Thursday, October 14, 2010

धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे

वीरेन डंगवाल की एक और कविता उनके दूसरे संग्रह दुष्चक्र में सृष्टा से:




तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे

धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी है
गुटरूं-गूं कबूतरों की, नारियल का जल
पहिये की गति, कपास के हृदय का पानी है

तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीड़ा की कठिन अर्गला को तोड़ें कैसे!

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत गहरी।

संजय भास्‍कर said...

गहरी बात कह दी आपने। नज़र आती हुये पर भी यकीं नहीं आता।