Thursday, December 16, 2010

सहर की तलाश

 "सो जा लल्ला, सवेरे जल्दी उठके इस्कूल जाना है, न ?" माँ उसके बालों पे हाथ फेरकर उसे सुला रही है | वो सोने की कोशिश करता है, माहौल ने उसे उम्र से ज्यादा समझदार बना दिया है | वो जानता है कि उसका सोना क्यों जरूरी है | वो जानता है कि उसका बाप कहलाने वाला कोई आदमी अभी थोड़ी देर में आएगा, जी भरके उसकी माँ को मारेगा | उस दौरान भी उसे सोते रहना है, कम से कम सोते रहने का नाटक तो करना ही है | माँ जागी रहेगी, मार खाके सो जायेगी | तीनों बहनें एक कोने में चुपचाप सुबकती रहेंगी | सुबह उठकर वो बाप को घर के एक कोने में नाक जमीन में घुसेड़े सोते हुए एक झलक देखेगा | उसे स्कूल छोड़ने के लिए जाने के बाद माँ कुछ घरों में झाड़ू -पोछा करेगी, लोगों के झूठे बर्तन धोएगी | इस दौरान दिन भर वो स्कूल में सारे सपने देखते रहेगा जो माँ ने उसके लिए बनाये हैं | सबसे पहले सवाल हल करेगा, क्योंकि ऐसा माँ ने कहा है | किसी के साथ झगड़े नहीं, क्योंकि ऐसा माँ ने कहा है | हर शाम माँ उससे पूछती है कि वो अच्छा बच्चा है न ? वो सब सीख रहा हैं न जो उसे एक नेक इंसान बनायेंगे | वो गर्दन एक ओर झुकाकर हाँ में जवाब देता, शॉल में लिपटी हुई माँ के टूटे हुए चेहरे की परतें एक हँसी से जुड़ जाती | शाम को माँ एक बड़े से घर में खाना बनाने के लिए जायेगी, उसे भी साथ जाना होगा | वो नहीं जाना चाहता, लेकिन वहाँ कभी कभी अच्छा खाना मिल जाता है | इस घर के कमरों में कभीकभी शोर, और वैसे ही अजीब सी महक आती है जैसे उसके बाप के कपड़ों से | क्या माँ को वहाँ भी उसके बाप का डर लगा रहता है, जो उसे हमेशा साथ लेकर आती है |

आज रात वो सो नहीं सका, आज महीने का आखिरी दिन था | "नहीं , ये पैसे मैं नहीं दूँगी |" "कुतिया, साली ... " शब्द उसके कानों में गूंजते रहे | "कल इस्कूल की फीस... कैसे बाप हो तुम ?" गुर्राहट सिसकियों में तब्दील होने लगी थी | लगातार कुछ टूटने की आवाज आ रही थी, हर आवाज के साथ वो अपनी आँखें मींचता रहा | छन्न... आवाज के साथ कांच टूट गया, बाप ने बोतल ही दे मारी थी | डर गया वो, उठकर बैठ गया | बन्द दरवाजे के झिर्री से बाहर देखा, खून की एक पलती सी लहर माथे पर बह चली थी | क्या, और कब हुआ, कुछ याद नहीं | उसके अपने हाथ में टूटी हुई बोतल का हत्था पाया, बाप की जांघ से खाल उधड़ गयी थी | एक कोने में रेत की तरह भरभराकर गिरी हुई माँ में जाने कहाँ से ये ताक़त आई | "यही सब सिखाया तुझे ? अपने बाप पर हाथ उठाया तूने ?" पहली बार उसने माँ के हाथ से तमाचे खाए थे | वो रोया नहीं, हर तमाचे के साथ माँ के शरीर से शक्ति का संचार उसके शरीर में हो रहा था | माँ फिर से ढह गयी | उसने अपने को देखा, काँच अभी भी कांपते हाथ में ही था, बुरी तरह से डर गया था वो |

"बस कुछ साल बेटे, उसके बाद तो... " अपने दोस्त के कहने पे बरसों बाद कुछ नए ख्वाब देखे उसने | माँ के पुराने टूटे हुए, अच्छा इंसान बनने जैसे सपनों से इतर ये ज्यादा आसान लगे | उसने अपनी जिंदगी का पहला और आखिरी गलत काम किया | घर से पैसे चुराए और उड़ चला वो अपने ख़्वाबों की जमीन तलाशने के लिए | जो कुछ सोचा था, उससे उबड़-खाबड़, पथरीली राहें थी | वो वापस नहीं जाना चाहता था, इसलिए हर वो मुमकिन काम किया जो उसे पैसा दे सके | आसान पैसा बनाने का भी रास्ता था, लेकिन माँ का चेहरा आँखों में आता रहा | शाम को तेज़ तेज़ क़दमों से घर आती माँ | महीने की आखिरी तारीख को पैसे लेती हुई माँ | रात को अक्सर ज्यादा ठण्ड होने पर उसे शॉल ओढाती हुई माँ | हर रात को थककर चूर होने पर हमेशा उसके अन्दर एक जंग छिड़ी होती थी, अच्छा इंसान बनाम बड़ा आदमी | बाप के लिए घिन से ज्यादा कभी कुछ उसके जेहन में नहीं आया | न वो अच्छा इंसान था, न बड़ा आदमी | बड़े घरों के रहस्य उसकी आँखों में खुलने लगे थे | शराब की गंध वहाँ भी थी, खून की कुछ बूंदे उसने वहाँ भी देखी थी कभी |

वो वापस लौट आया था, लेकिन घर जाने की हिम्मत न होती थी | उस रात के बाद उसमे इतना आत्मबल रह ही नहीं गया था कि माँ की नजरों का सामना कर पाता | खबर लेता रहा दूर दूर से सबकी, बहनों को कुछ न कुछ खरीद देता रहता था | बाप उसके जाने के कुछ सालों बाद कहीं चला गया, फिर दुबारा किसी को नहीं दिखा | माँ के मरने की खबर मिली उसे, वो भागता हुआ आया | देहरी पर सारा बचपन फिर से सजीव हो उठा | अन्दर घुसा तो पूरे बदन में झुरझुरी सी दौड़ गयी | माँ के पास बैठा हुआ था उसका बाप | सारी नफरत गले में उमड़कर आ गयी | गिरेबान पकड़कर उठाया उसने अपने बाप को, झंझोड़ना चाहा उसे जिस्म समेटकर | माँ गुज़र गयी थी, आज अपनी नफरत को अंजाम देने का वक़्त था | "अपने बाप पर हाथ उठाया तूने !" माँ अभी भी मरी नहीं थी, उसके अन्दर कहीं अभी भी जिन्दा थी | कांपते हाथो से गिरेबान छोड़ दिया उसने | दूसरी लाश बना उसका बाप धम्म से वहीं बैठ गया | वो अभी भी डरा हुआ था |

वो बहनों को अपने साथ, अपने घर ले आया | ये उसका अपना घर था, अपनी मेहनत से कमाया हुआ | उसका बाप भूत की तरह उस पुराने घर में घूमता रहा | दीवारें हिल गयीं थी, बस छत का ही थोड़ा सहारा था | बड़ा आदमी बनने की धुन उसने अभी भी नहीं छोड़ी थी | मिनट के साठ सेकेण्ड उससे बेहद कम लगते थे | इक शाम ऐसे ही लोगों का मजमा लगा हुआ देखा | "क्या हुआ ?" उसने किसी से पूछा | वो आदमी उछल उछल कर देखने में मशगूल था | उसने हिलाकर पूछा, कोई जवाब नहीं | एक बूढ़ा बोला - "अरे साहब ! फलों की रेहड़ी लगाता है, मेरी दूकान के आगे | अभी सड़क पार कर रहा था तो , गाड़ी से टकरा गयी रेहड़ी | वही लोग मार-पीट कर रहे हैं |" "तुम लोग कुछ बोलते क्यों नहीं ? ये लोग मारते रहेंगे | अगर तुम उसकी जगह पर होते तो ?" गुस्से से दांत पीसने लगा वो | वो बाजुओं में हुई फडकन को महसूस करने लगा | बूढ़े ने सर झुका लिया, जिसने उसके गुस्से में और इजाफा किया | भीड़ को चीरता हुआ वो आगे आया | बचपन का देखा हुआ हिंसक निडर, शाक्त समर्थ इंसान को जमीन चाटते हुए देखा उसने | इंसान इतना कमजोर था, उसे आश्चर्य हुआ | गुस्से का गुबार बैठ गया | बाजुओं में फड़कती हुई मछलियाँ दम तोड़ने लगी | अजीब से सुकून से खुद को नहलाने की नाकाम कोशिशें करने लगा वो | सड़क पर रेहड़ी उलटी पड़ी थी, फल दूर तक बिखर गए थे | इन सब के बीच में उसने देखा वो शॉल, उसके नीचे से झांकती माँ की दो आँखें | वो बार बार कोशिश करता कि उन आँखों से नजरें हटा ले और वो मंजर देखे जिसके लिए वो हमेशा तरसता रहा | एक वो पल जिसने उसका बचपन छीन लिया, क्या ये पल उसका जवाब है ? लाख कोशिशों के बाद भी वो इस सवाल का जवाब नहीं दे सका कि क्या वो खुश है |

उसके बाप को मारने के बाद गन्दी गालियाँ देते हुए, वो लोग चले गए | तमाशबीन भीड़ भी धीरे धीरे छंटने लगी थी | धूल में लिपटे हुए उसके बाप में उठने की ताक़त शायद नहीं बची थी | वो धीरे धीरे आगे बढ़ा | उसने सहारा देकर अपने बाप को उठाया | उलझी हुई दाढ़ी में छिपी हुई दो आँखें थी, बस | उसके बाप ने एक नजर भी नहीं देखा कि उसे उठाने वाला कौन था | चुपचाप उठकर सड़क के एक कोने से झुककर उसने तस्वीर उठाई, जेब के हवाले किया | उसने अपने बाप को शॉल ओढा लिया | रात गहराने लगी थी | आसमान से आँखें अभी भी उसे देख रही थी | बाप को सहारा देकर वो चलने लगा, आहिस्ता आहिस्ता...

7 comments:

सोमेश सक्सेना said...

कहानी कुछ उलझी हुई सी है। ऐसा लगता है लेखक बहुत हड़बड़ी में बात कह रहा हो। कुछ ठहर कर कथा क्रम को थोड़ा और विस्तार दिया गया होता तो शायद कहानी और भी ज्यादा प्रभावी होती।

नीरज जी बुरा न मानिएगा पर इस कहानी में वो बात नहीं है जो आपकी पिछली कहानियों में थी। मेरे विचार से पोस्ट करने से पहले आपको इसका एक ड्राफ्ट और तैयार करना चाहिए था।

ये मेरे अपने विचार हैं हो सकता है बाकी लोग इससे असहमत हों।

सोमेश

Shalini kaushik said...

yatharth ka darshan karati marmik rachna .mere blog ''http://shalinikaushik2.blogspot.com''par bhi aaye .

मुकेश कुमार सिन्हा said...

ek behtareen rachna......dil ko chhu gayee kahani...:)

The Serious Comedy Show. said...

badhiyaa likhate ho mitra.achchaa lagaa.

प्रवीण पाण्डेय said...

आ्रपकी कहानी होती हुयी सी लगती है।

Neeraj said...

सोमेश, आप सौ फीसदी सही हैं |

kavita verma said...

baut khoobsoorat kahani manav man ko alag alag paristhiti me behtar prastut karti hui....