कल आपने हरिश्चन्द्र पाण्डे जी की एक कविता पढ़ी थी. उसी क्रम में आज पढ़िये एक और मर्मस्पर्शी कविता:
भाई-बहन
भाई की शादी में ये फुर्र-फुर्र नाचती बहनें
जैसे सारी कायनात फूलों से लद गई हो
हवा में तैर रही हैं हँसी की अनगिनत लड़ियाँ
केशर की क्यारियाँ महक रही हैं
याद आ गई वह बहन
जो होती तो सारी दिशाओं को नचाती अपने साथ
जिसका पता नहीं चला
गंगा समेत सारी गहराईयाँ छानने के बाद भी...
और बहन की शादी में यह भाई
भीतर-भीतर पुलकता
मगर मेंड़ पर संभलता, चलता-सा भी
कुछ-कुछ निर्भार
मगर बगल का फूल तोड़े जाने के बाद पत्ते-सा
श्रीहीन...
2 comments:
mujhe aapka ब्लॉग बेहद अच्छा लगा. मैं बार बार यहाँ आऊँगा :)
बड़ा खराब लगता है, श्रीहीनता का अनुभव।
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