Sunday, September 12, 2010

अल रबवेह - भाग पांच

(पिछली किस्त से जारी)

"एक रोती हुई जगह प्रवेश कर जाती है हमारी नींद में" कुर्दिश कवि बेजान मतूर ने लिखा था "एक रोती हुई जगह प्रवेश कर जाती है हमारी नींद में और कभी कहीं नहीं जाती."

***

चार महीनों से मैं वापस रामल्ला में हूं. एक परित्यक्त भूमिगत पार्किंग में, जिसे फ़िलिस्तीनी चित्रकारों और शिल्पियों ने अपनी कार्यस्थली बना रखा है. इनमें से एक महिला मूर्तिकार है रान्दा मदाह. मैं उसके रचे एक इन्स्टॉलेशन को देख रहा हूं जिसे उसके अधिकृत पपेट थियेटर ने निर्मित किया है.

इसमें तीन गुणा दो मीटर की एक हल्की नक्काशी की हुई दीवार है. इस के सामने फ़र्श पर अच्छे से तराशी गई तीन आकृतियां हैं.

कन्धों, चेहरों, और हाथों को प्रदर्शित करती नक्काशी की हुई दीवार को तार, पॉलियेस्टर, फ़ाइबरग्लास और मिट्टी से बनाया गया है. इसकी सतहें रंगी हुई हैं - हए, भूरे और लाल के गहरे तनिक शेड्स से. इसकी सतह की गहराई तकरीबन उतनी है जितनी फ़िरेन्जे में डुआमो के लिए जिबर्टी के बनाए पीतल के दरवाज़ों की, और उसकी फ़ोरशॉर्टनिंग और विकृत पर्सपेक्टिव को भी उतनी ही निपुणता से अन्जाम दिया गया है. (मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि इसे बनाने वाली कलाकार इतनी युवा होगी. वह छब्बीस की है.) भीड़भाड़ और आनुष्ठानिक रंगों के कारण वह दीवार किसी "बाड़" जैसी नज़र आती है जो एक थियेटर में मौजूद दर्शकों जैसी नज़र आती है, यदि उन्हें मंच से देखा जाए.

फ़र्श पर सामने तीन मानवाकार आकृतियां हैं - दो स्त्रियां और एक पुरुष. वे भी उसी सामग्री से बनी हैं पर उनके रंग अधिक धुंधुआए हुए हैं.

एक आकृति दर्शकों द्वारा छुए जाने लायक दूरी पर है, दूसरी उस से दो मीटर दूर और तीसरी उस से भी दूनी दूरी पर. वे रोज़मर्रा के कपड़े पहने हैं, जिन्हें उस सुबह उन्होंने पहनने के वास्ते चुना था.

उनके शरीर तीन ऊर्ध्वाधर छड़ियों से बंधे धागों से जुड़े हुए हैं; छड़ियां छत से टंगी हुई हैं. ये कठपुतलियां हैं जिनकी छड़ें अदृश्य कठपुतली निर्देशक को संचालन करने में सहायता करती हैं. दीवार पर बनी आकृतियों की भीड़ अपने हाथों को भींचती अपनी आंखों के सामने के दृश्य को देख रही है. उनके हाथ मुर्ग़ीख़ाने में चूज़ों की भीड़ जैसे हैं.

वे अपने हाथों को भींच रही हैं क्योंकि वे हस्तक्षेप करने में अक्षम हैं. वे एक दीवार हैं जो त्रिआयामी नहीं, इसलिए वे वास्तविक संसार में न प्रवेश कर सकती हैं न कोई हस्तक्षेप.

उनमें से कुछ आकृतियां व्याख्याकारों जैसी दिखाई देती हैं, कुछ फ़रिश्तों जैसी, कुछ सरकारी प्रवक्ताओं सी, कुछ राष्ट्रपतियों जैसी, कुछ दुष्ट लोगों जैसी. शक्तिहीनता उन सब में अभिव्यक्त होती है. एक साथ और समूह में होने के बावजूद, भिंचे हाथों के बावजूद वे निःशब्दता का प्रतिनिधित्व करती हैं.

ती ठोस, धड़कती हुई आकृतियां, जो अदृश्य कठपुतली निर्देशक के धागे से बंधी हुई हैं, धरती की तरफ़ उछाल कर फेंकी जा रही हैं, पहले सिर, और टांगें हवा में. ऐसा बार बार किया जाता है जब तक कि उनकी खोपड़ियां फट नहीं जातीं. उनके हाथ, श्रोणियां, और चेहरे यन्त्रणा में छटपटा रहे हैं. यन्त्रणा जो अपने अन्त तक नहीं पहुंचती. आप उसे उनके पैरों में देख सकते हैं. बार बार.

मैं दीवार के शक्तिहीन दर्शकों और फ़र्श पर पसरे शिकारों के बीच चल सकता हूं. लेकिन मैं ऐसा नहीं करता. इस रचना में ऐसी शक्ति है जिसे देखना मेरे लिए दुर्लभ रहा है. इसने उस धरती पर अधिकार कर लिया है जिस पर यह खड़ी है. इसने अवास्तविक दर्शकों और यातना भोग रहे शिकारों के बीच हत्यारे मैदानों को भयाक्रान्त कर दिया है. इसने एक पार्किंग को एक ऐसी शै में बदल दिया है जो लैन्डस्वैप्ट है.

गाज़ा पट्टी की भविष्यवाणी कर चुकी थी यह अविस्मरणीय रचना.

(जारी)

2 comments:

अजेय said...

दूर गाज़ा पट्टी से आती है जब
एक भारी भरकम अरब कविता
कम्प्यूटर के आभासी पृष्ट पर
तैर जाती हैं सहारा की मरीचिकाएं

* ईश्वर की संताने* बिगड़ गई हैं!

डॉ .अनुराग said...

विपरीत परिस्थितियों में भी अपने भीतर के लेखक को जिंदा रखना ......ये लेख उसकी सनद है