वीरेन डंगवाल की एक और कविता उनके दूसरे संग्रह दुष्चक्र में सृष्टा से:
तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी है
गुटरूं-गूं कबूतरों की, नारियल का जल
पहिये की गति, कपास के हृदय का पानी है
तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीड़ा की कठिन अर्गला को तोड़ें कैसे!
2 comments:
बहुत गहरी।
गहरी बात कह दी आपने। नज़र आती हुये पर भी यकीं नहीं आता।
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