अन्ना अख्मातोवा की कविता
मार्च का मर्सिया
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
मेरे पास अतीत के सारे खजाने हैं
चाहत और जरूरत से कहीं ज्यादा
यह तुम भी जानते हो और मैं भी
कि द्रोही स्मृति
इनसे आधी दूर तलक भी जाने का नहीं देती है अवकाश.
सुनहले गुम्बद वाला
एक मँझोले कद का थोड़ा तिरछा चर्च
कौओं का कर्कश कोरस
एक रेलगाड़ी की सीटी
रूखी आकृति वाला एक दुबला पतला भोजवृक्ष
गोया कि जेल से छूटकर भागा हो अभी - अभी.
बाइबिल में वर्णित ऐतिहासिक आबनूसों की
मध्यरात्रिकालीन एक खुफिया बैठक
और किसी के सपनों से बाहर आती
मंथर गति वाली एक छोटी नाव
धीरे - धीरे - धीरे डूबती हुई.
खेतों खलिहानों में ठंड बुरकता हुआ जाड़ा
अलसाकर पसर गया है यहाँ
बनाता हुआ एक अलंघ्य - अभेद्य बाड़
जिसने दुनिया को घेर दिया है क्षितिज तक.
मैं सोचती थी हमारे चले जाने के बाद
कुछ नहीं , कुछ भी नहीं रह गया है शेष
तब यहाँ भटकता हुआ यह कौन है
जो बार - बार
पोर्च में आ - आकर पुकारता है हमारा नाम ?
धुँधलाये शीशों के पार धँसी हुई
यह किसकी मुखाकृति है ?
टहनी की तरह हिलता - डोलता यह कौन - सा पर्चा है
कैसा इश्तेहार ?
मकड़ियों के जालों से भरे कोने में रखा
यह जो आईना है
उसमें नाचता है धूप में झुलसा एक चीथड़ा..
--मानो हर सवाल का जवाब .
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चित्र: ओजान ओज्कान / साभार / गूगल सर्च
2 comments:
अच्छी कविता, सुन्दर अनुवाद।
एक बेहद उम्दा और सशक्त चित्रण्…………बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति।
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