभिभावक वीरेन दा ( वीरेन डंगवाल जी) का सामान समारोह तारीख २३ जुलाई को बरेली कॉलेज सभागार में सुबह ११ बजे से होगा, आप सब सादर आमंत्रित हैं...
हृदयेंद्र
बरेली
interesting !
कुंवर साहब कि आत्मकथा पढ़कर मैं पुराने समय कि किस्तों में यात्रा कर रहा हूँ. इसके लिए धन्यवाद.
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