Wednesday, July 28, 2010

एक छोटी सी जन्नत थी हमारी बरसाती

श्री असद ज़ैदी की एक बिल्कुल ताज़ा कविता प्रस्तुत है



कठिन प्रेम

इसकी भी कई मंज़िलें होती होंगी और अनेक अवकाश
पूछिए उस भली महिला से जिसने किया था
एक अदद कठिन प्रेम
देखिए उस मानुस के जाने के इतने बरस बाद वह कठिनाई
क्या अब भी जारी है और अब
कैसे हैं उसके उतार चढ़ाव


एक बात तो यही है कि मैं अब
पहले से ज़्यादा मुक्त हूँ - उस
झाँय झाँय को पीछे छोड़कर
पर खुशी के क्षण भी मुझे याद हैं
एक छोटी सी जन्नत थी हमारी बरसाती
जिसको कुछ समझ में न आता कहाँ जाए
तो हमारे यहाँ आ धमकता था

झगड़े भी बाद में होने लगे हमारे
ऐसा भी कुछ नहीं था ये जवानी की बातें हैं
वह मुझे धोखा देने चक्कर में रहता था
मैं उसे ज़हर देने की सोचती थी
फिर वह अचानक मर गया
धोखा दिए बिना ज़हर खाए बिना
मुझे लगा सब कुछ रुक गया है

फिर मैं जैसे तैसे करके ख़ुद को हरकत में लाई
अधूरी पड़ी पी एच डी खींचकर पूरी की और
यूनिवर्सिटी के हलक़ में हाथ डालकर
निकाली एक नौकरी उसी विभाग में जहाँ मैं
अस्थायी पद पर पढ़ा चुकी थी उसके चक्कर में आकर
सब कुछ छोड़ देने से पहले

उसके बारे में क्या बताऊँ बेसुरी उसकी आवाज़ थी
बेमेल कपड़े काली काली आँखें
रहस्यमय बातें ख़ालिस सोने का दिल
और ग़ुस्सा ऐसा कि ख़ुद ही को जलाकर रख दे
हम बड़ी ग़रीबी और खु़ददारी का जीवन जीते थे

दूसरों को हमारी जोड़ी
बेमेल दिखाई देती थी - थी भी
पर बात यह है कि वह मुझे समझता था
और मैं भी उसे ख़ूब जानती थी
सोचती हूँ ऐसी गहरी पहचान
बेमेल लोगों में ही होती है

समाजशास्त्र की मैं रही अध्यापक
यही कहूँगी हमारा प्रेम एक मध्यवर्गीय प्रेम ही था
प्रेम शब्द पर हम हँसते थे,
अमर प्रेम यह तो राजेश खन्ना की फ़िल्म होती थी
जैसे आज होते हैं 24x7 टीवी चैनल

उसको गए इतने बरस हो गए हैं
पर वह जवान ही याद रहता है
जबकि मैं बूढ़ी हो चली
और कभी कभी तो एक बदमिज़ाज छोटे भाई की तरह
वह ध्यान में आता है

कितना कुछ गुज़र गया
इस बीच छठा वेतन आयोग आ गया
साथ के सब लोग इतना बदल गए
न तो वह अब हमारी दुनिया रही न वैसे अब विचार
समझ में नहीं आता यह वास्तविक समाजवाद है या
वास्तविक पूंजीवाद

एक नई बर्बरता फैल गई है समाज में
रोटी नहीं मिलती तो खीर खाओ कहते लोगों को
कहूँ तो क्या कहूँ

अगर वह जीवित होता तो सोफ़े पर पड़े
आलू का जीवन तो न जीता
हो सकता है कहता हत्यारे हैं ये चिदंबरम
ये मनमोहन ये मोदी इन्हें रोका जाना चाहिए
हो सकता है मैं उसे ही छत्तीसगढ़ के वनों में
जाने से रोकती होती कहती होती और भी रास्ते हैं

लीजिए पीकर देखिए यह ग्रीन टी - हरी चाय
जिसे पिलाकर पैंतीस बरस हुए उसने मेरा दिल
जीतने की पहली कोशिश की थी
तब मैं हरी चाय के बारे में जानती न थी

9 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

गहरी

राजेश उत्‍साही said...

एक गहरा प्रेम किस किस तरह याद किया जा सकता है। असद जैदी जी बता गए।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बेहतरीन....

और इस पंक्ति ने तो रीड़ की हड्डियों को एकदम से सीधा कर दिया..

अगर वह जीवित होता तो सोफ़े पर पड़े
आलू का जीवन तो न जीता...!
..आभार.

varsha said...

bahut gahri aur apnisi kavita....

अपूर्व said...

हिला देने वाली कविता..प्रेम की उपस्थिति और अनुपस्थिति की सीमारेखा सामाजिक सरोकारों के कूचे से जाती है...पैरों मे बेड़ियाँ डालने वाला यही प्रेम मुक्त भी करता है....

पारुल "पुखराज" said...

फिर वह अचानक मर गया
धोखा दिए बिना ज़हर खाए बिना
.....
सोचती हूँ ऐसी गहरी पहचान
बेमेल लोगों में ही होती है

aur bhi bahut kuch bahut badhiya hai...

Ek ziddi dhun said...

पाठकों ने गहरे प्रेम का उल्लेख किया है तो याद दिला दूं कि `खालिस` प्रेम कविता भी जैसी इस कवि ने लिखी हैं, वे भी बेमिसाल हैं. हालाँकि खालिस प्रेम कविता उन्हें भी इसलिए नहीं कह सकते कि बेहतर मनुष्य की कविता ही बेहतरीन प्रेम कविता होती है और यह खालिस कलावादियों का काम नहीं है. प्रस्तुत कविता भी इस बात का उदाहरण है कि प्रेम अपने समय से निरपेक्ष नहीं हो सकता.
असद ज़ैदी के यहाँ छतीसगढ़ का ज़िक्र भी काबिले गौर है. सामान के तलाश और बाद की कविताओं में उनके कहने के अंदाज़ में आ रहे बदलाव भी उनकी सतत रचनाशीलता के गवाह हैं

Unknown said...

कभी कभी तो एक बदमिज़ाज छोटे भाई की तरह
वह ध्यान में आता है- ट्रान्सलव जोन से खुद खिंच कर चला आया बिम्ब।

बहुत खूब चचा।

Unknown said...

लीजिए पीकर देखिए यह ग्रीन टी - हरी चाय
जिसे पिलाकर पैंतीस बरस हुए उसने मेरा दिल
जीतने की पहली कोशिश की थी
तब मैं हरी चाय के बारे में जानती न थी