Saturday, July 24, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - ६

रामी मौसी की याद

बाबू के सन्यास लेने के बाद रामी मौसी के लिए उन्होंने कोई भी आर्थिक व्यवस्था नहीं की थी जैसा वे हमारे लिए कर गए थे. उनके पास दो दुधारू गाएं और घर के बरतन फ़र्नीचर आदि के अलावा कुछ नहीं बचा था. मुझे पता लगा कि उन्होंने इस सारी चीज़ों को कौड़ियों के भाव बेच दिया था. अपनी गुरबत और पारिवारिक जीवन के त्रास के लिए वे बाबा सदाफल को ज़िम्मेदार ठहराती थीं. जैसी कि शहर में चर्चा थी वे १९४० के साल बाबा सदाफल के मठ में चली गई थीं.

बाबा के मठ में बवाल

अब मैं ऊपर लिखी बात का ज़िक्र करूंगा. मठ में पहुंचने के बाद रामी मौसी ने पाया कि वहां बाबा सदाफल के खिलाफ़ काफ़ी रोष और असन्तोष व्याप्त था. इनमें सबसे बड़ा पर्दाफ़ाश बाबा की एक चेली के साथ हुआ सैक्स-काण्ड था जिसके साथ उनके सम्बन्ध रहे थे. अब बाबा ने चेली की पुत्री के कौमार्य पर हाथ डालने की कोशिश की थी. इसके अलावा भी कुछ गम्भीर आरोप थे. इस तरह दोनों महिलाओं ने मिलकर मठ के अन्य प्रभावित लोगों के साथ मिलकर मोर्चाबन्दी कर ली.

अन्ततः दोनों ने बलिया की अदालत में बाबा के खिलाफ़ मुकदमा दर्ज़ करा दिया. इस मुकदमे में रामी मौसी पहली अपीलकर्ता थीं. समय के साथ साथ बाबा पर अपराध साबित हुआ और उसे दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया. बाबा ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अर्ज़ी दी और उसे ज़मानत पर रिहा कर दिया गया. अजीब बात यह थी, बाबू ने मुझे बताया कि वह फ़र्ज़ी बाबा किसी तरह उच्च न्यायालय के जज को अपना चेला बना पाने में सफल हो गया. इस चेले जज ने तकनीकी कारण बताते हुए पूरे मामले को कुछ समय बाद इस कारण से रद्द कर दिया कि पहली अपीलकर्ता यानी रामी मौसी ने नैनीताल की निवासी होने कारण मुकदमा नैनीताल की अदालत में दायर करना चाहिए था न कि बलिया में. बाबा को छोड़ दिया गया. अदालत से छूट जाने के बावजूद बाबा का असली चेहरा लोगों के सामने आ गया.

बाबू की गढ़वाल यात्रा

अगस्त १९३८ में नैनीताल छोड़ने के बाद बाबू करीब सवा साल तक बाबा सदाफल के साथ छपरा, बलिया में रहे. उसके बाद उन्हें गढ़वाल के सुदूर कोने में एक आश्रम खोलने और अगले आदेश मिलने तक आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कार्य करने को कहा गया. बाबू ने बताया कि उन्हें पत्र के माध्यम से एक विश्वसनीय सूत्र ने बाबा के आश्रम में हो रहे बखेड़े की और बाबा के खिलाफ़ मुकदमे की सूचना प्राप्त हुई. जाहिर है उनके दिल को ठेस पहुंची और १९४० के अन्तिम दिनों में वे बलिया के लिए रवाना हुए ताकि स्थिति का जायज़ा ले सकें. वहां जाकर उन्हें मालूम पड़ा कि सारी बातें सच्ची थीं. बाबू ने सम्भवतः अपने आप को गालियां दी होंगी कि वे कैसे मूर्ख थे कि सन्त के चोगे में छिपे शैतान के बहलावे में आ गए. इस सब ने उनके परिवार को तहस नहस करने के साथ उनके बच्चों को बेसहारा छोड़ दिया था.

(जारी)

6 comments:

VICHAAR SHOONYA said...

धन्यवाद, धन्यावद, धन्यवाद, धन्यवाद...........

Asha Joglekar said...

काहे के संत , हिरन की खाल में भेडिये ।

काकेश said...

रोचक।

मुनीश ( munish ) said...

Dukhad ! Nearer the church farther from heaven .

प्रवीण पाण्डेय said...

ढोंगी बाबाओं की इस स्थिति से कितनी मानसिक अशान्ति फैलती है।

pallav said...

Kabaadkhana ka emailID aur aapka dak ka pata dijiye...Banaas ka naya ank bhejna hai.