हम ख्वाब बेचते हैं | पता नहीं कितने सालों से | शायद जब से पैदा हुआ यही काम किया, ख्वाब बेचा | दो आने का ख्वाब खरीदा, उसे किसी नुक्कड़ पे खालिश ख्वाब कह के किसी को बेच आये | जब कभी वो शख्स दुबारा मिला तो शिकायत करता, "जनाब पिछली बार का ख्वाब आपका अच्छा नहीं रहा |" अब अपने ख़्वाबों की बुराई किसे बुरी नहीं लगती | तुरंत तमककर बोले, "आज अगर नींद के मोहल्ले में कोई कह दे कि मेरे ख़्वाबों में वो मजा नहीं है, जायेका नहीं है, या फिर तंदुरुस्ती नहीं है, तो सब छोड़ के काशी चला जाऊं |" ख्वाब खरीदने वाला सहम जाता है | इधर नाचीज़ देखता है कि साहब शायद नाराज हो गए, कहीं अगली बार से हमसे ख्वाब खरीदना बंद न कर दें | तुरंत चेहरे का अंदाज बदल कर कहते हैं, "अरे साहब, बाप दादों की कमाई है ये ख्वाब, उनका खून लगा है इस ख्वाब में | अपना होता तो एक बार को सुन लेता, चूं-चां भी न करता | लेकिन खानदान की याद आते ही दिल मसोस कर रह जाता हूँ |" साहब का बिगड़ा अंदाज फिर ठीक हो जाता है | दिल ही दिल में खुद को तस्दीक मिलती होगी कि हाँ अभी भी मैं ही साहब हूँ, क्या हुआ जो कल का लौंडा एक बार बिगड़ गया तो | बाप के नाम पे ही तो जीना होता है कई लोगों का | तुरंत ही गलती से सीख ली और मुआफी मांगने लगा है |
ऐसे ही एक मोहल्ले में आज ख्वाब बेचने आया हूँ | पिछली बार ख्वाब बेचते बेचते यहाँ से एक ख्वाब चुपके से जेब में रख लिया था, आयशा | नहीं, मुहब्बत कह के इस ख्वाब को बदनाम न कीजिये, इसे सिर्फ आयशा ही कहें | दो साल से ऊपर गुजर गए हैं, लोग अब पहचान में नहीं आते | गली के नुक्कड़ पे सियाराम का मंदिर था | पिछली बार रात को वहीँ रहा था, रामेसर पंडा के दालान में | इन दो सालों में मंदिर का निशां मिट गया था | उधर वो मियांजी का छापेखाना आज भी छप रहा है | हर दम सोचता हूँ कि कुछ तालीम ली होती तो शायद कुछ नए ख्वाब खरीद के उन्हें सजा संवार के बाजार में बेच आता, शायद ख्वाब खरीदने का शऊर होता | सुलेमान दर्जी का लड़का पिछली दफे लाहौर भाग गया था | सुना है, उधर कुछ सनीमा में काम भी करने लगा है | बाप को पैसे भी भेजता है | सुलेमान ने पानी पिला के बताया था | ताहिर अली और माहिर अली की तकरार अब इस कदर बढ़ गयी थी कि जमीन के उस टुकड़े पर कोई न रहता था, जिस पर दोनों अदालत के चक्कर काटते हैं | बेग साहब, आज भी लोगो को ईमान, नेकी और मुहब्बत से रहने का, हजरत के बताये रास्ते पर चलने की ताकीद करते हैं | बस अब कुछ ज्यादा ही कमजोर हो गए हैं | सकीना ने फ़य्याज़ से सबके सामने अपना इश्क क़ुबूल किया, तो सारा मोहल्ला दोनों की जान का दुश्मन हो गया था | बेग साहब ने ही दोनों का निकाह मंजूर करवाया |
इन सब के बीच मैंने पूछा, "रामेसर पंडा किधर चले गए ? क्या हिंदुस्तान वापस चले गए ?"
"नहीं, हिंदुस्तान तो नहीं गए, अब किस आसरे हिंदुस्तान जायेंगे | वहां है ही कौन उनका ?"
रामेसर पंडा ने भी मेरे ख्वाब खरीदे थे कि तकसीम के बाद शायद ये गुबार ख़तम हो जायेगा | वो भी अपने बाप दादों के ख्वाबो को जी रहे थे | सियाराम का मंदिर वीराना कैसे छोड़ के जाएँ | इस लोक में जितनी सेवा हो सकती थी उन्होंने की, पर बाप दादों और खुद का परलोक भी उन्हें सुधारना था | किसी तरह से जलजला थमने तक किसी मुसलमान दोस्त के यहाँ रुके | लोगो का, और मेरा भी यही सोचना है कि वो दोस्त बेग साहब ही थे | पंडा जी की एक बेटी थी, आशा | आशा सचमुच पंडा जी की इकलौती आशा थी | माँ के मरने के बाद आजादखयाल लड़की को ख्वाब चुराने में डर ही किसका था | सुहैल से मुहब्बत कर बैठी | बेग साहब का लड़का, सुहैल | बेग साहब इस हरक़त से कतई खुश न थे, लेकिन हारकर मंजूरी देनी पड़ी | मगर कुर्बानी तो पंडा जी ने दी थी, आशा को आयशा मानकर | अब पंडा जी की अगली पीढ़ी का हिंदुस्तान से नाता ही टूट गया था |
पिछली बार यही ख्वाब मैंने आयशा के नाजुक हाथों में दिए थे | ख्वाब देते वक़्त चुपके से उसकी उँगलियों को छू कर मैंने एक छोटा सा ख्वाब अपनी रूह में हमेशा के लिए जज़्ब कर दिया | आँखों में बच्चों सी मस्ती, लाहौल-बिला-कुवत कहती बूढी अम्मायें, और उस पर सुहैल का बार बार उसे देखकर बलिहारी हो जाना, दिल में पहली बार रश्क उठा था किसी के नसीब से | सुहैल एक होनहार नौजवान था | मियांजी के छापेखाने पर काम करता, बाप से अच्छी तालीम तो मिली ही थी, दो-चार अखबारों के लिए लिखता भी था | रामेसर पंडा अभी भी छुआछूत को मानते थे | बेटी जमाई जब घर आते तो बेटी के गले लग के खूब रोते, लेकिन उसके बाद स्नान-ध्यान कर के सियाराम से क्षमा-याचना करते |
"लेकिन पंडा जी गए कहाँ ?" मैंने बेताबी से पूछा | दिल ही दिल में डर रहा था कि कहीं मेरी बेताबी को सुलेमान ताड़ न जाये | लेकिन सुलेमान बीडी फूंकता रहा, फिर धीरे से बोला, "जलजला फिर आया था | पिछली बार बेग साहब ने हिम्मत दिखाई, इस बार सुहैल ने मुहब्बत का फ़र्ज़ अदा किया | जान गँवा दी, लेकिन आयशा और रामेसर पंडा को दूर भेज दिया | जाने कहाँ ?" सुलेमान भी उन्ही लोगो में से था जिन्होंने इस निकाह की खिलाफत की थी | ताहिर अली और माहिर अली ने एक दिन के वास्ते रंजिश भुला दी थी होगी | फ़य्याज़ सबसे आगे-आगे रहा होगा | सुलेमान की आँखों में कहीं कोई ख्वाब नहीं था, बस वो नहीं देख पाया था तो मेरी आँखों से दो नन्हे ख्वाब चूं पड़े | मेरा तो कोई मजहब नहीं था, मेरे बाप ने गाय खा कर हिन्दू धरम से हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया था, लेकिन मुसलमान नहीं बना | धरम नहीं रखूँगा, मैंने भी हमेशा बाप के ख्वाब ही बेचे थे |
अल्लाह भी गली गली जाके ख्वाब बेचता है | "खालिश ख्वाब है साहब, जन्नत से सीधे आप ही के वास्ते उतार के लाये हैं | देखो तो सही कैसा है| अरे एक बार लेके तो देखो | अजी चार पैसे न मिलें पर ख्वाब हमारे पाक हाथों में जाएँ, इससे ज्यादा और हमें क्या चाहिए |" कुछ इंसान ख्वाब खरीद लेते है, मजहब उन ख्वाबो को खरीदने वाले को खा जाता है | क्या ये मजहब का तकाज़ा है | वो लोग तो कह भी नहीं पाते, "तुमने पिछली बार नकली ख्वाब, असली कह के हमें थमा दिया था, भाई जान!!!"
ऐसे ही एक मोहल्ले में आज ख्वाब बेचने आया हूँ | पिछली बार ख्वाब बेचते बेचते यहाँ से एक ख्वाब चुपके से जेब में रख लिया था, आयशा | नहीं, मुहब्बत कह के इस ख्वाब को बदनाम न कीजिये, इसे सिर्फ आयशा ही कहें | दो साल से ऊपर गुजर गए हैं, लोग अब पहचान में नहीं आते | गली के नुक्कड़ पे सियाराम का मंदिर था | पिछली बार रात को वहीँ रहा था, रामेसर पंडा के दालान में | इन दो सालों में मंदिर का निशां मिट गया था | उधर वो मियांजी का छापेखाना आज भी छप रहा है | हर दम सोचता हूँ कि कुछ तालीम ली होती तो शायद कुछ नए ख्वाब खरीद के उन्हें सजा संवार के बाजार में बेच आता, शायद ख्वाब खरीदने का शऊर होता | सुलेमान दर्जी का लड़का पिछली दफे लाहौर भाग गया था | सुना है, उधर कुछ सनीमा में काम भी करने लगा है | बाप को पैसे भी भेजता है | सुलेमान ने पानी पिला के बताया था | ताहिर अली और माहिर अली की तकरार अब इस कदर बढ़ गयी थी कि जमीन के उस टुकड़े पर कोई न रहता था, जिस पर दोनों अदालत के चक्कर काटते हैं | बेग साहब, आज भी लोगो को ईमान, नेकी और मुहब्बत से रहने का, हजरत के बताये रास्ते पर चलने की ताकीद करते हैं | बस अब कुछ ज्यादा ही कमजोर हो गए हैं | सकीना ने फ़य्याज़ से सबके सामने अपना इश्क क़ुबूल किया, तो सारा मोहल्ला दोनों की जान का दुश्मन हो गया था | बेग साहब ने ही दोनों का निकाह मंजूर करवाया |
इन सब के बीच मैंने पूछा, "रामेसर पंडा किधर चले गए ? क्या हिंदुस्तान वापस चले गए ?"
"नहीं, हिंदुस्तान तो नहीं गए, अब किस आसरे हिंदुस्तान जायेंगे | वहां है ही कौन उनका ?"
रामेसर पंडा ने भी मेरे ख्वाब खरीदे थे कि तकसीम के बाद शायद ये गुबार ख़तम हो जायेगा | वो भी अपने बाप दादों के ख्वाबो को जी रहे थे | सियाराम का मंदिर वीराना कैसे छोड़ के जाएँ | इस लोक में जितनी सेवा हो सकती थी उन्होंने की, पर बाप दादों और खुद का परलोक भी उन्हें सुधारना था | किसी तरह से जलजला थमने तक किसी मुसलमान दोस्त के यहाँ रुके | लोगो का, और मेरा भी यही सोचना है कि वो दोस्त बेग साहब ही थे | पंडा जी की एक बेटी थी, आशा | आशा सचमुच पंडा जी की इकलौती आशा थी | माँ के मरने के बाद आजादखयाल लड़की को ख्वाब चुराने में डर ही किसका था | सुहैल से मुहब्बत कर बैठी | बेग साहब का लड़का, सुहैल | बेग साहब इस हरक़त से कतई खुश न थे, लेकिन हारकर मंजूरी देनी पड़ी | मगर कुर्बानी तो पंडा जी ने दी थी, आशा को आयशा मानकर | अब पंडा जी की अगली पीढ़ी का हिंदुस्तान से नाता ही टूट गया था |
पिछली बार यही ख्वाब मैंने आयशा के नाजुक हाथों में दिए थे | ख्वाब देते वक़्त चुपके से उसकी उँगलियों को छू कर मैंने एक छोटा सा ख्वाब अपनी रूह में हमेशा के लिए जज़्ब कर दिया | आँखों में बच्चों सी मस्ती, लाहौल-बिला-कुवत कहती बूढी अम्मायें, और उस पर सुहैल का बार बार उसे देखकर बलिहारी हो जाना, दिल में पहली बार रश्क उठा था किसी के नसीब से | सुहैल एक होनहार नौजवान था | मियांजी के छापेखाने पर काम करता, बाप से अच्छी तालीम तो मिली ही थी, दो-चार अखबारों के लिए लिखता भी था | रामेसर पंडा अभी भी छुआछूत को मानते थे | बेटी जमाई जब घर आते तो बेटी के गले लग के खूब रोते, लेकिन उसके बाद स्नान-ध्यान कर के सियाराम से क्षमा-याचना करते |
"लेकिन पंडा जी गए कहाँ ?" मैंने बेताबी से पूछा | दिल ही दिल में डर रहा था कि कहीं मेरी बेताबी को सुलेमान ताड़ न जाये | लेकिन सुलेमान बीडी फूंकता रहा, फिर धीरे से बोला, "जलजला फिर आया था | पिछली बार बेग साहब ने हिम्मत दिखाई, इस बार सुहैल ने मुहब्बत का फ़र्ज़ अदा किया | जान गँवा दी, लेकिन आयशा और रामेसर पंडा को दूर भेज दिया | जाने कहाँ ?" सुलेमान भी उन्ही लोगो में से था जिन्होंने इस निकाह की खिलाफत की थी | ताहिर अली और माहिर अली ने एक दिन के वास्ते रंजिश भुला दी थी होगी | फ़य्याज़ सबसे आगे-आगे रहा होगा | सुलेमान की आँखों में कहीं कोई ख्वाब नहीं था, बस वो नहीं देख पाया था तो मेरी आँखों से दो नन्हे ख्वाब चूं पड़े | मेरा तो कोई मजहब नहीं था, मेरे बाप ने गाय खा कर हिन्दू धरम से हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया था, लेकिन मुसलमान नहीं बना | धरम नहीं रखूँगा, मैंने भी हमेशा बाप के ख्वाब ही बेचे थे |
अल्लाह भी गली गली जाके ख्वाब बेचता है | "खालिश ख्वाब है साहब, जन्नत से सीधे आप ही के वास्ते उतार के लाये हैं | देखो तो सही कैसा है| अरे एक बार लेके तो देखो | अजी चार पैसे न मिलें पर ख्वाब हमारे पाक हाथों में जाएँ, इससे ज्यादा और हमें क्या चाहिए |" कुछ इंसान ख्वाब खरीद लेते है, मजहब उन ख्वाबो को खरीदने वाले को खा जाता है | क्या ये मजहब का तकाज़ा है | वो लोग तो कह भी नहीं पाते, "तुमने पिछली बार नकली ख्वाब, असली कह के हमें थमा दिया था, भाई जान!!!"
5 comments:
वाह क्या प्रस्तुति है सजीव चित्रण...बधाई.मेरे ब्लॉग पर भी आयें {http ://shalinikaushik2 .blogspot .com }
ख्वाब बेचने की खूब कही, लेकिन बात ठहराया नाजुक मुकाम पर. एक गीतफरोश याद आए 'हां जी हां मैं गीत बेचता हूं' - भवानी भाई.
संवेदन...
wo jiske naam par insaaniyat bant jaaye khemo.n mei,
wo mazhab aapkaa hogaa hamein fursat nahee hai.
bahut khoob neeraj bhai.
ये कहानी पठनीय है नीरज जी, हालाँकि विस्तार की संभावना इसमे भी है। बहुत अच्छे विषय को छुआ है आपने।
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