क्या इस देश में असहमति की आवाज़ों को ऐसे ही कुचला जाता रहेगा? सिर्फ़ बत्तीस साल की उम्र थी हेम पांडे की. आंध्र प्रदेश पुलिस ने दो जुलाई को भाकपा (माओवादी) के पोलिट ब्यूरो सदस्य आज़ाद के साथ फर्जी मुठभेड़ में उसका भी क़त्ल कर डाला. आज़ाद और हेम को नागपुर से उठाकर क़रीब तीन सौ किलोमीटर दूर आदिलाबाद में मारा गया. हेम वामपंथी पत्रकार था. वो ऑपरेशन ग्रीन हंट पर स्टोरी करने के इरादे से दांतेवाड़ा जा रहा था. हो सकता है कि वो माओवादी पार्टी का समर्थक हो, फिर भी उसे मारने का हक़ किसी को नहीं था. फर्जी मुठभेड़ में किसी को भी मारने का हक़ किसी को नहीं!
शांत व्यक्तित्व वाला हेम उत्तराखंड के जन आंदोलनों में लगातार सक्रिय रहा. कुमाऊं विश्वविद्यालय के पिथौरागढ़ कॉलेज में उसने दो बार छात्र संघ का चुनाव भी लड़ा. अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद उसने अल्मोड़ा कैंपस में पीएचडी शुरू की. वो अपनी जीवन साथी बबीता के साथ स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा. बाद में दिल्ली आकर भी उसने अख़बारों और पत्रिकाओं के लिए लिखना ज़ारी रखा. वो ऐसे विषयों पर लिख रहा था. जिन पर लिखने के बारे में आज के ज़्यादातर नौजवान पत्रकार सोचते भी नहीं हैं. उसके लेखन में आम आदमी की भूख दिखती है. अपनी ज़मीन से बेदखल किए जा रहे लोगों का संघर्ष दिखता है. सबसे बड़ी बात सामाजिक बराबरी का एक सपना चमकता है.
हेम की हत्या की जितनी भी निंदा की जाए कम है. उसके हत्यारों को सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए.
21 comments:
दुखद है !
फर्ज़ी मुठभेड़ में किसी को भी मारा जाना अपराध है… हेम को लाल सलाम!
हेम को श्रद्धाजंली ,पत्नि बबिता के साथ हुए इस दुखद इस कृत्य के लिए उन्हें सात्वना. ..
हेम पाण्डेय ही क्यों जब भी कोई व्यक्ति बेवजह कि हिंसा में मारा जाता है तो बहुत बुरा लगता हैं. मेरा मानवतावादी मन हर तरह कि हिंसा का विरोध करता है वो हिंसा चाहे माओवादी कर रहे हों या फिर पाक समर्थित आतंकवादी. आजकल जब भी कोई आतंकवादी मारा जाता है तो आतंक का समर्थन करने वाले इस एक फर्जी मुतभेड़ बताने लगते हैं. ये सब अगर फर्जी मुतभेड़ हैं तो असली मुठभेड़ क्या दंतेवाला में हुए थी. बुरा ना माने मेरे कुछ नजदीकी लोग CRPF में हैं. नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों में पोस्टिंग होने पर इन लोगों के परिवार वालो पर क्या गुजरती है इसे मैंने नजदीकी से देखा और महसूस किया है. नक्सली जो आतंक फैला रहे हैं वो पाक समर्थित आतंकवाद के सामान ही है. एक बार इस मुतभेड़ को किसी CRPF के परिजन कि नजर से भी देखने कि कोशिश कीजियेगा.
अप्राकृतिक मृत्यु किसी की भी किसी के द्वारा सही नहीं कही जा सकती. चाहे वह पुलिस द्वारा हो या माओवादियों द्वारा.
इस पोस्ट के लिए शुक्रिया। हैरान हुआ जा सकता है कि एक मौत पर लिखी गई पोस्ट पर कैसा शुक्रिया लेकिन मेरी हैरानी कुछ और वजहों से थी जिनमें से एक थी कि हेम की हत्या पर चुप्पी क्यों। सवाल और जवाब अनगिनत हो सकते हैं लेकिन इन सबके बीच इस तरह की गई हत्याओं का विरोध और निंदा करना बनता है।
साथी हेम को श्रद्धांजलि,
APSTF की एक और फर्जी मुठभेड़, यदि इस देश की पुलिस और सरकार की आस्था यहाँ के कानून में नहीं है. तो विद्रोही जनता की क्यों होनी चाहिए ?
दोनों तरफ की हिंसा का विरोध करना और CRPF के जवानों की मौत पर दुःख जताना बहुत आसान और सुविधाजनक है. लेकिन जो भी इन मौतों के प्रति गंभीर है. उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए की ये हिंसा हो क्यों रही है. दलित, आदिवासी किसानों की जमीनें और प्राकृतिक संसाधन देशी विदेशी पूंजीपतियों को थाल में सजा कर बांटने वाली सरकार क्या CRPF के जवानों की मौतों के लिए भी जिम्मेदार नहीं है.
साथी हेम को श्रद्धांजलि,
APSTF की एक और फर्जी मुठभेड़, यदि इस देश की पुलिस और सरकार की आस्था यहाँ के कानून में नहीं है. तो विद्रोही जनता की क्यों होनी चाहिए ?
दोनों तरफ की हिंसा का विरोध करना और CRPF के जवानों की मौत पर दुःख जताना बहुत आसान और सुविधाजनक है. लेकिन जो भी इन मौतों के प्रति गंभीर है. उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए की ये हिंसा हो क्यों रही है. दलित, आदिवासी किसानों की जमीनें और प्राकृतिक संसाधन देशी विदेशी पूंजीपतियों को थाल में सजा कर बांटने वाली सरकार क्या CRPF के जवानों की मौतों के लिए भी जिम्मेदार नहीं है.
हेम की मौत का जिम्मेदार पुलिस नहीं यह मानवविरोधी पूंजीवादी व्यवस्था और जरूरत है कि इस व्यवस्था को सजाये मौत दी जाए।
इस प्रसंग में एक जरा कड़वी बात :
मनुष्य को मनुष्य नहीं मानने वाली इस व्यवस्था की रक्षा करने के लिए जो लोग सन्नद्ध हैं और जो एक बेहतर निजाम लाने के लिए कटमर रहे हैं, दोनों में फर्क कीजिए। सेना-पुलिस के लोग नैतिक बल से नहीं लड़ते, तनख्वाह के लिए कुर्बान होते हैं।
अपने दिल से पूछिये नैतिकता के उच्च मानदंडों की हिफाजत के लिए कौन कुर्बानी देता है और किसी कुर्बानी को सलाम किया जाये।
हेम की मौत का जिम्मेदार पुलिस नहीं यह मानवविरोधी पूंजीवादी व्यवस्था और जरूरत है कि इस व्यवस्था को सजाये मौत दी जाए।
इस प्रसंग में एक जरा कड़वी बात :
मनुष्य को मनुष्य नहीं मानने वाली इस व्यवस्था की रक्षा करने के लिए जो लोग सन्नद्ध हैं और जो एक बेहतर निजाम लाने के लिए कटमर रहे हैं, दोनों में फर्क कीजिए। सेना-पुलिस के लोग नैतिक बल से नहीं लड़ते, तनख्वाह के लिए कुर्बान होते हैं।
अपने दिल से पूछिये नैतिकता के उच्च मानदंडों की हिफाजत के लिए कौन कुर्बानी देता है और किसी कुर्बानी को सलाम किया जाये।
फ़र्ज़ी मुठ्भेड़ों में कर के खूँ किसी मजलूम का,
सीना-ए-बेदिल पे तमग़े सा चमकता आदमी.
राज्य और केंद्र की लीला न समझे कोय
दो पाटन के बीच में दिया आदिवासी रोय
एक ओर सरकार दूसरी ओर नक्सलवादी
मैं नहीं जानता कि हेम कौन थे.. अगर कभी सच्चाई पता चले कि आप सही हैं तो मुझे बहुत दुःख होगा.. और अगर आप गलत हैं तो मुझे शायद आपसे भी चिढ होगी..
वैसे कामता प्रसाद जी ने जो लिखा है उस पर चले तो हर हर उस आतंकवादी के मरने पर भी हमें दुखी होना चाहिए जो पैसे के लिए नहीं, अपने जज्बातों के कारण से आत्मघाती हमला करता है? इसे एक प्रश्न समझा जाए.
न वह राज्यसभा में गया, न उसकी शादी में वीआईपीयों के गिरोह आए न उसने कोई बड़ी डील की न कभी सरकार जेब में लिए फिरने का दावा किया। फिर उसका जिक्र यहां क्यों।
योग्य और खरे लोगों का सतत चलने वाली मुठभेड़ों में आखेट हमारी परंपरा है।
क्या अशोक जी, 36 घंटे बाद भी मेरा कमेन्ट पब्लिश नहीं हुआ.. क्या मैंने कुछ ऐसा कह दिया जो पब्लिश होने के लायक नहीं था, मेरे विचार से तो ऐसा नहीं था? कम से कम अपनी गलती जानने का हक तो है मुझे.
एक-दो दफे कुछ ब्लॉग पर मेरे कमेन्ट रोक दिए गए थे, मगर मैंने उसकी परवाह नहीं की थी.. क्योंकि मैंने उनसे उससे अधिक कि उम्मीद नहीं की थी.. मगर यहाँ अपना कमेन्ट नहीं देख कर बहुत निराश हो रहा हूँ और यह कमेन्ट लिख रहा हूँ.
अशोक बाबू का नेट लगता है अब ठीक हो लिया!जय हो!
दो पाटन के बीच में दिया आदिवासी रॉय
एक तरफ सरकार है दूसरी ओर नक्सली
आदिवासी ने तो नहीं बुलाया था की आओ मेरी समस्या सुलझाओ . वैसे विकास विकास की बात सब करते हैं किसीने पूछा क्या है आदिवासी का विकास वह भी रंग ले शहरी रंग में.
समस्या तो शहर में भी है वहाँ क्यों नहीं नक्सली ?
आदिवासी ने तो नहीं बुलाया था की आओ मेरी समस्या सुलझाओ .
one should think over it more than once.
भगत सिंह को किसने बुलाया था कि आओ हमारी लड़ाई लड़ो…या गांधी को भी किसने बुलाया था…किसने कहा था बुद्ध से कि आओ हमारी मुक्ति की राह खोजो…या रघुवीर सहाय के शब्दों में 'किसने कहा था आपसे कि आईये और कविता लिखिये'…
माओवादियों की नीतियों से असहमत होने के बावज़ूद यह तर्क मुझे सबसे अहमक और शातिर लगता है… क्या हमें इंतज़ार करना होगा कि हमारे विषय हमारे दरवाज़े पर आके हमसे गिड़गिड़ायें की हे कवि आओ हमपे कविता लिखो…
hem ji ke liye shadhdhanvat.
@kamta, mujhe nhi lagta manavbadi responsible h.
@PD, sach hem ke ghr ja k lagaiye.
@vichar shoonya, aaam aadmi, aadivasiyo ki dantewada me kya galti.
unhe to shuru se choosa ja rha h, pahle jameendaar the, phir sarkar aur uske chamche, ab ye aatanki nnaxali ho gye.
CRPF ke jawano ki maut ke jimmedar jitne naxali hai utne hi kendra aur rajya me pratidwandi partiyo ki sarkaare hona aur unme kheenchtaan hona b.
hem nirdosh the. unko shraddhanjali.
जब भी पुलिस 'मुठभेड' का दावा करे उसकी न्यायिक जांच होनी चाहिए।इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रामभूषण मल्होत्रा ने एक फैसले में यह कहा था-उ.प्र में यह होती है।
Post a Comment